Tuesday, June 30, 2009

विनय मिथ्यात्व भाव और संशय मिथ्यत्व भाव

Class Date: 06/29/2009
Chapter: Bhavdeepika
Page#: 37-38
Paragraph #:
Recorded version:
Summary:

विनय मिथ्यात्व भाव:
· योग्य-अयोग्य के विचार रहित देव, गुरु, धर्मादिमें से एक को मुख्य करना
· लोकमे, अर्थ, भव, मोक्श, लोभ के लिय जीव विनय मिथ्यत्व करता है
· विनय धर्म का अंग भी है
· विनय संपन्नता सोलकरन भावना में भी है
· पंचाचार में विनय तप भी है

संशय मिथ्यत्व भाव:
· देव में संशय करना
· जिनमतमें देव का स्वरुप सर्वग्य, सर्वदर्शी, सर्व आवरन रहित, सर्व मोह भाव तथा कशाय रहित ग्याता द्रष्टा, अपने स्वाभाविक सुख का भोगता, आनंदकंद, नित्य, इत्यादि विशेषणों सहित कहा है.
· अन्य मत में देव का स्वरुप अनेक प्रकार से कहा है:
o वह एक ब्रह्म है
o ब्रह्म ही सर्व पदार्थरुप प्रवर्त्तते है
o स्रुष्टि न्यारी है और और इश्वर न्यारा है
o स्रुष्टि इश्वर ने रची है
o इश्वर अनदि तत्व है और स्रुष्टि भी अनादि है
o संसारी जीव जैसा करते है वैसा स्वर्ग-नरक में सुख-दुःख भोगते है
o इश्वर स्वर्ग-नरक में सुख-दुःख देते है
o इश्वर अच्छी-बुरी प्रव्रुति कराता है
o शुभाशुभ प्रव्रुति का इश्वर करता है
o इश्वर को कोइ अकर्ता मानते है
o इश्वर को काम-क्रोधादि प्रव्रुति सहित मानते है
o सांसरिक सुख का भोगता मानते है
· इस प्रकार संशय मिथ्यात्व पाया जाता है

Tuesday, June 23, 2009

धर्म, आप्त, आगम सम्बब्धित एकांत मिथ्यात्व

Class Date: 6/22/09
Chapter: 4(bhavdipika)
Page#: 37
Paragraph #: last paragraph
Recorded version: http://cid-52d749a4f28f4c05.skydrive.live.com/self.aspx/Public/MMP%20class/Chapter%204/06-22-2009%5E_Mithyatva9.WMA
Summary:


* अभी तक हमने जाना कि ५ प्रकार के भाव में औदायिक भाव है । उसका एक भेद है मिथ्यात्व, उसके २ भेद है: अग्रहित और ग्रहीत ।


ग्रहीत मिथ्यात्व : जो इसी भाव में पर का उपदेश सुनकर ग्रहण किया जाए , सामान्य से कुगुरू, कुदेव, कुधर्म का श्रद्धान गृहीत मिथ्यात्व है
कुश्रुत ज्ञान : लौकिक महाभारत , रामायण पढ़ना
इस गृहीत मिथ्यात्व के ५ भेद है :
एकांत
विनय
संशय
अज्ञान
विपरीत
यहाँ एकांत मिथ्यात्व में देव, गुरु सम्बन्धित बात हो गई थी अब धर्म सम्बन्धी एकांत मिथ्यात्व का वर्णन करते हैं -
तातें ...........

आगे कहते है निश्चय और व्यवहार दोनों ही धर्म के अंग है अपनी शक्ति रुप से धर्म क्रिया का प्रवर्तन करना यदि जीव को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार संयोंग प्राप्त नहीं हो पा रहे है फिर भी वह कर रहा है तो इसका मतलब है की उसके अन्तरंग मैं कुछ पक्ष पड़ा है कि हमको यह कार्य करना ही है, उसके राग द्वेष मिथ्यात्व का भाव पड़ा है
यदि जीव व्यवहार तथा निश्चय दोनों को यथार्थरूप जानकर प्रवर्त्तन करेगा तो दोनों कि सापेक्षेता नहीं छुटेगी यदि दोनों में से किसी एक को भी अधुरा जानेगा और प्रवर्त्तन करेगा तो आभास हुए बिना नहीं रहेगा
इसलिए हमें सबसे पहले हमारा लक्ष्य क्या है यह निश्चित करना , फिर अपनी प्रवृत्ति से लक्ष्य कि प्राप्ति हो रही है या नहीं यह देखो लक्ष्य यदि सही है तो उसकी प्राप्ति के निमित्त साधन भी अपने आप मिल जायेंगे और यदि वो नहीं मिलेंगे तो जीव खुद उन्हें खोज लेगा

