Wednesday, December 31, 2008
मोह / इंद्रिय विषयों से दुख
Chapter: 3
Page#: 50
Paragraph # 2:
Recorded version:
Summary:
.... सो निजभाव सदा सुखद करिहै सत्ता नाश ।
मंगला-चरण में सुख जीव के स्व्भाव में बताया । मिथ्यात्व रुप अवस्था, इंद्रिय विषयों में सुख मानने की अवस्था दुख का कारण है ।
इंद्रिय विषय रुप दुख/सुखाभास के बारे में चार बात दोहराते हैं -
अ) बाधा सहित
ब) विनाशीक
स) पराधीन
द) बंध के कारण
ए) विषम
बंध का कारण तो स्पष्ट भासित नहीं होता है परन्तु और चार बाते तो स्पष्ट भासित होती हैं। अनुभव करने में आती हैं।
page 50 ...
प्रश्न - आपने सभी कर्म के उदय दुखरूप बताये लेकिन रति कर्म(उसकी परिभाषा के अनुसार) का उदय तो सुख रूप होता होगा?
उत्तर - मोह का उदय दुखरूप ही है, मिथ्यात्व,कषाय, रति अरति सभी दुख रूप ही है।
दर्शन मोहनीय से दुख और उससे निवृत्ति:-
दर्शन मोह के उदय से प्रयोजन भूत तत्वों में विपरीत श्रद्धान होता है। प्रयोजन भूत तत्व अर्थात जिससे जीव का बिगाड सुधार होता है, जीव के सच्चे सुख का प्रयोजन होता है।
मिथ्यात्व के उदय से स्व और पर के श्रद्धान में विपरीतता पाई जाती है । यह विपरीतता पहले चार प्रकार से बताई थी ।
अ) अपना ज्ञान का परिणमन [मैं ज्ञान करता हूं]
ब) रागादि विभाव भाव [मुझे क्रोध आया]
स) शरीर का परिणमन [मुझे बुखार आया]
द) बाह्य संयोग [मेरे पुत्र / घर / संपदा]
इन चारों ’मैं’ में एक-मेक जानने रुप अवस्था मिथयात्व से बनती है ।
जैसे - पागल [मिथ्यात्वी] को किसी [कर्मों] ने कपडे [शरीर] पहनाए । पहनाने वाला [कर्म] कभी लाल-पीले-छोटे-बडे [शरीर की अवस्था - मोटा, छोटा, काला, गोरा] कपडे पहनाता है । पहनाने वाला तो कोई और, मगर पागल उस कपडे को अपना मानता है । कभी कपडे अपनी इच्छा के अनुरुप लगे तो खुश होता है, नहीं तो बहुत दुखी होता है । यह नहीं सोचता कि यह तो पहनाने वाले के आधीन है । यही विपरीत श्रद्धान है । अनेक उपाय करने के बाद भी संयोग हमारी इच्छा के अनुरुप नहीं होते । संबंध इतना करीब का लगता है कि इसमें विपरीतता आसानी से समझ नहीं आती । आचार्य कहते है कि लक्षण, नय, तर्क से इस विपरितता को समझा जा सकता है ।
Tuesday, December 30, 2008
Misery or Dukh is created by Moha
Chapter: 3
Page#: 49
Paragraph #: last para
Recorded version: http://cid-52d749a4f28f4c05.skydrive.live.com/embedrowdetail.aspx/Public/MMP%20class/12-29-08%7C_Chap3%7C_KarmSeDukh%7C39.WAV
Summary:
Eating may only temporarily satisfy the hunger of food, due to the accumulation of every food particle. However, the hunger of desires (Vishayo ki Trushna) is such that it can never be fulfilled at all. Fulfilling one desire (vishayo) to get Sukh is like using fuel (ghee) to put off the fire. This creates an illusionary state of mind providing a false sense of pleasure called Sukhabhaas. Nature of desires is such that with the advent of a second desire, the so called Sukh from first desire is completely lost. Also these desires never precipitate cumulatively. Thereby rendering the individual a false sense of Sukhabhaas , which in turn makes him/her run behind these desires like a person running in a desert in search of water (Mirage). These desires, passion are created due to Moha (which in turn is created due to ignorance, Mitthaytva ).
Hence the saying goes “ Bhog bure Bhav, Rog Badhave; Vairi hai Jagji ke”
Thus the illusion of fulfilling the desires, only leads to more and more misery. Since the true happiness (certainly not Sukhabhaas) can never be derived from a false state of illusion.
This true infinite happiness (AnantSukh), blissful state of existence enjoyed by the Arhant/Siddh Bhagwan is described in the following table, in accordance with Pravachansaar.
S.No | Mundane Soul ( Sansari Jeev ) | Arhant/Siddh Bhagwan |
1 | Sukh obtained from 5 senses & mind that is not from the eternal soul | Sukh obtained from Neej Atma that is totally natural from the eternal soul |
2 | Dependent Sukh ( Paradheen) | Independent Sukh (Swaadheen Sukh) |
3 | Sukh entangled with obstacles ( Baadhasahit ) | Eternal blisss without any obstacles ( Avyabaadh) |
4 | Time dependent temporary or finite Sukh that will eventually end. (Vinaashit) | Independent of time or any external factors, Permanent and infinite Sukh that will never end (Avinaashik) |
5 | Produces Karma Bandh | Liberated Soul produces no Karma Bandh |
6 | Lot of variations ( Vishaam) | Constant Uttam Sukh without any variations |
As shown in the above chart, all the actions or efforts of a mundane soul ( Sansari Jeev) are driving the life’s journey in the wrong direction, eventually leading to unfortunate destination of Dukh, Dukh, and Dukh.
Hence, the true happiness lies in eliminating all the desires and ultimately becoming desireless and having all pervading knowledge, becoming omniscient. Please note that only complete elimination of Moha and Mitthyatva can lead to desireless state and becoming omniscient with all the pervading knowledge means procuring KEVALGNAAN. Further, this can only occur if we procure SAMYAKDARSHAN. This is the only true remedy for all SansarDukh
In this manner, Kshyaoppsham of Gyaanavarniya or Darshanavarniya Karma leads to misery (Dukh), if it is with Moha or Mitthyatva., mainly because desire or Ichha are produced from Moha and Mitthyatva.
We also discussed how this chapter is explained - in treating a disease state of a patient, a doctor would adopt the following protocol
(1) Diagnose the disease
(2) Explain the disease state, causal factors, and the consequences of the disease
(3) Then, doctors make patients believe what he/she was trying to do to get rid of the disease was wrong and the opposite treatment plan is necessary.
(4) Once the right treatment plan is discussed, the doctor cultivates the interest of the patient towards compliance of the correct beneficial treatment plan.
Our Dev, Guru and Shastra are adopting a similar plan of action in treating patients likes us who have been submerged in the continuous sufferings of this Sansar. They are clearly differentiating the true picture of SansarDukh and MokshaSukh to the mundane soul in this chapter three of MokshMargPrakash book. The remedy of MokshSukh is provided (to the mundane soul suffering this SansarDukh from the infinite birth and death cycles) in the form of a similar four steps :
(1) Realization of the SansarDukh due to the fruition of Karma (KARMA UDAY)
(2) Mundane soul searching for a remedy or a solution to get rid of the Dukh due to KarmaUday.
(3) Realization that his/her remedy or the solution to absolve from all these sufferings is a false treatment plan, that really is not working for the self-benefit.
(4) Understanding the true remedy and living a life with these values to finally remove all the SansarDukh and reach the MokshSukh.
Compassionate and Enlightened Guru is bestowing upon us this True Path ( MARG ) to solidify our faith (Shraddha) in these values. This way Guru is establishing the correct direction for the journey of our soul. Sooner or later, if the direction is correct, then the disciple (currently a mundane soul ) will certainly reach the correct destination of Moksha. However, if the direction of soul’s journey is incorrect then, no matter how fast the speed of the travel may be, that mundane soul will unfortunately never reach the desired destination of Moksha. The Compassionate JinVaani thus provides correct direction to the mundane soul to reach the eternal blissful state of Moksha by solidifying the Shraddhan in these values.
Posted by: Atul Gandhi (aumarihant@gmail.com)
Wednesday, December 17, 2008
Tuesday December 16th, 2008 - Revision from page 47 and 48
*** इस क्लास मे हम ने रिविज़न किया इन पॉइंट्स पर:
* ज्ञान का स्वव्हाव केसा हे?
-जीव मे एक भी इच्छा बाकि होगी तो उसे क्षयोपशामिक ज्ञान ही होगा। इच्छा न रहने पर जीव को केवल ज्ञान की प्राप्ति होगी ।
-ज्ञान बढ़ने रूप कार्य मे कषायो का निर्मल होना कारन हे।
- विषय ग्रहण की शक्ति बढ़ने से पंडित जी आत्मा के ज्ञान - दर्शन गुणों की जानने और देखने रूप शक्ति का निर्देश कर रहे हे।
* विषय ग्रहण से इच्छा क्या संपूर्ण तरह पुरी होती हे ?
- अगर एसा होता तो उसी विचय के ग्रहण की इच्छा फ़िर से थोड़े समय पश्चात् क्यो उत्पन होती?
- फ़िर से उसी विषय को ग्रहण करना सूचित करता हे की संतोष नही हे, तृप्ति नही हे, यानी की इच्छा अभी बाकी हे।
* क्या हम बाह्य द्रव्य का पुनः संयोग हो एसा चाहते हे?
- अगर नही चाहते तो इतने डिजीटल फोटो क्यो स्टोर करते हे?
- अगर नही चाहते तो एक ही मूवी फ़िर से क्यो दीखते हे ?
- या फ़िर ब्लॉग क्यो लिखते हे?
