Thursday, December 11, 2008

Class notes
Date 12/10/08
अधिकार ३ :: ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयोपशम से होनेवाले दु:ख और उनसे निवृत्ति
Revision :
इस संसार मे नाना प्रकार के दु:ख है लेकीन जीव मे उत्पन्न हो रही इच्छा ही उन सभी दुखो का मुलकारण है। कर्मो की अपेक्षा देखे तो ज्ञानावरण दर्शनावरण के क्षयोपशम से अल्प ज्ञान प्रगट होता है जिसका स्वभाव एसा है जो मन और इन्द्रियों द्वारा प्रगट होता है। और मिथ्यादर्शन के उदय से इच्छा उत्पन्न होती है।
ज्ञान क स्वभाव जानने देखने का है इच्छा रुप नही है और इस ज्ञान मे इच्छा उत्पन्न कराकर दोष लगाने का काम मोह करता है जिससे जीव दुखी हो रहा है।
एसे दु:ख को दुर करने के लिये जीव नाना प्रकार के उपाय करता है।
· पदार्थ कैसे प्राप्त हो जाये उसके लिये प्रयत्न करता है।
· इन्द्रिय और विषयो को मिलाना चाहता है। eg: कुछ खाने कि इच्छा हो तो उसे बनाने के लिये साधन जुडाता है।
· इन्द्रियों द्वारा हि मुझे सुख कि प्राप्ति होगी एसा सोचकर इन्द्रियो को हष्ट पुष्ट रखने का प्रयास करता है, उनकी संभाल करता है।
· विषय कि प्रप्ति के लिये बाह्य कारण या संयोग मिलाने का प्रयास करता है।
· बाह्य नोकर्म का संयोग मिलाने मे दुखी होता है तथा आर्तध्यान मे ही रहता है।
आर्तध्यान का अर्थ है “ इष्ट का वियोग और अनिष्ट का संयोग ” जिससे दु:ख उत्पन्न होता है।
· इन्द्रियो के विषयो कि पुर्ति के लिये कोइ वस्तु या व्यक्ति उनसे संबंध कैसे अनुकुल बने रहे इसका प्रयत्न करता है।
· विषयो को अपने आधिन रखने कि कोशीश करता है।
· कोइ वस्तु कही छुट ना जाये प्रत्येक वस्तु को प्राप्त करने के लिए जल्दि जल्दि और एक साथ इच्छा कि पुर्ति करने कि कोशिश करता है।
Eg: रसना इन्द्रिय कि पुर्ति के लिये तरह तरह के पकवान बने हुए हो तो सब्कुच खा लु और जल्दि जल्दि खाता है ।

इन्द्रियो के विषयो मे बद्लाव जो होता है इससे सिद्ध होता है कि जीव को एक ज्ञेय मे संतुष्टि नही होती है।

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यहा अब ये बताते है कि सुखी होने के जो उपाय जीव कर रहा है वे सब झुठे है::
· पदार्थ को पाने के लिए जो उपाय जीव कर रहा है उसके आधीन नही है क्योकी
o इन्द्रियो को बनाये रखना नाम कर्म के उदय पर निर्भर है।
o बाह्य संयोग मिलना वह साता असाता वेदनीय कर्म के उदय पर और लाभान्तराय,भोगन्तराय,विरन्तराय कर्मो के क्षयोपशम के आधिन है।
o एक इच्छा कि पुर्ती के लिए कई बाह्य कारण की जरुरत होती है जो अपने आधिन नही है।
· कर्मो का उदय काल आता है तभी उदय मे आते है अपनी इच्छा से उदय मे नही आते है।
· भोजन के द्वारा शरीर पुष्ट करके उससे सुख प्राप्त होगा एसा विचार करने से हमारा ज्ञान घटता है, हम जान तो बहुत सकते है लेकिन एसी बुद्धी से हम ज्ञान कम हि कर रहे है ।हमारा अमुल्य समय शरीर को पुष्ट करने मे ही चला जाये उससे पहले हमे हमारी संभाल कर लेना चाहिए।
· ज्ञान-दर्शन स्वयं मे निर्मल, विशुद्ध परिणाम होने और कषाय के घटने से हि उत्पन्न होता है।
· कषाय घटने से ज्ञान बढता है तभी विषय ग्रहण कि शक्ति बढ्ती है।
Eg: बालक की कषाय कम रहती है इसीलिए उसकी grasping power अच्छी होती है जैसे जैसे बडा होता है कषाय बढती जाती है और ज्ञान कम होता जाता है।
v विषयो का संयोग मिलाना , उन्हे शीघ्र शीघ्र ग्रहण करता है : जो संयोग इन्द्रियो के विषयो को मिलाने के लिए जीव करता है वे संयोग ज्यादा समय तक नही रहता बदलता रहता है, और कभी तो सभी संयोग मिलते भी नही है ।
Eg: खाने का आनंद तो ग्रास जब तक जबान पर है तब तक हि रहता है ।

v इन्द्रियो को प्रबल करने का उपाय उन्हे अपने आधिन रखने की बुद्धि : यह उपाय इसलिए झुठा है क्योकी इन्द्रियो को प्रबल करने विषय ग्रहण की शक्ति नही बढती वह शरीर के आधिन नही है। शरीर कि शक्ति बढने से विषय ग्रहण की शक्ति नही बढती है,वह तो ज्ञान –दर्शन बढाने से बढती है जो कर्मो के क्षयोपशम के आधिन है।