इस प्रकार दोनों कि सापेक्षता न छोड़ते हुए, व्यवहार धर्म को कारण मान कार्यरूप निश्चय धर्म को पुष्ट करना ऐसा सम्यक भाव का स्वरुप कहा है
किन्तु ऐसा न जानकर मिथ्यात्व / कषाय के उदय से धर्म के किसी एक अंग को ही सर्वथा धर्म मान लेना, उसी से लक्ष्य सिद्धि मान लेना ही धर्म के आश्रय से एकांत मिथ्यात्व भाव है

आगे आप्त के सम्बन्ध में एकांत मिथ्यात्व कहते है :
आप्त अर्थात जो हितोपदेशी है, आगम का उपदेश देवे सो वह आप्त है
मूल आप्त : अरहंत, तीर्थंकर भगवान
उत्तर आप्त : गणधर, आचार्य, गृहस्थ
* आप्त को ही मुख्या मानना; अन्य ५ पदार्थों का गौण या निषेध करना ऐसा मानना की आप्त ही सब पदार्थों को बताने वाला है इसीलिए वो ही ईश्वर है क्योंकि हित अहित का, जीव के कल्याण का उपदेश तो आप्त ही देने वाले हैं
* उसमे भी मूल आप्त को ही मानना
* गणधर को ही आप्त मानना या मुनि को ही, या गृहस्थ में बहुत पढ़े को ही आप्त मानना
* उसमें भी संस्कृत, प्राकृत आदि ग्रंथो का जानकार पढ़ने वाला है, को ही आप्त मानना
* जो कुल वाले, धन वाले उपदेशक है उस आप्त को ही मानना
उनसे ही सुनना, अन्य को न सुनना और यदि सुनाता भी है तो गौणपने से सुनना इत्यादि आप्ताश्रय एकांत मिथ्यात्व भाव हैं
अब इसमे सम्यक भाव किस प्रकार है वह बताते हैं :
जो अन्य ५ तत्वों के साथ वक्ता को भी मानना जहाँ वक्ता कैसा हो ये बताते है - वह जिन प्रणित सत्यार्थ का वक्ता हो, वह कषाय रहित जीवों के कल्याण की बात बतावे वो ही यथार्थ वक्ता है
सो उस वक्ता में भी सब वक्ताओं को सामान मानना , गौण मुख्य भेद न कर सब के पास सुनना वह सम्यक भाव है

अब आगम के सम्बन्ध में एकांत मिथ्यात्व का वर्णन करते है :
* आगम मैं भी एक पक्ष को मुख्य कर मानना जैसे सिर्फ प्रथमानुयोग, या चरणानुयोग या करानानुयोग या सिर्फ द्रव्यानुयोग आगम को ही मानना उसे समझाते हैं : आगम में जो भी बताया है वो सब प्रयोजनभुत है, चारों ही अनुयोंगों से वीतरागता की सिद्धि होती है अत: चारों ही अनुयोंगो को मानना, पढ़ना
* तथा किसी अनुयोंग में भी किसी शास्त्र को ही मुख्य मानना, दुसरे को गौण कर देना, उसका अभ्यास ही न करना उसे कहते है की समस्त शास्त्र ही आगम का अंग है तथा वे कल्याण का कारण है अत: समस्त शास्त्रों का अभ्यास करना

अब आगे ९ पदार्थ सम्बंधित एकांत मिथ्यात्व का वर्णन करते हैं "
* ९ पदार्थो में से भी किसी एक पदार्थ को या २ या ३ आदि पदार्थो को ही मानना बाकी सब को निषेध या गौण करना
* इन पदार्थो को अस्ति रूप ही मानना या नास्ति रूप ही मानना या नित्य ही मानना या अनीय ही मानना कहने का तात्पर्य है की वास्तु/ पदार्थो के सब धर्मो को न मानना; अ तो द्रव्य को मुख्य कर या पर्याय को मुख्य कर एक ही धर्म को मानना पदार्थ सम्बंधित एकांत मिथ्यात्व भाव है

Thursday, June 18, 2009

निस्च्याभासी मिथ्यत्वी

Class Date: 06/17/2009
Chapter: Bhav Dipika
Page#: 35 & 36
Paragraph #: Page 35 last pera & Page 36 first pera
Recorded version: http://cid-52d749a4f28f4c05.skydrive.live.com/self.aspx/Public/MMP%20class/Chapter%204/06-17-2009%7C_Mithyatva8.WMA
Summary:

page 35 last pera & page 36 first pera

मोक्ष के ६ अंग - देव, गुरु, धर्मं, आप्त, आगम, पदार्थ
इसमें धर्मं अंग के प्रति एकांत मिथ्यात्व