* क्या हमें ज्ञान की पराधीनता भासित होती हे?
- इतने बाह्य द्रव्यों का पुनः संयोग किया लेकिन कितने याद हे?
- इतने मूवी देखे लेकिन कितने याद हे?
- इतना स्वादिष्ट खाना खाया लेकिन कितना स्वाद याद हे?
- कोई उस स्वाद को या मूवी की स्टोरी फ़िर से पूछे या तो कल एक घंटे स्वाध्याय मे क्या किया वोह पूछे तो हम क्या संपूर्ण विस्तार से स्पष्ट तरह व्यक्त कर सकते हे?
- सिर्फ़ मन मे स्मरण मात्र रूप अस्पष्ट स्मृति होती हे।
- इस से हमें क्या अपने ज्ञान का कश्योपषम मर्यादित हे एसा और ज्ञान की पराधीनता भासित नही होती?
* संयोग बनाये रखना क्या हमारे हाथ मे हे?
- बाह्य द्रव्य के संयोग बनाये रखना हमारे हाथ मे होता तो सब बाह्य द्रव्य हमेशा के लिए हमारे साथ बने रहते?
- कई हमारा थोड़ा पुरुषार्थ कोई बाह्य द्रव्य मिला देता हे? और कई बार कितना भी पुरुषार्थ करे, बाह्य द्रव्य नही मिलता हे।
- हर द्रव्य का परिणमन खुउस द्रव्य के आधीन हे और करमा के आधीन हे ।
- एक द्रव्य दुसरे द्रव्य के आधीन होकर परिणामित नही होता हे।
- जिस तरह बाह्य द्रव्य का संयोग हमारे आधीन नही उसी तरह संयोग छूटना भी हमारे हाथ मे नही हे। बुरी वास्तु का संयोग भी कर्म के आधीन होकर समय पर ही छुटेगा।
- इस तरह "संयोग बनाये रखने से इचछा पुरी हो जायेगी" एसा सोचना भी ग़लत हे।
* संयोग क्या मांगे जाने से मिलते हे?
- जो भी संयोग हमें मिलते हे वोह हमारे संक्लेषित भाव से नही लेकिन शुबहा या सुध्धा भाव से मिलते हे।
- ध्यान मे रखने जेसी बात यह हे की अगर मागने से कुछ मिलता हे यानि निदान से कुछ मिलता हे तो वोह जोह भी मिलना था उस से कही कम मिला हे।
-यानी की पुण्य तो इतना था की १०० गुना ज्यादा मिल शकता था लेकिन अब सिर्फ़ २ गुना ही मिला, क्यों की मांग कर अच्छे पुण्य को खत्म कर दिया।
* कब कर्म समर्थ कारन और कब पुरुषार्थ समर्थ कारन?
- शरीर की अवस्था और अन्य अगहनी कर्म के उदय मे कर्म समर्थ कारन हे। जब की आत्मा की और आत्मा के अन्तरंग भावः की बात आए तब जीव का पुरुषार्थ समर्थ कारन जानना।
- बाह्य पदार्थो मे कर्म की प्रधानता होगी। आत्मा के अन्तरंग भावः के परिणमन मे पुरुषार्थ की प्रधानता होगी।
* क्या इच्छा की तृष्णा रूप रोग मुझे हे?
- क्या मुझ मे एक ही विषय को फ़िर से ग्रहण करने की इच्छा दिखायी देती हे? अगर दिखायी देत हो तो उस विषय की तृप्ति नही हे।
- क्या मुझ मे एक विषय के बाद दुसरे विषय के ग्रहण की इच्छा देखने को मिलती हे? अगर मे ऐसे ज़पते मार रहा हु तो सारे / सब विषय मुझे मिल जाए उस रूप तृष्णा मुझ मे अभी बाकी हे।
- अगर हमें इन रोग के लक्षण खुद मे दिखेंगे तो रोग रूप अवस्था हे एसा भरोसा होगा। और एसा भरोसा होने पर रोग का इलाज बताने जाए पर उस इलाज का भी श्रध्धान होगा।
Thursday, December 11, 2008
Class notes
Date 12/10/08
अधिकार ३ :: ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयोपशम से होनेवाले दु:ख और उनसे निवृत्ति
Revision :
इस संसार मे नाना प्रकार के दु:ख है लेकीन जीव मे उत्पन्न हो रही इच्छा ही उन सभी दुखो का मुलकारण है। कर्मो की अपेक्षा देखे तो ज्ञानावरण दर्शनावरण के क्षयोपशम से अल्प ज्ञान प्रगट होता है जिसका स्वभाव एसा है जो मन और इन्द्रियों द्वारा प्रगट होता है। और मिथ्यादर्शन के उदय से इच्छा उत्पन्न होती है।
ज्ञान क स्वभाव जानने देखने का है इच्छा रुप नही है और इस ज्ञान मे इच्छा उत्पन्न कराकर दोष लगाने का काम मोह करता है जिससे जीव दुखी हो रहा है।
एसे दु:ख को दुर करने के लिये जीव नाना प्रकार के उपाय करता है।
· पदार्थ कैसे प्राप्त हो जाये उसके लिये प्रयत्न करता है।
· इन्द्रिय और विषयो को मिलाना चाहता है। eg: कुछ खाने कि इच्छा हो तो उसे बनाने के लिये साधन जुडाता है।
· इन्द्रियों द्वारा हि मुझे सुख कि प्राप्ति होगी एसा सोचकर इन्द्रियो को हष्ट पुष्ट रखने का प्रयास करता है, उनकी संभाल करता है।
· विषय कि प्रप्ति के लिये बाह्य कारण या संयोग मिलाने का प्रयास करता है।
· बाह्य नोकर्म का संयोग मिलाने मे दुखी होता है तथा आर्तध्यान मे ही रहता है।
आर्तध्यान का अर्थ है “ इष्ट का वियोग और अनिष्ट का संयोग ” जिससे दु:ख उत्पन्न होता है।
· इन्द्रियो के विषयो कि पुर्ति के लिये कोइ वस्तु या व्यक्ति उनसे संबंध कैसे अनुकुल बने रहे इसका प्रयत्न करता है।
· विषयो को अपने आधिन रखने कि कोशीश करता है।
· कोइ वस्तु कही छुट ना जाये प्रत्येक वस्तु को प्राप्त करने के लिए जल्दि जल्दि और एक साथ इच्छा कि पुर्ति करने कि कोशिश करता है।
Eg: रसना इन्द्रिय कि पुर्ति के लिये तरह तरह के पकवान बने हुए हो तो सब्कुच खा लु और जल्दि जल्दि खाता है ।
इन्द्रियो के विषयो मे बद्लाव जो होता है इससे सिद्ध होता है कि जीव को एक ज्ञेय मे संतुष्टि नही होती है।
Page no 48…….
यहा अब ये बताते है कि सुखी होने के जो उपाय जीव कर रहा है वे सब झुठे है::
· पदार्थ को पाने के लिए जो उपाय जीव कर रहा है उसके आधीन नही है क्योकी
o इन्द्रियो को बनाये रखना नाम कर्म के उदय पर निर्भर है।
o बाह्य संयोग मिलना वह साता असाता वेदनीय कर्म के उदय पर और लाभान्तराय,भोगन्तराय,विरन्तराय कर्मो के क्षयोपशम के आधिन है।
o एक इच्छा कि पुर्ती के लिए कई बाह्य कारण की जरुरत होती है जो अपने आधिन नही है।
· कर्मो का उदय काल आता है तभी उदय मे आते है अपनी इच्छा से उदय मे नही आते है।
· भोजन के द्वारा शरीर पुष्ट करके उससे सुख प्राप्त होगा एसा विचार करने से हमारा ज्ञान घटता है, हम जान तो बहुत सकते है लेकिन एसी बुद्धी से हम ज्ञान कम हि कर रहे है ।हमारा अमुल्य समय शरीर को पुष्ट करने मे ही चला जाये उससे पहले हमे हमारी संभाल कर लेना चाहिए।
· ज्ञान-दर्शन स्वयं मे निर्मल, विशुद्ध परिणाम होने और कषाय के घटने से हि उत्पन्न होता है।
· कषाय घटने से ज्ञान बढता है तभी विषय ग्रहण कि शक्ति बढ्ती है।
Eg: बालक की कषाय कम रहती है इसीलिए उसकी grasping power अच्छी होती है जैसे जैसे बडा होता है कषाय बढती जाती है और ज्ञान कम होता जाता है।
v विषयो का संयोग मिलाना , उन्हे शीघ्र शीघ्र ग्रहण करता है : जो संयोग इन्द्रियो के विषयो को मिलाने के लिए जीव करता है वे संयोग ज्यादा समय तक नही रहता बदलता रहता है, और कभी तो सभी संयोग मिलते भी नही है ।
Eg: खाने का आनंद तो ग्रास जब तक जबान पर है तब तक हि रहता है ।
v इन्द्रियो को प्रबल करने का उपाय उन्हे अपने आधिन रखने की बुद्धि : यह उपाय इसलिए झुठा है क्योकी इन्द्रियो को प्रबल करने विषय ग्रहण की शक्ति नही बढती वह शरीर के आधिन नही है। शरीर कि शक्ति बढने से विषय ग्रहण की शक्ति नही बढती है,वह तो ज्ञान –दर्शन बढाने से बढती है जो कर्मो के क्षयोपशम के आधिन है।
Eg: if 2 persons of whom one is illiterate but good by health and other is literate but weak by health are send to see some view then the illiterate person will not get wht is the view though he is good by health and that with other who is literate will get the thing and will enjoy it though he is weak by health. So it proves that it is not necessary that indriyaa should be well developed to fulfill one’s need. सोचने समझने की शक्ति के कारण (ज्ञानवरण-दर्शनावरण के क्षयोपशम से) एसा होता है ।
प्र. . लौकिक विषय और धर्मिक विषय दोनो same है क्या?