Eg: if 2 persons of whom one is illiterate but good by health and other is literate but weak by health are send to see some view then the illiterate person will not get wht is the view though he is good by health and that with other who is literate will get the thing and will enjoy it though he is weak by health. So it proves that it is not necessary that indriyaa should be well developed to fulfill one’s need. सोचने समझने की शक्ति के कारण (ज्ञानवरण-दर्शनावरण के क्षयोपशम से) एसा होता है ।

प्र. . लौकिक विषय और धर्मिक विषय दोनो same है क्या?
उत्तर : यहा ५ इन्द्रियो से ग्रहण किये जाते है उन विषयो कि बात है , जिनवाणी मे अशुभ विषयो कि ही बात होती है।

कषायादि घटने से कर्म का क्षयोपशम होनेपर ज्ञान दर्शन बढे तब विषय ग्रहण करने की शक्ति बढती है?
कषाय के द्वारा ज्ञान दर्शन कि शक्ति कम होती है ,इसलिए जब कषाय घटती है तब ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का क्षयोपशम होता है जिससे ज्ञान दर्शन की शक्ति बढती है तथा पदर्थो के भोग उपभोग की पुर्ति की शक्ति बढती है,विषय ग्रहण करने की शक्ति बढती है, और विर्यांतराय का भी क्षयोपशम होता है ।
इन्द्रियो को और विषयो को अपने आधिन करना : अगर मुझे कोइ आधिन नही रख सकता तो किसी और को मैं अपने आधिन कैसे रख सकता हुँ। वे वस्तु तो उनके स्वयं के आधिन है,कर्मोदय के आधिन है हमारे नहीं है।
अगर कोइ किसी के अधिन होता तो शरीर कि जो पर्याय उसे पसन्द हो उसी मे क्यों नही रहता क्यो बुढापा आता ,क्यो स्वस्थ नही रहता क्यों सुन्दर नही रहता। हमारे संयोग मे रहने वाले सचेतन अचेतन पदार्थो को जैसा चाहे वैसा परिणम क्यों नही करा सकता ।
कर्मो के अनुसार देखो तो नामकर्म के according ही शरीर मिलता है,साता-असाता वेदनीय कर्म के उदय से ही हमे सुख दु:ख मिलता है, आयुकर्म के क्षयोपशम होता है उतनी ही आयु होती है। इन बातो से ये सिद्ध होता है की हम किसी भी वस्तु को अपने आधिन नही रख सकते। सब अपने कर्मो के अनुसार ही स्वयं और किसी भी सचेतन-अचेतन पदार्थो का परिणमन होगा।

जो विष्यो की तृष्णा को बढाता है अज्ञान को बढाता है पाप रुप प्रवृत्ति कराता है एसा पुण्य किसी काम का नही है। जो पुण्य मोक्षमार्ग मे कार्यकारी है वही पुण्य काम का है। (आत्मानुशासन में श्लोक है ।)

एसे पुण्य वाले जीव को देखकर हमे करुणा बुद्धि रखना चाहिये ,कषाय भाव नही लाने चाहिए और अपनी स्थिती एसी ना हो इस बात पर ध्यान देना चहिये।

धर्म कि क्रिया को केवल क्रिया के लिए ही नही करना है अपने लक्ष को ध्यान मे रखकर क्रिया करनी चहिये।

In daily life whatever we do or enjoy is only the process of janana(जानना). In every condition my real role is only जानना और देखना किसी मे बदलाव करना नही है।
कर्ता बुद्धिको दुर करना है। जानने देखने का कार्य वही कार्य करने योग्य है अन्यथा कुछ नहीं।

" सुख की प्रप्ति करने के लिए हमे स्व-पर का भेद करना है स्वयं को ज्ञाता दृष्टा समझकर जानकर केवल जानने देखने का कार्य करे और कर्तत्व की बुद्धि को दुर करना जरुरी है । "

1 comment:

Vikas said...

बहुत ही बढ़िया. इन समस्त बातो की तरफ ध्यान जाए, चिंतन करे, तो स्वयं का कल्याण हो ही जाएगा.

One correction:

कषाय के द्वारा ज्ञान दर्शन कि शक्ति कम होती है ,पदर्थो के भोग उपभोग की पुर्ति की शक्ति बढती है। विर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होता है।

Correction: कषाय के द्वारा पदर्थो के भोग उपभोग की पुर्ति की शक्ति कैसे बढ़ सकती है? विर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम कैसे बढ़ सकता है?
ये तो कम होना चाहिए.