"धर्मं" के दो भेद किये है - 1) निश्चय धर्मं - शुद्ध उपयोगरूप
२) व्यव्हार धर्मं - शुभ उपयोगरूप मन, वचन, काय की बाह्य क्रिया

निश्चयाभासी - सिर्फ निश्चय धर्म के प्रति एकान्तता धारण करता है और व्यव्हार का निषेध करता है
व्यव्हार्भासी - सिर्फ व्यव्हार धर्मं के प्रति एकान्तता धारण करता है और निश्चय का निषेध करता है.

पूजा, स्वाध्याय, रात्रि भोजन त्याग, सप्त व्यसन त्याग (जुवा, मांश, मदिरा, परनारी, शिकार, चोरी, वेश्यागमन, इनके त्याग रूप व्यवहार धर्म है. इनकी प्रवृत्ति रूप नहीं परन्तु इसको छोड़ करके शुद्ध स्वरुप की प्राप्ति होगी

सप्त व्यसन त्याग श्रावक की basic step है, जिससे व्यव्हार धर्म की शुरुआत होती है और जिव उपदेश देने योग्य बनता है. This is like 1st standard in school

निश्चयाभाशी व्यव्हार धर्मं को सर्वथा हेय(छोड़ने योग्य) ही मानता है और निश्चय धर्म का सर्वथा पक्ष धारण करके सर्व सिद्धि मानता है. जिसके कुछ लक्षण नीचे बताया है -
Example:
- सात तत्त्व के नाम मात्र जानना, लक्शान आदी जान लेना
-में चेतन स्वरुप आत्मा हु और ये जड़ आदि स्वरुप मुझसे भिन्न है
-जीवादी तत्वों की, स्व-पर की, आत्मा की चर्चा करने से ही
-मन में ध्यान आदि ही से
और स्वयं को ज्ञानी मानता है वे निश्चयाभासी एकांत मिथ्यात्व है.
निश्चयाभासी मानता है की जीवादी सात तत्त्व को जान लिया, लक्षणसहित जान लीया और परिभाषा भी शीख ली, और जानने मात्र से सिद्धि होती है और अनुभव से सिद्धि होती है और व्यव्हार धर्मं की प्रवृति का सर्वथा निषेध करके या उसको न करने मान्यता बनता है,

निस्चयाभासी मानता है की मै चैतन्य स्वरुप आत्मा हु, और बाकि सरे मुझसे भिन्न है, और बाकि कोई भी पाप प्रवृति में भी यही मानता है की आत्मा सोता नहीं, खाता नहीं, पाप नहीं करता, परिग्रह नहीं करता. ये कथन सही है, परन्तु सिर्फ द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा शुद्ध है, पर्याय की अपेक्षा से असुद्ध ही है ये नहीं मानता और रागादी का पोषण करता है और उसके उपाय न करके मिथ्यात्व का पोषण करता है और स्वछंदी होता है.

निश्च्च्याभास की मान्यता शास्त्रों को पढने के बाद पाई जाती है

ये मान्यता संख्य मत में पाई जाती है, जिसमे प्रकृति और पुरुष दो चीज़ है और पुरुष सर्वथा शुद्ध है और प्रकृति ही सुबकुछ करती है. व्यवहार धर्मं को सर्वथा हेय जानता है और निश्चय धर्मं को ही उपादेय मानता है और कुछ प्रवृति नहीं करता.

प्रवचनसार के अनुसार इसलिए जो मोक्ष मार्ग में सहकारी बने ऐसी प्रवृति(पुण्य) कथंचित उपादेय है और जो संसार में भ्रमण ही कराती है, वह कथंचित हेय नहीं, पूर्णतः हेय है इसलिए कहा की मिथ्यात्व के साथ पुण्य प्रवृति बंध का कारन है और सम्यक्त्व के साथ की गयी प्रवृति कथंचित मोक्ष का कारण है. यह कथंचित कहा है.
यहाँ पर कहनेका हेतु यह है की मिथ्यात्व अवस्था ही ख़राब है इसमें शुभ प्रवृति भी करे तो खोटी है और अशुभ तो ऐसे भी गलत है तो जितनी जल्दी इससे छुट जाये उसमे ही भलाई है.

निश्चयाभासी सिर्फ उसको सुनने में ही, मन में विचार करने में ही, मन के द्वारा ध्यान करने को, आसन आदि करने या प्राणायामआदी को ही मानता है, परन्तु अभी संपूर्ण वस्तु विशेष समजी नहीं उसका ध्यान कैसे कर सकता है?