उत्तर : यहा ५ इन्द्रियो से ग्रहण किये जाते है उन विषयो कि बात है , जिनवाणी मे अशुभ विषयो कि ही बात होती है।
कषायादि घटने से कर्म का क्षयोपशम होनेपर ज्ञान दर्शन बढे तब विषय ग्रहण करने की शक्ति बढती है?
कषाय के द्वारा ज्ञान दर्शन कि शक्ति कम होती है ,इसलिए जब कषाय घटती है तब ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का क्षयोपशम होता है जिससे ज्ञान दर्शन की शक्ति बढती है तथा पदर्थो के भोग उपभोग की पुर्ति की शक्ति बढती है,विषय ग्रहण करने की शक्ति बढती है, और विर्यांतराय का भी क्षयोपशम होता है ।
इन्द्रियो को और विषयो को अपने आधिन करना : अगर मुझे कोइ आधिन नही रख सकता तो किसी और को मैं अपने आधिन कैसे रख सकता हुँ। वे वस्तु तो उनके स्वयं के आधिन है,कर्मोदय के आधिन है हमारे नहीं है।
अगर कोइ किसी के अधिन होता तो शरीर कि जो पर्याय उसे पसन्द हो उसी मे क्यों नही रहता क्यो बुढापा आता ,क्यो स्वस्थ नही रहता क्यों सुन्दर नही रहता। हमारे संयोग मे रहने वाले सचेतन अचेतन पदार्थो को जैसा चाहे वैसा परिणम क्यों नही करा सकता ।
कर्मो के अनुसार देखो तो नामकर्म के according ही शरीर मिलता है,साता-असाता वेदनीय कर्म के उदय से ही हमे सुख दु:ख मिलता है, आयुकर्म के क्षयोपशम होता है उतनी ही आयु होती है। इन बातो से ये सिद्ध होता है की हम किसी भी वस्तु को अपने आधिन नही रख सकते। सब अपने कर्मो के अनुसार ही स्वयं और किसी भी सचेतन-अचेतन पदार्थो का परिणमन होगा।
जो विष्यो की तृष्णा को बढाता है अज्ञान को बढाता है पाप रुप प्रवृत्ति कराता है एसा पुण्य किसी काम का नही है। जो पुण्य मोक्षमार्ग मे कार्यकारी है वही पुण्य काम का है। (आत्मानुशासन में श्लोक है ।)
एसे पुण्य वाले जीव को देखकर हमे करुणा बुद्धि रखना चाहिये ,कषाय भाव नही लाने चाहिए और अपनी स्थिती एसी ना हो इस बात पर ध्यान देना चहिये।
धर्म कि क्रिया को केवल क्रिया के लिए ही नही करना है अपने लक्ष को ध्यान मे रखकर क्रिया करनी चहिये।
In daily life whatever we do or enjoy is only the process of janana(जानना). In every condition my real role is only जानना और देखना किसी मे बदलाव करना नही है।
कर्ता बुद्धिको दुर करना है। जानने देखने का कार्य वही कार्य करने योग्य है अन्यथा कुछ नहीं।
Wednesday, December 10, 2008
कक्षा दिनांक ९ दिसबंर २००८ (पृष्ठ ४७)
ज्ञानावरण एवं दर्शनावरणके क्षयोपशमसे होनेवाला दु:ख एवं उससे निवॄति (Continued..)
१) जीव के इन्द्रीयों की जानने की शक्ती सीमित हैं, इसलिए उनसे उसकी ईच्छा पुरी नहीं होती है । इसलिए मोह के निमित्तसे इन्द्रियोंको अपने-अपने विषय ग्रहण करने की
निरतंर ईच्छा होती रहती है । उससे आकुलित होकर दु:खी हो रहा है ।
२) उस ईच्छा से ऎसा दु:खी हो रहा है कि किसी एक विषय के ग्रहण की ईच्छा पुर्ती के लिए अपने मरण को भी नहीं देखता है । जैसे :
- हाथी को हथिनी के सपर्श की
- मछली को कांटेमॆं लगे मांस की
- भंवरे को कमल के फ़ूल की सुगन्ध की
- पतंगे को दीपक वर्ण देखने की
- हिरण को संगीत सुनने की
ईच्छा ईतनी प्रबल होती है कि तत्काल मृत्यु हो तबभी उसको नहीं छोडना चाहता ।
३) ईन ईन्द्रियों की पीडा से पीडीत रुप सर्व जीव निर्विचार होकर जैसे कोइ जीव दु:खी होकर पर्वत से गिर पडे वैसे ही ईन्द्रियों से पीडीत जीव विषयों में झलांग लगाते हैं ।
४) सभी प्रकार के कष्ट सहकर धन कमाते हैं, विषयॊं की पुर्ति के लिए उसे भी खो देते हैं ।
५) नरकादिक के कारण जो हींसादिक कार्य हैं, वो भी करता है ।
६) ईन्द्रिओंकी पीडा सही नहीं जाती, इसलिए अन्य विचार कुछ आता नहीं ।
७) जैसे खाज रोग से पीडीत हुआ पुरुष आसक्त होकर खुजाता है, पीडा न हो तो किसलिए खुजाए; उसी प्रकार ईन्द्रियरोगसे पीडित हुए ईन्द्रादिक आसक्त होकर विषय सेवन
करते हैं ।
८) ज्ञानावरण एवं दर्शनावरणके क्षयोपशमसे हुआ इन्द्रिय जनित ज्ञान है, वह मिथ्यादर्शनादिक (दर्शनमोहयनीय) के निमीत्त से ईच्छा सहीत होकर दु:ख का कारण है ।
अब ईन दु:खों को दुर करने का ऊपाय यह जीव क्या करता है:
१) ईन्द्रियोंसे विषयॊंका ग्रहण होनेपर मेरी ईच्छा पुर्ण होगी ऎसा जानकर प्रथम तो नानाप्रकारके भोजनादिकोंसे इन्द्रियोंको प्रबल करता है और ऎसा ही जानता है कि इन्द्रियों
प्रबल रहने से मेरे विषय ग्रहणकी शक्ती विशेष होती है । उसके लिए अनेक बाह्य कारण चाहिए उनको भी ईकट्टा करता है ।
२) ईन्द्रियां हैं वे विषय सन्मुख होने पर उनको ग्रहण करती हैं, इसलिए अनेक बाह्य उपायों द्वारा विषयों का तथा इन्द्रियों का संयोग मिलाता है । नाना प्रकार के
वस्त्रादिकका, भोजनादिकका, पुष्पादिकका, मंदिर-आभूषणादिकका तथा गान-वस्त्रादिकका संयोग मिलानेके अर्थ बहुत ही खेद खिन्न होता है ।
Tuesday, December 9, 2008
date 12/08/08 ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयोपक्षम से होने वाल दु:ख और उससे निव्रत्ति continued page no: 47 first para
* सुख is not a function of getting things and desires fulfilled.. because , जो सामग्री मिली उससे जो इच्छाओं के कारण जो कषायें उत्पन्न हुई थीं, जो कषायवान हुआ था , उन कषायों के मन्द होने के कारण हमें सुखाभास प्रतीत होता है।
*इस तरह जब हमें समझ मे आ जायेगा कि इच्छाओं का मिटना वो सुखरुप अवस्था है, तो ऐसी अवस्था भगवान के , आचार्यों के नहीं पाई जाती है इसलिये वे सुखी है ।
* इस बात का जब हमें ज्ञान हो जायेगा तो हमें जो सच्चा सुख भगवान को प्राप्त है उसका स्वरुप समझ में आयेगा, उन्हें वह कैसे प्राप्त हुआ वह समझ में आ जायेगा ।
* सो हम जब जानेंगे कि इच्छाओं का उत्पन्न होना वह दुख का कारण है और जो हमें सुख लग रहा है वह उन इच्छाओं की पुर्ति से नहीं कषायों के मन्द होने, शमित होने के कारण लग रहा है ।
* जब हमें ये बात समझ में आ जयेगी तब जिससे हमें स्व और पर के संबंधता में निर्मलता आनी शुरु हो जायेगी।
* नि:केवलज्ञान - अपने ज्ञान स्वभाव का अनुभव नहीं है अर्थात इससे वस्तुओं, भोगों का जानना हुआ इसका अनुभवन नहीं है
* ये जो स्वाद का ज्ञान हुआ, वह भी पर द्रव्य का स्वाद नहीं है, वह तो ज्ञान का ही स्वरुप है, ये नहीं जानता है\
Explanation of: ज्ञेयमिश्रित ज्ञान के अनुभवन से विषयों की ही प्रधानता भासित होती है....
