Tuesday December 16th, 2008 - Revision from page 47 and 48:
*** इस क्लास मे हम ने रिविज़न किया इन पॉइंट्स पर:
* ज्ञान का स्वव्हाव केसा हे?
-जीव मे एक भी इच्छा बाकि होगी तो उसे क्षयोपशामिक ज्ञान ही होगा। इच्छा न रहने पर जीव को केवल ज्ञान की प्राप्ति होगी ।
-ज्ञान बढ़ने रूप कार्य मे कषायो का निर्मल होना कारन हे।
- विषय ग्रहण की शक्ति बढ़ने से पंडित जी आत्मा के ज्ञान - दर्शन गुणों की जानने और देखने रूप शक्ति का निर्देश कर रहे हे।
* विषय ग्रहण से इच्छा क्या संपूर्ण तरह पुरी होती हे ?
- अगर एसा होता तो उसी विचय के ग्रहण की इच्छा फ़िर से थोड़े समय पश्चात् क्यो उत्पन होती?
- फ़िर से उसी विषय को ग्रहण करना सूचित करता हे की संतोष नही हे, तृप्ति नही हे, यानी की इच्छा अभी बाकी हे।
* क्या हम बाह्य द्रव्य का पुनः संयोग हो एसा चाहते हे?
- अगर नही चाहते तो इतने डिजीटल फोटो क्यो स्टोर करते हे?
- अगर नही चाहते तो एक ही मूवी फ़िर से क्यो दीखते हे ?
- या फ़िर ब्लॉग क्यो लिखते हे?
* क्या हमें ज्ञान की पराधीनता भासित होती हे?
- इतने बाह्य द्रव्यों का पुनः संयोग किया लेकिन कितने याद हे?
- इतने मूवी देखे लेकिन कितने याद हे?
- इतना स्वादिष्ट खाना खाया लेकिन कितना स्वाद याद हे?
- कोई उस स्वाद को या मूवी की स्टोरी फ़िर से पूछे या तो कल एक घंटे स्वाध्याय मे क्या किया वोह पूछे तो हम क्या संपूर्ण विस्तार से स्पष्ट तरह व्यक्त कर सकते हे?
- सिर्फ़ मन मे स्मरण मात्र रूप अस्पष्ट स्मृति होती हे।
- इस से हमें क्या अपने ज्ञान का कश्योपषम मर्यादित हे एसा और ज्ञान की पराधीनता भासित नही होती?
* संयोग बनाये रखना क्या हमारे हाथ मे हे?
- बाह्य द्रव्य के संयोग बनाये रखना हमारे हाथ मे होता तो सब बाह्य द्रव्य हमेशा के लिए हमारे साथ बने रहते?
- कई हमारा थोड़ा पुरुषार्थ कोई बाह्य द्रव्य मिला देता हे? और कई बार कितना भी पुरुषार्थ करे, बाह्य द्रव्य नही मिलता हे।
- हर द्रव्य का परिणमन खुउस द्रव्य के आधीन हे और करमा के आधीन हे ।
- एक द्रव्य दुसरे द्रव्य के आधीन होकर परिणामित नही होता हे।
- जिस तरह बाह्य द्रव्य का संयोग हमारे आधीन नही उसी तरह संयोग छूटना भी हमारे हाथ मे नही हे। बुरी वास्तु का संयोग भी कर्म के आधीन होकर समय पर ही छुटेगा।
- इस तरह "संयोग बनाये रखने से इचछा पुरी हो जायेगी" एसा सोचना भी ग़लत हे।
* संयोग क्या मांगे जाने से मिलते हे?
- जो भी संयोग हमें मिलते हे वोह हमारे संक्लेषित भाव से नही लेकिन शुबहा या सुध्धा भाव से मिलते हे।
- ध्यान मे रखने जेसी बात यह हे की अगर मागने से कुछ मिलता हे यानि निदान से कुछ मिलता हे तो वोह जोह भी मिलना था उस से कही कम मिला हे।
-यानी की पुण्य तो इतना था की १०० गुना ज्यादा मिल शकता था लेकिन अब सिर्फ़ २ गुना ही मिला, क्यों की मांग कर अच्छे पुण्य को खत्म कर दिया।
* कब कर्म समर्थ कारन और कब पुरुषार्थ समर्थ कारन?
- शरीर की अवस्था और अन्य अगहनी कर्म के उदय मे कर्म समर्थ कारन हे। जब की आत्मा की और आत्मा के अन्तरंग भावः की बात आए तब जीव का पुरुषार्थ समर्थ कारन जानना।
- बाह्य पदार्थो मे कर्म की प्रधानता होगी। आत्मा के अन्तरंग भावः के परिणमन मे पुरुषार्थ की प्रधानता होगी।
* क्या इच्छा की तृष्णा रूप रोग मुझे हे?
- क्या मुझ मे एक ही विषय को फ़िर से ग्रहण करने की इच्छा दिखायी देती हे? अगर दिखायी देत हो तो उस विषय की तृप्ति नही हे।
- क्या मुझ मे एक विषय के बाद दुसरे विषय के ग्रहण की इच्छा देखने को मिलती हे? अगर मे ऐसे ज़पते मार रहा हु तो सारे / सब विषय मुझे मिल जाए उस रूप तृष्णा मुझ मे अभी बाकी हे।
- अगर हमें इन रोग के लक्षण खुद मे दिखेंगे तो रोग रूप अवस्था हे एसा भरोसा होगा। और एसा भरोसा होने पर रोग का इलाज बताने जाए पर उस इलाज का भी श्रध्धान होगा।
Wednesday, December 17, 2008
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1 comment:
एक बार फिर से काफ़ी अच्छे points विचार के रखे है. Very nice.
ये भी काफी अच्छा है: "अगर मागने से कुछ मिलता हे यानि निदान से कुछ मिलता हे तो वोह जोह भी मिलना था उस से कही कम मिला हे।"
ऐसा जानकर निदान नही करेंगे, ऐसे भाव सहज ही आना चाहिए.
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