सम्यक्त्व की परिभाषा परवचनसार के अनुसार यह है की यह सुख स्वभावी आत्मा पूर्णता उपादेय है ऐसी रूचि रूप होना यही सम्यक्त्व है, और जिसकी रूचि हो अच्छा लगे उसका सहजता से ध्यान होता है उसे ही ध्यान कहते है, एक अंग को ही मुख्या करके और संपूर्ण वस्तु ना जान कर कैसे ध्यान कर सकता है.

यह सारी मान्यता को ग्रहण करके आप्त को ज्ञानी मानता है, क्योकि खुद को ज्ञान स्वरूप मानता है और एकांत मत ग्रहण करता है यह ही निस्चयाभासी एकांत मिथ्यात्व है.

इससे विपरीत व्यव्हाराभासी पूजा आदि, दान, व्रत, चोरी त्याग को ही धर्मं मान kr खुदको धर्मात्मा मानता है.

इसके समाधान हेतु बताया है की निश्चय धर्मं को जानना श्रधान करना और व्यव्हार धर्मं की प्रवृति के कारन जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मिले इस रूप प्रवर्तना, जितनी शक्ति है उस अनुसार करना और जो न कर सके उसका श्रधान करना.

व्यव्हार धर्मं को कारन जानना, और निश्चय धर्मं को कार्य जानना इसके लिए कहा है की पहले तो बुद्धिपूर्वक पक्ष छोडे जाते है, तब फिर जब निर्मल श्रधान होगा तो बाकि पक्ष अपने आप चले जायेंगे.

इसलिए व्यव्हार का उपयोग निश्चय के लिए करना, जैसे लकडी का उपयोग आग उत्प्पन करनेके लिया होता है सो लकडी और आग दोनों का स्वरुप ही अलग अलग है लकडी खुद नस्ट होती है और आग को उत्प्पन करती है उसके नस्ट हुवे बिना आग उत्प्पन नहीं होती. वैसे ही व्यव्हार और निश्चय का स्वरुप ही अलग अलग है और निश्चय के लिए व्यव्हार का उपयोग किया जाता है, व्यव्हार धर्मं खुद नस्ट होता है और उसमे से निश्चय धर्मं निकल के आता है सो दोनों की सापेक्षता न छोडनी ऐसा सम्यक्त्व का स्वरुप है.

Wednesday, June 17, 2009

Class notes from 6/16/09

Class Date: 6/16/09
Chapter:Bhav Dipika
Page#: 36
Paragraph #:
Recorded version:
Summary:

5 types of grahit mithyatva;
ekant, sanshay, vinay , viparit and agyan
6 tatva:
dev, guru, dharm, aapt, aagam aur padarth
Agrahit mithyatva: 1) par dravya, par gun and par paryay me sahaj rup se ahankaar aur mamkaar karna
2) prayojan bhut karan ko nahi manana
3) paryay buddhi me dravya buddhi dharana
Ekant Mithyatva: Dharma ke subhi ang hai unko nahi janke sirf ek ko hi grahan karna aur dusaro ka nishedh karna..gaun pana nahi ho kar nishedh pana karna..
Vyavahar bhas --> Jise Vyavhar ka aabhas hai. Jo nay ko samyak rup se nahi janata aur esliye uska nay ko janana bhi aabhas rup hi kaha jata hai. Both nay ka barabar gyan aur jis rup se hai uska aisa shraddhan banta hai tab usko aabhas naam nahi diya jata.
Q. Vyavhar janana jaruri hai aur phir chhodne layak hai aisa kaise?
Ans: Jaise ashubh vastue chhodne layak hey ese Vyavhar chhoda nahi jata. Kisi bhi gyani kaa jivan vyavhar rup se hi chalata hey aur nischay rup pravuti to bahut thode samay ke liye hoti hey aur ese to vyavhar dhrama hi mainly chalata hey. Initially, Vyavhar ko upadeh budhdhi se apanate hey aur manate hey ki vyavhar ki madhyam se nischay ki prapti hoti hey.
Q. Nischay ke prapti ke time par kya vyavahar chalata hey?
Ans: Aatma ke anubhav ke samay vyavahar nahi chalata kyuki vyavahar to vikalp/pravuti/vachan rup hota hey lekin wo jiv vyavhar se hata hua nahi hey.
Page 36:
Sanyam - Vyavahar dharm ke ek ang me hi pravarti karana dusari ke upeksha karana.. thoda kiya uska ahankar hey aur hum jo kar rahe hey wo bahut hey yaa jo kar rahe usme santushti honi. esa bhav galat hey.. for example, kashay khatanese, tras aur sthavar ko bachane se, anu vrat ka dharan karane ke baad, maha vart dharan karane se.. sirf etna karane se apana kaam ho jaata hey, esa sochana galat hey.. In short, ek ang pakadake wo hi sirf karana aur dusare ang ki upeksha karana, esi bhavana rakhani galat hey..
Hum ye sab kriya kar rahe hey vo bahut hey aur usme hi sanushti kaa bhav aata hey, kyuki hume anulkulata milti hey and hame lagata hey ki etan karane se mera bhala ho jayega..Hume hamara goal clear hone chahiye - yaha tak kis karan se aye aur abhi goal pura nahi hua, kaam baki hey aur lakshya ki taraf efforts baki hey..
In sab me vyavhar samyaktva dharan karane me hi, ku dev ko nahi pujate, sapt vyasan ka tyag karanese, abhaksh, ratri bhojan and aur sab ka tyag karanes se (vyavhar samyakta - vyavhar dharma ke ang) En sub me se koi 1-2 ang ka dharan karane se wo aapne aapko samyaktvi ho gaya esa sochte hey.. khudko dharmatma manata hey - Yuh vyavahra bhasi ekant mithyatvi hey...
If hamara lakshay dharm ka hey aur hum dharm ke raste par hey to hum dharmatma kahe jate hey lekin dharma (nischay dharma) ko janane kaa lakshya naa ho pan aapne kashay ko poshane ke liye dharm pravuti karata hey wo activities mithya charitra hey aur antrang kaa bhav mithya darshn me jata hey..
Kya kasoti hey?
1) vyavhar dharma me santushti ka bhav aa gaya ho to hum galat kar rahe hey
2) Hum kriya kar rahe hey to phir humne socha nahi ki hume kya siddhhi ho rahi thi aur hamara lakshya kya hey wo bhul gaye
3) Kriya me utsah kaa bhav hey yaa nirasha ka bhav atta hey? yadi nirasha ke bhav hey matlub nishay dharma ki pravuti suru nahi hue..
Yadi hum aage ki chij (goal) dekhate hey to hum kabhi santusht nahi hote aur aage badhate hi jate hey.. aue vyavhar nishay ke sadhak hey aur kaise madad karega muje mere lakshay par le janege..
Vyavhar sadhan hey nishay ke marg pe aaage jane ki liye.. Gruhasth jivan me bahut mulayvan hey - parinamo ko vishudh karane ke liye, nischay pe jane ki liye - vyavhar ke bina nischay pragat nahi ho sakata.. nischay ke bina vyavhar karya kari nahi hey - dono ki bhumika jaruri hey..
nischay bhasi means - nishay rup dharam ki bare me bahut vichar kare lekin implement nahi karate.. vyavhar dharm kaa nishedh hey..punya and paap dono heeey hey so dono nahi karana,... wo nischayaa bhas hey..

-Harshil

Wednesday, June 10, 2009

Class Date: 6/9/09
Chapter: Bhav Dipika
Page#: 33/35
Paragraph #:
Recorded version: http://cid-52d749a4f28f4c05.skydrive.live.com/browse.aspx/Public/MMP%20class/Chapter%204?uc=2
Summary:

6/9/09

Bhav Dipika (MMP chp 4)- pg: 33/35

Mithyatva Bhav Adhikar:

Revision:

Agrahit mithyatva: Par dravya, Par gun, Par paryay inme aham/mam buddhi karna, jo sukshma padarth hai (dikhte nahi) unka sarvatha abhav maanna- in sabme agrahit mithyatva hai.

Grahit Mithyatva: Dharm/moksh ke mulbhut 6 karno (dev, guru, dharm, aapt, aagam, padarth) ko viprit maanne se grahit mithyatva hota hai.

Dev tatva: Covered earlier

Guru tatva: Iske two main types: Dharm guru and Upkari guru
Dharm guru ke types: Diksha, Shiksha, Vidya (upkar kare chaahe naa kare)
Upkari guru ke types: Dharm upkari and Laukik upkari

Dharm tatva: Nischay or Vyavahar. Dharm kya hai- vastu ka svabhav. Atma ka svabhav gyan, darshan hai- to us rup parinamit hona vohi uska dharm hai- chetanya (swa) swarup ka prakash karna yeh hamara dharm hai. Apne svabhav (nij swarup) mein sthir rehne se dharm hota hai. Vyavahar, nischay dharm ka saadhak hai aur isse upchar se dharm kaha jata hai.