ज्ञेयमिश्रित ज्ञान:
*ज्ञेय से ज्ञान हो रहा है।
इससे बुराइ क्या है?-
*ज्ञेय पदार्थ जब तक अनुभव में नहीं आयेंगे, तब तक उस पदार्थ का ज्ञान नहीं होगा।
*ज्ञेय पदार्थ सामने आ भी जाये तो उस समय पर जो ज्ञान हो रहा है वह ज्ञेय से ज्ञान नहीं हो रहा है ।
*ज्ञेय पदार्थ ज्ञान को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं है, आत्मा स्वयं ज्ञान को उत्पन्न करने में समर्थ है, किन्तु हम ऐसा मानते है कि हमारा ज्ञान ज्ञेय के आधीन है, हमें ज्ञेय से ही जान रहे हैं । जैसे लड्डू से मुझे सुख मिल रहा है, किन्तु इनका निमित्त नैमित्तिक संबंध है।
*परन्तु वस्तुस्थिति में " ज्ञान ज्ञान से उत्पन्न होता है, ज्ञेय से नहीं"।अगर ज्ञेय से जाना जाता तो केवली भग्वान तो कैसे जानते? तो ज्ञान ज्ञान से ही उत्पन्न होता है अर्थात दर्पण की तरह ज्ञान की झलकन है, दर्पण में जो प्रतिबिम्ब दिखाइ दे रहा है वह स्वयं दर्पण का है, अर्थात दर्पण में ही उत्पन्न हुआ है। इसी प्रकार हमें जो पदार्थों का ज्ञान हो रहा है वह ज्ञान में उत्पन्न होता है, ज्ञान से ही उत्पन्न होता है ज्ञेय से नहीं। जैसे केवली भगवान का आत्मा स्वयं को जानता है और उसमें जो ज्ञेय झलकते है वैसा वैसा ज्ञेयाकार बनता है और वैसे ही सबको अर्थात स्व और पर को जानता है। ऐसा ही हमारा आत्मा है।
*किन्तु हमनें विषय को मुख्य किया ज्ञान को नहीं, तो ऐसा अनुभव होने से विषय की ही प्रधानता भासित होती है, जिससे उन विषयों के प्रति, उनकों भोगने कि इच्छायें उत्पन्न होती है, उसके लिये वह ज्ञेय के पीछे भागा जा रहा है जिससे जीव कषा्यवान होकर दुखी होता है।
*ऐसा हमें इसलिये लगता है क्योंकि हम समझते है कि हमें ज्ञेय से ज्ञान हुआ। ऐसा निमित्त नैमित्त्तिक संबंध है कि जब हम किसी पदार्थ को किसी ज्ञेय के निमित्त से जान रहे हो और उस समय ज्ञान का भी उसी रुप परिणमन हो जाये तो हमें ऐसा लगता है कि हमें ज्ञेय से ज्ञान हुआ।
अत: ज्ञेयमिश्रित ज्ञान के अनुभवन से वह दुखी हो रहा है, यह ज्ञेयमिश्रित ज्ञान की बुराई है ।
प्र. क्या हमें अभी सब ज्ञान( पदार्थ) झलक रहें है ?
उ. छ्द्मस्थ के सभी पदार्थ नहीं झलक रहे है, उसके एक समय पर एक एक पदार्थ ही जो focus में है वह ही झलक रहा है।
* जीव को मोह के कारण विषय ग्रहण की इच्छा पाइ जाती है, अज्ञान के कारण नहीं ।
प्र. ज्ञेय मिश्रित ज्ञान में क्या दोष है?
उ. ज्ञान को महत्ता नहीं दे पा रहे है, तो हम स्वयं को ही महत्ता नहीं दे पा रहे है, तो ये नहीं ध्यान दे पा रहे है मैं खुद आत्मा हुं और उसी से ज्ञान होता है ये नहीं जानते तो ज्ञेयों से ज्ञान होता ये जानकर बाह्य वस्तुओं के पीछे ही भागते रहते है।
page no. 47 2nd para..
* सो ये इच्छायें तो तीनों काल के सब विषयों को ग्रहण करने की पाई जाती है किन्तु सिर्फ वर्तमान में ५ इन्द्रिय विषय को जान सकता है इतनी ही शक्ति है, उसमें भी कुछ का भोग करे, उनमें से भी कुछ को याद रखे इसीलिये इच्छा कभी पूर्ण नहीं होती है तो एसी इच्छायें तो केवलज्ञान पूर्ण होने पर ही हो जहां पर संपूर्ण पदार्थों को एक साथ जानना हो । इस कारण ये ज्ञान के संबंध में जो बहुत सारी इच्छायें है वे पूर्ण नही हुइ नहीं, हो नहीं सकती इसलिये दुखी हुआ तो जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण है उसके कारण दुखी होता है।
सो विषयों के मिलने से, पंचेन्द्रिय भोगों के मिलने से सुखी नहीं हुआ, इच्छाओं के मिटने से, कषायों , रागादि के मिटने के कारण सुखी हुआ ।
*मेरा जानना या नहीं जानना वह दुख का कारण नहीं है जो ज्ञानावरण , दर्शनावरण है उसके कारण दुखी हो रहा है।
प्र. किन्तु हमें तो कुछ - कुछ इच्छायें पूरी होती भासित होती है?
उ. लेकिन फिर हमें तो कुछ कुछ इच्छाये पुरी होती भासित होती है, किन्तु जो इच्छाओं को पूरि करने पर वह इच्छा पुन: उत्पन्न होती भी दिखाइ देती है तो अभी तक इच्छाओं के लिये enough नहीं हुआ है, तो उन्हे पुर्ण करने के लिये हम निरंतर प्रयास करते है किन्तु वह पुरुषार्थ सम्यक नहीं है इसलिये वें अभी तक पूर्ण नहीं हुइ हैं।
जानने योग्य बातें :
प्र. क्या ज्ञान की उत्पत्ति पराधीन है?
उ. ज्ञान पराधीन हुआ तो सुख भी पराधीन हो जायेगा, जिससे सुख भी पराधीन हो जायेगा तो सुख कैसे उत्पन्न होगा, श्रद्धान को नहीं जान सकता, चरित्र को नहीं जान सकता। इसीलिये सुख और ज्ञान साथ साथ चलते हैं अत: ज्ञान पराधीन नहीं है स्वतंत्र है ।
*उपादान - जो स्वयं कार्यरुप परिणमित होवे
--त्रिकाली उपादान कारण : जिसमें कार्य रुप परिणमित होने कि शक्ति हमेशा पाई जाती है।
-- क्षणिक उपादान कारण : कार्य होने से पहले जो कारण चाहिये वे क्षणिक उपादान कारण है, जैसे मोक्ष के लिये व्यव्हार रत्नत्र्य तथा निश्चय रत्नत्रय क्षणिक उपादान कारण है। यह भी दो प्रकार का होता है : समर्थ और असमर्थ ।
इस प्रकार यहां मोह और ज्ञान को relate किया है और बताया है कि ये जो जीव कि जानने संबंधी इच्छाये है ये केवलज्ञान होने पर ही पूर्ण हो सकती है जिसमें तीनों लोक की त्रिकाल वस्तुओं को एक साथ जान लेता है, जिससे और कुछ जानना बाकी नहीं रह गया है तो और कुछ जानने की इच्छा भी नहीं रह गई है। सो हमें इच्छाओं के शमन के लिये सम्यक पुरुषार्थ करना चहिये।
Thursday, December 4, 2008
Que 1 : Agar indriyo ke dwara gyan hota hai to usme kyo ektva-mamatva na kare?
Ans 1 : Indriya sirf sadhan matra hai. usme ektva karne se sharir me ektva bhav aata hai to aatma aur sarir bhinn hai ye bhasit kabhi nahi hoga. Uske fal swarup jo gyan aatma ka swabhav hai uske upper dhyan na de kar sirf bahya vastu per dhyan de raha hai ya indriyo ki sambhal kar raha hai, ye sanskar aanadi se chal rahe hai. Jo gyanrup vastu hai vo meri hai per indriya hai vo meri nahi hai kyoki indriyo gyan ka karan hai per gyan nahi hai. Jo gyan hai vahi mera hai to jo meri vastu hai usiper ektva-mamatva kare.
Example : Ek mrutdeh ke pas bhi indriya hoti hai per use gyan nahi hota hai, kyoki uske aatma ne vah sharir ko chod diya hai to fir mrutdeh ko gyan ho ye sambhav nahi hai. Isliye, jiv gyan uski indriyo se nahi prapt kar raha hai per uske aatma ke gyan gun se use jan raha.
Aatma hai wah raja jaisa hai, ki agar raja ka pura sainya aur senapati mar jaye to raja hara juva nahi mana jata, per agar, raja ek mar jaye to bhale hi pura sainya-senapati zinda ho per wah hara huva mana jata hai.
Que 2: Jiv ko janma/maran ka bhay kaise dur ho sakega?
Ans 2: Sharir hai wah ek sadhanrup hi hai, to fir jo maran hoga wah mera nahi hoga kyoki me ek gyan swarup hu jo bhutkal-vartmankal-bhavishyakal me paya jata hai, kyoki gyan ka swabhav hai janne ka to iska kabhi nash nahi ho sakta, me aur sharir dono bhinn hai, sharir to shirf ek sanyog matra hai. Sharir aur aatma dono ka nature, characteristics, properties alag alag hai.
Que 3 : Jiv kab sukh ka aanubhav karta hai?
Ans 3 : Jab koi vastu ki iccha kare aur vah vashtu prapti hote hai tab jiv sukh ka anubhav karta hai, hakikat me sukh ka anubhav vastu ki prapti hone par nahi parantu iccha purna hone per hota hai. Usse viprit – iccha ke bager vastu mil jaye to usme sukh ka anubhav nahi hoga kyoki uski iccha nahi thi.
Example : Agar aisa kahai ki vastu ki prapti per sukh ki prapti hoti, to, agar kisi ko job mil jaye to fir use sukhi man sakte hai, parantu job milne ke bad uske sath jude huve baki ke sare dukh jaise manager ka tension, job per samay per pahuch ne ka tension, uske bad promotion ka tension, etc… vah sare job ke sukh ke samne zyada dukh rup hai, to fir wah sahi me sukhi nahi huva hai, to fir aisa man sakte hai ki sukh iccha purna hone per huva tha, na ki vastu ki prapti per.
Iske upper se yah kah sakte hai ki agar iccha hi na ho to hamesha sukh ka anubhav rahaiga, to fir sachae sukh ka anubhav jiv iccha ke mitne per kar sakta hai ya to iccha utppan hi na kare tab, parantu iccha utppan na ho ye sakya nahi hai, jiv ek sukh/iccha ki prapti hone per dusre sukh/iccha ki prapti ke liye jud jata hai, per kabhi sampurna sukh nahi pata.
Jitni intensity iccha ki hogi utni uske dukh ki bhi hogi, utni hi intensity uske purna hone per sukh ki hogi, per us kshanik sukh ko na dekh kar usse jude dukho per drashti karni zaruri hai. Iccha hi dukhrup hai per jiv aisa man raha hai ki iccha sukh ka karan hai, to fir jiv dukh ke karan ko hi sukh ka karan jan raha hai, yahi mithyatva hai.
Shree Kundkundacharyaji ke anusar iccha purti hone per jo sukh ki prapti hoti hai vah hakikat me sukh nahi hai per sukhabhas hai ya dukh ki matra me kami aana.
Example: Bahut der se daud rahai the aab chal rahai hai ye sukhabhas hai wah sukh nahi hai.
Sukhabhas ka viprit parinam hone par wah dukhrup lagega, aatmik sukh sacha sukh hai, jo kevli bhagwan ke paya jata hai, wahi saccha sukh hai jo kabhi aage ja kar dukhrup nahi hoga, aisa anubhav mithayatvi ko kabhi nahi paya jata.
Que 4 : Iccha utppan hone ka karan kya hai?
Ans 4: Iccha utppan hone ka karan jiv ke mohniy karma ke uday hai,
SukhàIcchaàMohaniya karma
Mohniya karma hi sacche dukh ka karan hai to fir usme se kaise bacha jaye ya vah utppan hi naho vahi saccha sukh hai. Jaisi aavashtha aarihanto ki hai, Siddho ki hai, munivaro ki hai, ki jiske pas koi sukh ke vishay nahi hone per bhi sabse sukhi hai, kyoki unke pas rag-dvesh ka aabhav hai, iccha ka aabhav hai, to fir sahaj hi sukhi hai.
Iccha charitra moh ke uday se hoti hai na ki man se, kyoki ekndriy jiv ko bhi iccha hoti hai. For example, chiti ko shakkar khane ki iccha. Iccha paryayrup(charitryarup ki paryay) hai, gunrup nahi hai kyoki wah nash bhi hoti hai, aagar gunrup hoti to uska nash nahi hoti.
Bahot si iccha dukhrup na lag kar sukhrup lagti hai. jaise nidd aana, brush karna, nahana,etc. par ye sari iccha sarir ko saaf karne ke liye hai, na ki aatma ko, kyoki aatma kabhi malin hi nahi hota. So sva-par bhed vigyan karna zaruri hai.
Que 5: Jiv ki drashti kaisi honi chahiye?
Ans 5: Mohniy karma ke uday se utppan honewale krodhadi bhav mere hai, kyoki mere se utppan ho rahai hai per wah mere gyan swarup aatma ke swabhavik bhav nahi hai, vaibhavik bhav hai, jo aatma ke lakshano se bhhinn lag rahai hai to mere nahi hai, me to sirf is bhav ko jan raha hu to me is bhav ka gyata-drashta hu, per aashtitva ki aapeksha se vah mere hai, kyoki aatma ki satta me pade huve hai.
Que 6 : Sharir aur aatma ek-dusre se bhinn kaise hai?
Ans 6: Sparsh, ras, gandh, varna ye sarir ke lakshan hai, jo aatma ke nahi hai to sarir aur aatma ek dusre se bhainn hai. Jaise, “muje krodh aaya” jo mohniy karma ke nimmit se uday me aata hai, jo udayrup aavastha khatma hone par krod chala jayega aur gyan swarup swabhav ka uday ho jayega. Lakshano ki aapeksha se kahai to gyan ko utppan hone ke liye nimmit ki zarurat nahi hai, krodh ko utppan hone ke liye nimmit ki zarurat hai, jo krodh utppan ho raha hai aatma sirf use jaan raha hai. waise hi gyan aur gyey (Janne layak) dono ko bhinn nahi jane, ya sharir aur atma ko bhinn nahi jane tab tak dono me ektvabhav rahaiga, aur dukh ka karan rahaiga. Wohi Gyey mishrit gyan hai.
Example, Muje bhukh lagi hai- bhukh ki iccha hui hai wah janna, matlab sarir me bhukhrup aavastha ka hona, aru ye bhukh muje nahi sarir ko lag rahi hai, aur sarir me ektva na kare, to khana khane se sukh aur nahi khane se dukh, dono ki utpatti nahi hogi.
Karma, kriya adhyatmikta se shastro me samjaya hai ki sarir aur aatma dono aalag aalag hai.
Que 7: Mithyatvi aur Samyakdrashti ki iccha me kya difference hai?
Ans 7 : Mithayatvi manta hai iccha sukh ka karan hai, aur samyakdrashti ki iccha hai vah subhrup iccha hai. Samyakdrashti manta hai ki iccha sukh ka karan nahi hai, iccha dukhrup hi hai, per jo subh iccha se nikalta hai wah saccha sukh hai. Samyakdrasti jiv ki aabhi ki state ki wajah se use iccha ka parinam ban rahai hai. Aisa bhi nahi hai ki samyakdrashti ki sari ichchaye subh rup hi hia. uske bhi ashubh ichcha payi ja sakati hai. parantu woh unhe bura hi janata hai.
ICCHA HI DUKH KA KARAN HAI YAH SHRADHAN HI MOKHA MARG PAR AAGE BADHNE ME MADADRUP HAI.
Que 8: What is aasha, trushna, and lobh? And, how are thaiy correlated?
Ans 8: Aasha - Jo padarth hai nahi use pane ki iccha karna wah aasha hai.
Trushna - Jo padarth hai use bhadhane ki iccha karna wah trushna hai.
Lobh – Jo padharth hai use sambhal ne ki iccha karna wah lobh hai.
Wednesday, December 3, 2008
Notes from class of December 2, 2008
Meaning of manglacharan and why we do manglacharan:
Jate mile samaj sub pave nij pat raj - guno ke samuday ki prapti ho aur uske karan khud ke pad (mauksha/mukti) ki prapti ho...
Q. Hum Mangalacharan kyu kare aur kaise bhaav hone chahiye?
- Antray naa aye
- Nastikta ka parihar ho
- Vighna bina samapti ho
- Punya ki prapti ho
- Shishtachar ka palan ho
.
Mangalacharan kaa arth samaj ne se jub hum kriya karte hey us samay uski upyogita malum ho aur uske swarup / guno ki taraf dhyan jaye. Chintan karana bahut avshyak he usse shradhhan me nirmalta aati hey. Jiske paas tatva gyan nahi hey wo padhe to usko gyan ho jaye, anadi ka agyan dur ho jaye and samayktav ki prapti ho.. aur jo samyaktvi hey uske shradhan me aur jyada dhradata hoti hey..
Page 46:
Vaidya kaun hey?
Sarvagya dev aur unki vaani aur vachno hi sahi me Vaidya hey. Uska swikar es liye nahi karana kyuki ke kisi vyakti ne kahi but ye jinvani ki baat hey es liye swikarya hey.... Kyu ki kal wo vyakti se hume rag/dvesh ho jaye to uski kahi baat me bhi shradhan nahi rahega.
2nd last paragraph:
Hamari ankhe kharab hone par hum chashma lagate hey. Hume ankho ke janese se jyada dukh hota hey yaa chashme ke jane par? ankho ke jane se jyada dukh hota hey compare to chashme ke. esa kyu? chashme to sirf sadhan hey.. In reality, hum ankho se dekhate hey... Same way, indriyo se gyan ki utpati nahi hoti. Gyan ka source indriya nahi hey way to sadhan bhut sharir ka ang hey.. Gyan to swa ka gun hey... Yadi esa hum mane to hume ankho ke nasht hone se dukh hona chahiye yaa swa ke gyan ke nasht hone se?
Lekin hum indriya ko hi sarvsva manate hey aur yahi hamari paradhinta bhi hey..
Moh ke uday hone par vishay grahan karne ki ichha hoti hey. Vishay ke grahan hone par ichha thode samay ke liye khatam ho jati hey aur hum sukh ka anubhav karte hey.But in reality, ichha ke khatam hone se jo nirakulta milati hey usse sukh milata hey nahi ke vishay ke milane se...Lekin, ichha rup parinam dukh dayak hey.. iccha nahi hona hi sahi me sukh hey...
Jaise agni par ghee dale to kya ho? pehle thode samay ke liye dabti hey aur badme bhabhak tee hey ese hi vishay ke milane se kuchh samay ke liye sukh ka abhas hota hey lekin bad me jwala ban kar aur ichha e hoti hey..trishna/lobh/ichha hona hi mul me dukh ka karan hey.. nirakulta hi sukh ka lakshan hey..
Jaise kutta haddi ki pichhe bhagata hey aur jab khata hey to uske muh se khun nikalaa hey and use lagata he ke haddi se khun nikalaa hey.. esa sun kar hume kutta kitan murkh lagata hey!!! usi tarah hum vishay ko sirf janate hey (bhogata nahi hey. gyan aur darshan hi bhogane layak hey.) aur esi se sukh nikal ke aata hey esa manate hey.. Lekin, vishay me to sukh nam ka gun nahi hey.. padarth me sukh naam ka gun nahi he to fir achetan padarth me se sukh kaise mile? Wo to aatma se milta hey...
Jo janane layak vastu e hey use gyey kahte hey. Hum aapne gyan se gyey ko janate hey aur gyey apne gyan me zalakata hey..But, hum gyey aur gyan ko alag nahi karte aur gyey se gyan ki utpati hoti hey esa manate hey aur gyan ko gyey ke adhin manate hey but in reality, gyey se gyan utpan hota hey nahi. gyey to sirf nimit rup hey.