Aapt tatva: Sacche dev ko aapt kehte hai. Dev aura aapt mein kya antar hai? Jo sacche dharm ke updeshak hai, hitopdeshi hai unhe aapt kehte hai. Aapt ke 2 types hai- Mul aapt aur uttar aapt- Mul- tirthankar, arihant aadi. Gandhar, prati gandhar, shrut kevli, aacharya etc are uttar aapt- kashay rahit grahast bhi uttar aapt hai.

Aagam tatva: Aapt ka jo vachan hai vo aagam- syadvad aur vitragta iske lakshan hai. Aagam ko kaise pehchanna? Jo badha rahit, jo praman, nay, nikshep, kutark, anuman aadi se bhi badha ko prapt nahi hota vo aagam hai. Iske 4 hetu: Aagam ka sevan, yukti ka aavlamban, parampara guru ka updesh, swanubhav- inke madhyam se aagam ki siddhi karte hai.

Padarth tatva: Vastu ka jo arth hai, prayojan hai uska matlab padarth. 9 types: Jeev, ajeev, aasrav, bandh, paap, punya, samvar, nirjara, moksh. Jeev ke 2 types: sansar ke karan aur moksh ke karan; Ajeev ke 5 types; Aasrav ke 2 types; Bandh ke 4 types: Pradesh, prakruti, sthiti, anubhag.

Pg 33 or pg 35

Samvar padarth:

2 types of Samvar: Bhav or Dravya. Karmo ke nahi aane ko dravya Samvar kehte hai. Bhav Samvar matlab aatma ke parinamo ka shuddh hona, nij mein sthirta hona, kashay ka utpann nahi hona, etc.

4 types of mul Samvar: Mithyatva, Avrat, Kashay, Yog (isi kram mein samvar hota hai)
Inke utaar bhed (jo aasrav ke opposite hai) 57 hai- 12 avirti, 5 mithyatva, 25 kashay, 15 yog (these are types of dravya samvar) Viprit Bhaav mein samvar hone se- for eg vrat rup bhaav paaye jaaye, ya kashay rup bhaavo ka nahi hona- yeh bhaav samvar hai. Jitne time ke liye bhaav samvar utne samay ke liye dravya samvar hai.

Upchar se, Yog Samvar happens after 11th gunsthanak (actually in the 14th where there are ayogi kevlis)


Nirjara padarth:

2 types: Mul and Uttar

Karmo ka khir jaana is nirjara. Sarvadesh nirjara hone se moksh hota hai.

Bhaav nirjara: Swarup ki taraf unmukh hona, yaa kashay addi ka hin hona- yeh bhaav nirjara hai. Jitne time ke liye bhaav nirjara utne samay ke liye dravya nirjara hai. Yeh mul nirjara hai.
Sthiti anubhag ka ghatna, stithi anubhag nirjara hai. Vaastav mein jab Pradesh kshin hote hai, tab nirjara hoti hai. Karm ko akarm rup kardena aur punah karman vargana rup change karna, vo nirjara hai.

Moksh tatva: Bhaav or Dravya:

Bhaav moksh: 4 ghaati karmo ko naash karke, anant chatushti ko prapt karna bhaav moksh hai.

Dravya moksh: Samast karmo ka naash (all 8) ko dravya moksh kehte hai. Sarva par dravya se sarvatha udaa hona vo dravya moksh hai.

Punya padarth: Uday rup and bandh rup

Uday rup: Sansarik sukh samagri ka prapt hona, isht vastu ki prapti,
Bandh rup: Mand kashay rup bhaav hona


Paap padarth: Uday rup and bandh rup

Uday rup: Sansarik dukh samagri ka prapt hona, anisht vastu ki prapti,
Bandh rup: Sanklesh kashay rup bhaav hona

In 9 padartho ka yatharth swarup karna hai- viprit graham karna vo mithyatva aur samsar bhraman ka karan hai. Moksh ke karan yeh 6 tatvo (dev, guru, dharm, aapt, aagam, padarth) inme yatharth shraddhan, yatharth swarup jaanna aur yatharth pravartan karna vohi samyak darshan, gyan aur charitra hai. Samyak darshan, gyan, charitra in teeno ki ekta se hi moksh mar gaur mukti ki prapti hoti hai. Inme se kisi ek tatva ki bhi kami ho to moksh nahi milta.

Agar moksh marg ki ruchi hai, to in sabhi 6 tatvo ki jarurat hai. Jahan darshan moh ka uday hone se inke viprit rup graham karna hota hai, to vo grahit mithyatva hai. Panchendriya paryay mein, mukhya rup se manushya gati mein grahit mithyatva hota hai.