-Harshil
Tuesday, December 2, 2008
Classnotes: 12/01/2008 Adhikar-3 Pages 45 and 46
First, we briefly revised the material discussed in the week of November 24, 2008. Next, we discussed the meaning of the manglacharan for the third aadhikar and we also discussed the introduction of third aadhikar, and lastly, we started discussion on sufferings (duukh) in the material world (sansar), and the fundamental reasons behind these sufferings.
Revision of the material discussed in the week of November 24, 2008
One’s kashay-bhav and not the external factors are the real reasons behind one’s happiness or unhappiness. For example, one likes cool breeze in hot weather. However, the same person will dislike it when he/she is sick.
Most of our efforts in our lives are directed towards sustaining our health and life. All of these efforts only increase distress (samklesh parinam). If one clearly understands and strongly believes that our aayu-karma sustains our life, then most of these distresses will go away. The reduction in the life-span (uudirna) mostly occurs due to these distresses.
In general, in second aadhikar, Pandit Ji showed that the fundamental reason behind all the sufferings is karmabandh. He used the analogy of a sick person and a doctor to illustrate the situation of the jiva in the material world. Firstly, the doctor diagnoses the disease, and narrates the conditions that can occur due to this disease. After the person understands and determines that he is suffering, only then that person will undergo the treatment suggested by the doctor.
Third Adhikar – Sufferings of the material world and description of the happiness in the moksh state
What makes one happy, or unhappy? Can body and/or other external pudgal particles result in happiness, or unhappiness? Why certain things make somebody happy at one time and unhappy some other time? What is the form of sufferings in the material world? Can one get rid of these sufferings forever? Will the sufferings go away forever by itself? What are the different ways of getting rid of these sufferings? Do all the Jivas irrespective of the indriya count suffer in similar ways? Do Gods (dev) suffer like tiryanch, manusha, and narki? Is there a clear distinction among the sufferings of all four of them? How and why does one derive pleasures from the material world? How long can these pleasures last? If the material world is full of sufferings, then where is the real happiness? How can one achieve this happiness? What is the form of real happiness? How long can it last? How can one qualify for the real happiness? Can one lose real happiness in due course of time? Does one achieve the real happiness in small installments, or is it like a lump sum payoff? Pandit Ji will answer these and many more questions in this Adhikar.
Meaning of the manglacharan stanza
Gyan, darshan, charitra (ratnatray) is the real eternal state of happiness. One should aim to attain this state. This fundamental state destroys all the sufferings from their roots.
Material world is full of sufferings. If it is otherwise, then there is no point in finding ways out of this material world like the tirthankaras and chakravartis did. The paramatmas fought all the way against their karmas to detach themselves from this material world. The happiness in this material world is short-lived. However, the siddh-parmatma has unending and infinite happiness.
A doctor diagnoses the disease and describes the conditions of this disease to convince the patient that he/she is suffering; and only then the doctor will try and motivate the patient to seek treatment. Similarly, Pandit Ji convinces the Jiva to seek the treatment, after diagnosing and describing the sufferings of this material world.
Pandit Ji draws analogy between a sick person and the condition of the Jiva in this material world:
a) That Jiva is still in this material world proves that the Jiva is still suffering.
b) Jiva/sick person doesn’t know the fundamental reasons behind the suffering.
c) Jiva/sick person doesn’t know how to get rid of these sufferings.
d) Jiva/sick person cannot stand these sufferings.
e) Jiva/sick person tries various ways out of these sufferings based on his/her wrong and incomplete knowledge. But these efforts don’t yield positive results because these efforts are not in the right direction. For example, Jiva thinks that I will be happy after I get a job, or after I get married, etc.
f) Thus, Jiva/sick person becomes dependent on others, and feels the sufferings.
Thus, after recognizing the real reason of the suffering, the form of the suffering, realizing that the efforts won’t yield any positive results, the Jiva/sick person will resort to the correct treatment. Karma is yet another reason of the suffering. When the Jiva feels great happiness in this material world, Pandit Ji describes the sufferings of tiryanch and narki to draw parallels between the sufferings of Jiva, and tiryanch and narki.
Jiva is suffering with respect to karmas, paryays (one through five indrya), and desires. Jiva can experience gyan with external factors such as indriya, maan, and other objects, but these things themselves are not gyan.
One should introspect about the efforts that one has carried out in this life from the external standpoint to become happy.
Sufferings in the material world and the fundamental reasons of these sufferings
Sufferings with respect to Karmas
The fundamental reasons behind the sufferings in material world are:
1) Mithyadarshan
2) Aagyan
3) Aasaayam
Following lines lists the roles played by darshanmoh, mithyadarshan, and charitramoh.
Darshanmoh: This leads one to the world of delusion, because it generates aatatvasradhan and mithyadarshan.
Mithyadarshan: This converts invaluable kshyopshamrup gyan into aagyan.
Charitramoh: Kashaybhav results due to charitramoh, and that is aasayam.
Thus, mithyadarshan is the fundamental reason for all the sufferings.
Sufferings due to the kshyopsham of gyanavaran and darshanavaran, and the ways to get rid of these sufferings
One would think that kshyopsham of gyanavaran and darshanavaran is better than their uday. But our situation is pitiful. This kshyopsham can be a cause of suffering.
The Jivas in this material world believes that it owns the body. Rather, he/she is the body. Jiva doesn’t know the difference between chetan-may aatma and the jad-pudgal particles. The real form of aatma is gyan and darshan. Jiva however believes that he/she is the body which has shape, taste, smell, and color. Jiva believes this because these things can be seen and felt. But Jiva doesn’t know the real self that doesn’t have any shape, taste, smell and color.
All our activities in the material world related to gyan and darshan is with five indriya and maan. Thus, the jiva believes that skin, tongue, nose, eyes, and ears are its own. Jiva likes these indriyas because he/she thinks that he/she sees and feels various things with their help.
Wednesday, November 26, 2008
Class notes from 11/26/08- Chp 2 pg 43
Today we continued the discussion of naam karma and several types of naam karma.
The types that were discussed today:
1) Sehanan- sharir ki rachna for e.g. vajra
2) Sthul- chhota, mota, sprashan gun ki paryay
All 20 parkrutis of sparshan exist at the same time. Similarly, all 5 types of Varna exist (uday hota hai) at the same time
3) Uchvas- is naam ke karma se hum shvaas lete hain
Shvasoshvas jivitavya ka karan hai. 10 pran hai usme se yeh ek hai. Jivitavya ke karnno mein se sabse balvan karan aayu karma hai.
4) Swar- swar karma ke uday se swar utpann hota hai.
Sharir pudgal hai isliye usme me sparsh, ras, gnadh aadi hai. Shabd bhi pudgal ke pind hai- aur shabd matlab bhasha vargana ki pudgal rup parinamiti.
Sakshar/ anakshar shabd ka difference: Sounds, rhythm, dhvani with no words is anakshar rup or swar rup. Akshar rup is with words and is found only in sangni panchendriya.
5) Gamanagaman: Jis karma se aakash dravya mein gaman aur aagaman rup pravrutti hoti hai. There are two types, shubh and ashubh. Just like 2 people if tied together, only the more powerful will get things done, similarly, sharir and aatma are tied together. There could be several options like sharir ki shakti ho ya na ho and aatma ki iccha ho ya na ho. Generally karya tab hi ho sakta hai jan sharir ki shakti ho aur aatma ki iccha ho (sharir ke iccha nahhi hoti). Lekin kabhi kuch bahya badhak karan bhi ho sakte hai jinki vajeh se karya sampann nahi hota. Sharir ki shakti hai, aatma ki iccha hai lekin baarish hai to baahar nahi ja sakte. Anek dusre badhak karan hai. We need to keep in mind that jahan ek karya banta hai, vaha bahut saare karan milte hai tab jake karya hota hai.
Ab aise types ka discussion jo MMP mein describe nahi kiye gaye:
6) Anupurvi- Vigrah gati mein aatma ka shape jisse banta hai. Purane sharir ka shape retain hota hai. Yadi manushya chhod ke dev mein jaaye to vo devgatyanupurvi karma kehlata hai.
7) Upghat- apna sharir apna hi ghaat kare
8) Parghat- Apne sharir ke ang aise jo dusre jeev ka ghat kare
9) Aatap- jiske nimit se bahya mein sharir se prakash utpann hota hai aur sharir garma rehta hain- eg surya- found in tiryanch only
10) Udyot- jiske nimit se bahya mein sharir se prakash utpann hota hai aur sharir sheetal rehta hain. eg- chandrama—found only in tiryanch
11) Agurulaghu—jisse sharir bahut bhaari ya halkaa nahi hota
12) Badar- kisi se ruk jaata hai ya kisi ko rok sakta hai Kuch aise bhi hai jo dikhte nahi, par fir bhai badar hai
13) Sukshma- na kisi se rukte hai, na rok sakte hai—ekendriya ke hi payi jati hai isliye paap prakruti hai. Tras jeev sirf badar hote hai
14) Aparyapt- aparyapt hai to antarmuhurt mein mrutyu nischit hai- otherwise paryapth ho jata hai
15) Subhag- anya jeev ko priti hoti hai dekhne se aise ang/sharir
16) Durbhag- anya jeev ko priti nahi dvesh ho dekhne se aise ang/sharir
17) Aadey- sharir mein kanti hoti hai
18) Anadey-sharir mein kanti nahi hoti
19) Shubh- sharir ke avyay sundar hote hai. This is different from Subhag since isme priti ka bhaav nahi hota
20) Ashubh- avyay sundar nahi hote. Similarly different than Durbhag since isme dvesh/apriti ka bhaav nahi hota.
21) Suswar- accha swar hona
22) Duswar- accha swar nahi hona
23) Pratyek- jis sharir ka ek hi swami. Pratyek mein two types- jinke ashray se nigodhia jeev rehte hai- eg kela, kakdi, bhindi. Other type is jisme nigodh jeev rehte hai lekin fir continuously utpann nahi hote
24) Sadharan- Ek sharir ke anek swami- found in nigodh jeev of vansapatis like kandmul
25) Sthir Asthir- Sharir mein cough, pitt etc.agar asthir ho to rogadik ki utpatti hoti hai. If sthir ho to sharir rograhit rehta hai.
26) Tirthankar- moksh marg mein uski sthiti nahi hai
Other notes:
1) Sharir ke jaise bhi hone mein naam karma ka uday samarth karan hai- baaki bahya karan like exercise etc asamarth hai.
2) Naam karma ke asankhya bhed hai leking kkeval gyani utna hi batate hai jitna chadmasta ke gyan gamya hai aur prayojanbhut hai.
3) Purusharth to karna chahiye lekin jo ekant manyata hai ki maine yeh kiya, vo change karna hai kyonki hamare chahne se ya purusharth karne se vastu ho hi jaaye aisa nahi.
4) Sansar avastha mein tirthankar aur aaharak sharir yeh naam karma nahi hai
5) Manushya mein vaikriya sharir aur tiryanch prakrutiya nahi
Gotra Karma
1) Jis kul mein acche sansakr aur diksha lene yogya kul hai vo ucch kul kehlate hai. Jinme maas bhakshan aur madya pan ho vaise kul nich kehlate hai.
2) Gotra karm change nahi hota- it remains what u have at the time of birth.
Kul ucha hai ke nicha vo kevli gamya hai- gotra karma kaafi sukshma hai
3) Kshudra, tiryanch aur narki nich gotra mane gaye hai. Manushay mein ucha nich dono hai aur dev ko uch gotra hi hai.
Jo bhi kaha hai uspar vichar kare to hamari avastha se match hota hai aisi pratiti hame hogi. Aisi pratiti hone par granthadi mein shraddhan badhta hai. Isliye vichar, chintan karna aavashyak hai.
-Shweta
25/11/2008, Tuesday, page 41,42,43
प्र० वीर्यान्तराय कर्म का कार्य क्या है?
उ० कुछ पुरुषार्थ करना चाहे तो नहीं कर सकता, उत्साहवान होना चाहे तो नहीं हो सकता, वस्तु की प्राप्ति में बाधा उपस्थित करता है।
प्र० वेदनीय कर्म क्या है?
उ० जो वेदन कराता है, अनुभव कराता है।
प्र० वेदनीय कर्म की ३ अवस्था?
उ० १) शरीर की स्वयं की अवस्था:: रोगी, कृश, बुढापा आदि।
२) बाह्य कारणों से शरीर की अवस्था:: सर्दी, गर्मी लगना आदि।
३) और भी बाह्य सुख दुख के कारण:: धन, कुटुम्ब आदि।
प्र० वेदनीय कर्म के प्रकार?
उ० २ प्रकार:- १) साता वेदनीय = अच्छे कारणों का संयोग २) असाता वेदनीय = बुरे कारणों का संयोग
प्र० सुख दुख का कारण क्या है??
उ० बाह्य वस्तुएं सुख दुख की कारण नहीं हैं। अंतरंग कषाय के कारण सुख दुख होता है। सुख दुख में मोहनीय कर्म निमित्त है।
-> सुख दुख उत्पन्न होने में मोहनीय कर्म ही समर्थ कारण है।
-> हमने बाह्य पदार्थों को सुख दुख का मूल कारण माना हुआ है, बाह्य वस्तुऎं सुख दुख उत्पन्न करने में निमित्त कारण है, असमर्थ कारण है।
-> ऎसा विचार करके बाह्य पदार्थों को मिटाने का नहीं अपने मोह को मिटाने का प्रयत्न करना चाहिये।
-> कर्म भी बुरे नहिं हैं, जिन परिणामों की वजह से वो कर्म आये वो परिणाम बुरे हैं, इसलिये परिणामों की संभाल जरूरी है।
निमित्त= बाह्य वस्तुएं
नैमित्तिक= मोहनीय कर्म के कारण उत्पन्न सुख दुख
प्र० कर्म किसे कहते हैं?
उ० जीव के परिणामों के निमित्त से स्वयं परिणमित कार्माणवर्गणारूप (कर्म रूप परिणमित होने योग्य वर्गणाऎं) पुद्गल की विशिष्ट अवस्था को कर्म कहते हैं।
निमित्त= जीव के परिणाम
नैमेत्तिक= कर्म का बंधना
आयु कर्मोदयजन्य अवस्था
प्र० आयु कर्म का कार्य?
उ० प्राप्त पर्याय में जीव को रोके रखता है।
-> जब तक आयु का उदय रहता है तब तक अनेक रोगादि कारण मिलने पर भी शरीर से सम्बन्ध नहीं छूटता== तीव्र अनुभाग होने पर
-> बाह्य कारण मिलने पर आयु कर्म की उदीरणा भी हो जाती है= कम अनुभाग होने पर
-> आयु कर्म के कारण ही जन्म(नवीन आयु), जीवन(आयु उदय), मरण(आयु क्षय) होता है, इससे ब्रह्मा, विष्णु, महेश के अस्तित्व का निषेध होता है।
-> पुत्र का जन्म मरण पालन भी उसके आयु कर्म के कारण ही है, इससे मैने पुत्र को पैदा किया, पालन किया, बडा किया आदि कर्तत्वपने का निषेध होता है।
-> आत्मा की अपेक्षा जन्मादि नहीं हैं क्योंकि आत्मा अनादिनिधन है, वो शरीर अपेक्षा है।
नाम कर्मोदयजन्य अवस्था
प्र० नाम कर्म का कार्य?
उ० शरीर की रचना करता है। शरीर की रचना करता है उससे सम्बन्धित अवस्था होती है।
नाम कर्म की 93 प्रकृतियां:--
गति= १.नरक, २. मनुष्य, ३.तिर्यंच, ४. देव
गति नाम कर्म से उस गति मे गमन होता है और उस गति के योग्य परिणाम होते है
जाति= १.एकिंद्रिय, २.दोइंद्रिय, ३.तीन इंद्रिय, ४.चार इंद्रिय, ५. पंचैन्द्रिय
शरीर= १.औदारिक, २.वैक्रियिक, ३.तेजस, ४.कार्माण, ५.आहारक
शरीर की रचना होती है।
अंगोपांग= १.औदारिक, २.वैक्रियिक, ३.आहारक
शरीर के अंग उपांग आदि बनते हैं। अंग (२हाथ, २पैर, मस्तक, हृदय, पीठ, नितम्ब), उपांग (उंगली, नाक आंख आदि)
निर्माण= अंगोपांग की ठीक ठीक रचना होना। इसके २ भेद हैं- स्थान: अंगोपांग जहां बनने चाहिए वहीं बने, प्रमाण: उसी आकार के बनें
बंधन= १.औदारिक, २.वैक्रियिक, ३.तेजस, ४.कार्माण, ५.आहारक
शरीर के परमाणु बंधन को प्राप्त हों।
संघात= १.औदारिक, २.वैक्रियिक, ३.तेजस, ४.कार्माण, ५.आहारक
शरीर के परमाणु छिद्र रहित एकता को प्राप्त हों
संस्थान= ६ जिससे शरीर को आकार प्राप्त हो
संहनन= ६ जिससे हड्डियों व नाडियों का बंधन हो
अनुपूर्व्य= १.नरक, २. मनुष्य, ३.तिर्यंच, ४. देव
विग्रह गति में आत्मा-प्रदेशो का आकार पहले वाली गति जैसा होगा.
स्पर्श= ८ हल्का- भारी, ठंडा- गरम, रुखा- चिकना, कड़ा- नरम
रस= ५ खट्टा, मीठा, कड़वा, कषायला, चरपरा
गंध= २ सुगंध, दुर्गंध
वर्ण= ५ सफेद, काला,हरा, पीला, लाल
विहायोगति= १.प्रशस्त, २. अप्रशस्त
जिसके उदय से गमन होता है।
उपघात= शरीर ऐसा हो कि स्वयं का ही घात हो जाये।
परघात= शरीर के अंगों से दूसरे जीव का घात हो जाये।
आतप= शरीर और उससे निकलने वाली किरणे गर्म होगी (सूर्य)
उद्योत= शरीर और उससे निकलने वाली किरणें शीतल होंगीं (चन्द्रमा)
उच्छवास= श्वासोच्छवास होता है
अगुरुलघु= जिसके उदय से शरीर बहुत हल्का व भारी नहीं होता है
तीर्थंकर = जिस कर्म के उदय से तीर्थंकर पद प्राप्त होता है
प्रत्येक= १ जीव का एक ही स्वामी
साधारण= १ शरीर के अनेक स्वामी
त्रस = २,३,४,५ इंद्रियों में जन्म
स्थावर= १ इंद्रिय में जन्म
बादर= जो स्वयं अन्य स्थूल पदार्थों से रुकता है और अन्य स्थूल पदार्थों को रोकता है
सूक्ष्म= जो स्वयं अन्य पदार्थों से नहीं रुकता है और अन्य पदार्थों को नहीं रोकता है
पर्याप्त= जीव पर्याप्त होता है
अपर्याप्त= जीव अपर्याप्त होता है
स्थिर= शरीर के धातु उपधातु अपनी जगह स्थिर रहते हैं
अस्थिर= शरीर के धातु उपधातु अपनी जगह स्थिर नहीं रहते हैं
शुभ= शरीर के अवयव सुन्दर होते हैं
अशुभ= शरीर के अवयव सुन्दर नहीं होते हैं
सुभग= शरीर के अवयव प्रीति को प्राप्त करते हैं
दुर्भग= शरीर के अवयव प्रीति को प्राप्त नहीं करते हैं
सुस्वर= स्वर अच्छा हो
दुःस्वर= स्वर बुरा हो
आदेय= शरीर में कांति होती है
अनादेय= कांतिरहित शरीर
यशःकीर्ति= जिससे संसार में प्रशंसा होती है
अयशःकीर्ति= संसार में प्रशंसा नहीं होती
Tuesday, November 25, 2008
classnotes from 11/24/08, page 41-42, vedniya karma ka uday
प्रश्न: अघाती कर्म मे क्षायिक, उपशामिक, क्षयोपशामिक और उदय रूप चार अवश्थाओ मे से कोन सी अवस्था पाई जायेगी?