Ekant, vinay, sanshay, viprit, agyan- yeh 5 prakar ka mithyatva hai.

Note: Anadhyavasay gyan ke bhed mein lete hai , mithyatva ke bhedo mein nahi.

Ekant Mithyatva:

In 6 mein se koi ek ya jyada par sab 6 nahi, ya sabhi visheshta ko na grhan karke, ek ya kuch visheshta ko graham kare to vo ekant mithyatva hai. Kuch ko dharan kar anya ka nishedh/upeksha karna, yeh ekant mithyatva bhav hai. Antarang mein shraddhan, dharna kya hai yeh important hai- even if we are unable to do everything, we should believe in all 6 tatva.

For example, sarva siddhi ka karan dev hi ko jaanna, anya 5 tatva ko nahi, ya dev aur guru ko hi manna, baaki 4 ko nahi, etc.- yeh sab ekant mithyatva hai.

Devs have several visheshta but if we believe in only one or few of those visheshta, then it is ekant mithyatva. For example, if we believe that dev will give us laukik sukh, or that dev sarva ke ishwar hai but not believe in other visheshta, then it is ekant mithyatva.

-shweta

Wednesday, June 3, 2009

Bhaav Deepika - Notes from June 3,2009


Class Date: 06/03/2009
Chapter: Bhaav Deepika
Page#: 3
0-32


Paragraph #: last but one
Recorded version:
: http://cid-52d749a4f28f4c05.skydrive.live.com/self.aspx/Public/MMP%20class/Chapter%204/06-03-2009%7C_Mithyatva4.WMA?wa=wsignin1.0&sa=316736450



पुनःआवृत्ति –


प्र० मोक्ष मार्ग के कारणभूत छह तत्व कौन से हैं ?


उ० देव, गुरू, धर्म, आप्त, आगम, और पदार्थ


प्र० धर्म किसे कहते हैं ?


उ० वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं. अतः जीव के लिए राग द्वेष रहित अपने ज्ञाता दृष्टा स्वभाव में स्थिर रहना (शुद्धोपयोग) ही धर्म है. क्योंकि शुभ भाव, क्रिया आदि (शुभोपयोग) धर्म के साधन हैं, व्यवहार से इनको भी धर्म कहते हैं. शुद्धोपयोग से पहले व्यवहार धर्म ही पाया जाता है. व्यवहार धर्म भी दो प्रकार का कहा है – पहला अंतरंग भाव रूप जो जीव का स्वयं का परिणाम है, और दूसरा जो इन भावों से जो मन वचन काय की प्रवृत्ति या बाह्य क्रिया होती है. ये व्यवहार धर्म देश संयम रूप अथवा सकल संयम रूप होते हैं .


आप्त तत्व


जो वीतरागी सर्वज्ञ जीव के परम हित अर्थात मोक्ष मार्ग का उपदेश देतें हैं उन्हें आप्त कहतें हैं. आप्त दो प्रकार के हैं – मूल आप्त और उत्तर आप्त. जो अरिहंत देव चार घातिया कर्मों का नाश कर अनंत चतुष्टय को प्राप्त कर द्वादश सभा में मोक्ष मार्ग का उपदेश देतें हैं ऐसे तीर्थंकर भगवान को मूल आप्त कहतें हैं. जो सम्यक्दर्शन आदि के धारी गणधर, प्रतिगणधर, श्रुतकेवली, आचार्य, उपाध्याय इत्यादि जो मूल आप्त के अनुसार मोक्ष मार्ग का उपदेश देतें हैं उन्हें उत्तर आप्त कहतें हैं. तथा सम्यक्दर्शन आदि से युक्त जिन मार्ग के उपदेष्टा, शास्त्र के ज्ञाता, कषाय रहित वक्ता इत्यादि गृहस्थ उत्तरोत्तर आप्त हैं. परंतु मिथ्या दृष्टी यदि जिन मार्ग का भी उपदेश दें तो आप्त नहीं हैं. अतः वक्ता के सम्यक श्रद्धान का निर्णय कर के ही उन के वचनों पर प्रतीती करनी चाहिये. या फिर आगम से उन वचनों की प्रामाणिकता सिद्ध कर के ही ग्रहण करना चाहिये और ये सम्भव ना हो तो उनके वचनों को नहीं सुनना चाहिये.