-> सर्वघाती और देशघाती तो घटी कर्म की प्रकृतिया हे , अघाती कर्म मे एसा भेद न होने से क्षयोपषम और उपशम नही होगा। अघाती कर्म पर द्रव्य का संयोग करते हे इस लिए उस मे क्षायिक भाव भी नही होंगे। सिर्फ़ उदय रूप अवस्था पाई जायेगी।
प्रश्न: वेदनीय कर्म किसी कहेंगे?
-> जो इन्द्रिय सुख/दुःख रूप वेदन/अनुभव करवाता हे वोह हे वेदनीय कर्म।
प्रश्न: वेदनीय कर्म के उदय से क्या होगा?
-> वेदनीय कर्म का उदय शरीर मे बाह्य सुख-दुःख के कारन को उत्पन्न करता हे।
-> इन बाह्य कारन के तीन भेद हे :
१> एक वोह जिन के निमित्त से शरीर की ही सुख-दुःख रूप अवस्था होती हे।
२> दुसरे शरीर की सुख-दुःख रूप अवस्था मे निमित्तभुत बाह्य कारन होते हे ।
३> तीसरे बाह्य वस्तुओ के ही कारन होते हे ।
प्रश्न: वेदनीय कर्म के भेद कोन से हे?
-> शाता वेदनीय और अशाता वेदनीय कर्म ये दो भेद हे वेदनीय कर्म के।
-> यहाँ विशेष ये जानो की रति और अरति कषाय के निमित्त से एक ही पदार्थ का संयोग कभी शाता वेदनीय या कभी अशाता वेदनीय कर्म के रूप मे होगा।
प्रश्न: हमें सुख-दुःख केसे होता हे? वेदनीय कर्म की उसमे क्या भूमिका हे?
-> वेदनीय कर्म तो सिर्फ़ बाह्य निमित्त का संयोग करवाता हे। कारणों का मिलना वेदनीय के उदय से होने पर भी उसमे सुख-दुःख मानना मोह के उदय से होता हे।
-> कारन स्वयं सुख-दुःख उत्पन्न नही करता, वोह तो निमित्त मात्र हे, इस लिए उसे तो असमर्थ कारन ही कहेंगे।
-> मोह के उदय से जिव को बाह्य संयोग मिले या कभी न मिले तो उन बाह्य संयोगो का विचारो मे मन से आश्रय लेकर संकल्प करता रहता हे। इसी संकल्प से मोहि जिव को सुख-दुःख होता हे।
-> इस लिए मोह सुख-दुःख का मूल बलवान समर्थ कारन हे।
* few points that we came across during the class and on which we should think over when we get time:
-> क्या हम मानते हे की सुख-दुःख बाह्य सयोग से नही लेकिन अपने मोह के कारण हे।
-> क्या हम समजते हे की सुख पाना और दुःख हटाना ये तो व्यर्थ की बात हे। हमें तो मोह से युक्त संकल्प को हटाने का पुरुषार्थ करना हे।
-> क्या हमें इन लक्षणों के जानने के बाद संसार बुरा / रोग रूप लग रहा हे ?
-> हमें धार्मिक क्षेत्र मे सम्यक्त्व चाहिए तो क्या हम सम्यक्त्वी जीवो के प्रति, सम्यक्त्व के साधनों के प्रति सही भाव रखते हे? क्या हम उनकी अनुमोदन करते हे? या उसमे विघ्न रूप परिणाम रखते हे?
-> क्या हम स्वीकार करते हे की हमें अनादी संसार का रोग हे? और रोग मुक्त अवस्था हे की जो हम प्राप्त कर सकते हे।
Monday, November 17, 2008
Notes for 11/17/08
Anantanubandi, pratyakhayan, Apratyakhayn, sanjwlan
9 no kashay – "kinchet"(minor) indirect effect on the soul. Krodh kayay do the major cause but no-kahay is minor. No-kasha is not so stronge and also called Akahay. No-kasha needs help from the 4 major kashay(Krodh, Maan ,Maya, Lobh) to come out. EX- Like if you have maya or maan(kashay) them hasya kashay can come. It's depended in the 4 major kahay.
9 types of no-kashay:
Hasya , rati, artai, shook, Bhay, Jugupsa, 3 Ved
1-हास्य- To laugh/amusement on the funny stuff, worldly funny. Like the gods statue should not be laughing pose but it should be peaceful and veethraag pose. All kashay will damage the true nature of the soul. Hence the hasya kahsy also does the same thing.
2-रति- is to like somebody or something - is also the minor version is "RAAG". It can give you feeling to get more and forever. Like cat's love for milk or mouse
3-अरति – Is to not like anything or anybody
4-शोक- shook kashay is the gloominess/melancholy state after to loosing something or somebody, nice things in past, good friends, family.
4.1- Arth dhaya- Think about the old memories (good or bad) Arth dhyan can be for future/present like ‘vedana’.
4.2-रोद्र ध्यान - Raudra dhyan is to have fun in sinful activities like in hunting, eating meat, gambling etc.
4.3-धर्म ध्यान - To think about the religious things and dharm related
4.4-शुक्ल धयान- Is the kind of dhayn only attain by siddhya or trthanker bhagwaan.
5-भय- Bhay is the feeling to lose something and somebody (good and bad )
6-जुगुप्सा- The feeling of not likes something and somebody (hate is the intense form of Jugupsa). Do not want to keep close to him.
7-स्त्रीवेद – स्त्री को पुरूष के साथ रमन की इच्छा
8-पुरूष वेद मैं – पुरूष को स्त्री के साथ रमन की इच्छा
9-नपुंसक वेद - "यूग्पद" स्त्री और पुरूष के साथ रमन की इच्छा
कर्म भूमि और त्रियंच ke जीव के द्रव्य(body) or भाव वेद एक नही होती है Rule is that there may be cases in karm bhumi manushya and tiryanch where dravya and bhav ved are not same. But for every jeev it is not applied, only in some cases.
Thursday, November 13, 2008
Notes for Nov 12th, Page 39-40
Date: November 12th
Chapter 2.
Page: 39-40
On Nov 12, initially we did revision of 4 कषाय and talked about its 4 प्रकार.
4.कषाय are - Krodh, Man, Maya, Lobh.
4. प्रकार are Anantanubandhi, Apratakhanavarni, Pratakhanavarni and Sanjulan.
Because of Anantanubandhi कषाय, Jive cannot be Samayak. Because of Sanjulan. कषाय Jive cannot express his YathaKhyatCharita, but it does allow expressing SakalCharita.
There is not time till now that any Sansari jive did not do मिथ्यात्व and because of that कषाय. Hence Jive does not believe that कषाय is bad and never tried to give up कषाय. We tried to reduce कषाय, but never tried to remove मिथ्यात्व from root, which is right thing to do. मिथ्यात्व is root for कषाय. We also talked that because of our previous Punya, we are able to get this Vitrag Wani.
We also discussed how these कषाय cause pain and people’s behavior under influence of these कषाय. We also talked about 6 Lesya. From Krishna Lesya which is too strong and Sukla which is too mild. We also talked all Sansari binds all 4 कषाय all the time.
There are 4 types of stage when Jive is मिथ्यात्व from strong to mild are base on Anubhag
· Sella,
· Asthi,
· Daru,
· Latha.
So order mentioned like To break Sella, it takes so much efforts, similarly Sella type of Mithyatva, takes so much efforts to break. But for Lakdi takes so less efforts to break it. So understand that within Mithyatva, some Mithyatva takes long time to remove, and other type’s takes less time.
Then we discussed, there are 4 types of Anger –
· Shilla(Big Stone),
· Pathavi ki Rehka,
· Dhuli ki Rehkha,
· Jal ki Rehkha.
One कषाय can be in Uday for minimum 1 Samay and maximum 1 Antarmurt.
Anantanubandhi is worst कषाय because that one Samayak ka Ghat karti hai. The second worst is Sanjulan कषाय because that one YathaKhyatCharita ka Ghat karti and then comes pratyakhyan, apratyakhyan.
Then we discussed about which order for 4 कषाय in terms of Anubhag - Lobh, Maya, Krodh, Man. Here order for worseness of कषाय is in decreasing order. For example anantanubandhi Lobh is worse than anantanubandhi Maya, in that order. The same rules apply in similar order for pratyakhyan, apratyakhyan and Sanjulan.
In Human – Lobh, Maya, Krodh and Man is for more duration.
Intensity wise – Human has highest Man, Animal has highest Maya, Dev has highest Lodh and Naraki has highest Krodh.
When Jiv enters in to Moksh Marg, either 3, 2 or 1 प्रकारकि कषाय Uday hota hai. But definitely Anantanubandhi कषाय Chali jati hai.
At any time only 1 कषाय ka Uday Hota hotai. Besides one कषाय convert into another कषाय.