आगम तत्व


जिनेन्द्र भगवान की वाणी जो स्यद्वाद से युक्त और जो वीतरागता की पोषक होती है उसे आगम कहते हैं. या फिर आप्त के वचनों को आगम कहते हैं. इनसे अन्यथा सब वचनों को अनागम कहा गया है. जिन देव का आगम प्रमाण नय निक्षेप इत्यादि से अबाधित है अथवा किसी भी युक्ती से अकाट्य है. एक युक्ती से अगर उसका खंडन हो तो वह एक अपेक्षा से हो सकता है किंतु अन्य अपेक्षाओं से उसका समधान हो जाता है. आगम मे एक सिद्धांत से दूसरे सिद्धांत का अथवा पूर्वापर विरोध नहीं होता है. यह तो केवली सर्वज्ञ का वचन है जिसमे कोई दोष नहीं होता.


आगम विषय में तीन प्रकार के पदार्थ कहें हैं - ज्ञेय, हेय और उपादेय. ज्ञेय अर्थात जानने योग्य, हेय अर्थात छोड़ने योग्य, और उपादेय अर्थात ग्रहण करने योग्य. इन तीनो प्रकार के पदार्थों की सिद्धि प्रत्यक्ष प्रमाण या अनुमान प्रमाण द्वारा करना. और जो आगम प्रमाण से सिद्ध होता हो तो उसे सुनकर सुनिश्चित स्वानुभव अबाधक प्रमाण से सिद्ध करना. उन में जो अबाधित हो उन्हें जिनागम मानना और जो बाधित हैं उन्हे जिनागम नहीं मानना. कोई अर्थ इसलीये ग्रहण नहीं करना क्योंकि वह प्राकृत या संस्कृत में है या फिर क्योंकि वह किसी बड़े आचार्य के नाम पर लिखे गये हैं परंतु आगम के सेवन, युक्ती का अवलम्बन, परम्परा गुरु के उपदेश और स्वानुभव का आश्रय लेकर ही निर्णय करना. अन्यथा अर्थ को ग्रहण से जीव का अकल्याण ही होता है.


पदार्थ तत्व


पद यानि वस्तु के अर्थ यानि प्रयोजन को पदार्थ कहते हैं. ये नौ प्रकार के हैं - जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप. इनका यथार्थ स्वरूप ग्रहण करने से ये मोक्ष के कारण हैं और अयथार्थ स्वरूप ग्रहण से ये संसार के कारण हैं.


जीव तत्व


जीव दो प्रकार के है - एक तो मोक्ष के कारण हैं और दूसरे संसारी जीव हैं. मोक्ष के कारण जीव नौ हैं - अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, मुनि, अर्जिका, श्रावक, श्राविका. और बाकि सब जीव संसारी हैं.


अजीव तत्व


अजीव तत्व पाँच हैं – पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल.


आस्रव तत्व


कर्मों के आगमन को आस्रव कहते हैं. आस्रव के दो मुख्य भेद हैं – भावास्रव और द्रव्यास्रव. जिस अंतरंग परिणाम से जीव में कर्मों का आस्रव होता है वह भावास्रव है और उस से भिन्न कर्मों/नोकर्मों का कारण जो पुद्गल वर्गणाओं का आस्रव है वह द्रव्यास्रव या मूलास्रव है. मूलास्रव के तेरह भेद हैं – ज्ञानवर्णादि आठ कर्मास्रव, और औदारिक, वैक्रियक, आहरक, तैजस, कार्माण ये पाँच नोकर्मास्रव.


मन वचन काय की क्रिया को योग कहते हैं. ये योग द्रव्यास्रव का कारण है. तथा कर्मों की स्थिती और अनुभाग मिथ्यात्व और कषाय अथवा राग-द्वेष से युक्त अव्रत परिणाम द्वारा निर्धारित होती है अतः ये भी द्रव्यास्रव का कारण कहे जाते हैं. इन द्रव्यास्रव के कारणों को भावास्रव कहते हैं और इनके सत्तावन भेद हैं - पंद्रह योग के, पच्चीस कषाय के, बारह अव्रत के और पाँच मिथ्यात्व के.


पंद्रह योग


मनोयोग – सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग (4)


वचनयोग - सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग, अनुभय वचनयोग (4)


काययोग – औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, वैक्रियक काययोग, वैक्रियक मिश्र काययोग,


आहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग, कार्माण काययोग (7)


पाँच मिथ्यात्व


एकांत, विनय, विपरीत, संशय, अज्ञान


गृहीत मिथ्यात्व का स्वरुप

Class Date: 2nd june. 2009
Chapter: Bhav Dipika
Page#: 29-30
Paragraph #: 2nd
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Summary:

गृहीत मिथ्यात्व का स्वरुप

मोक्ष मार्ग के कारणभुत तत्वों में विपरीत मान्यता संसार का कारण बनता है. देव, गुरु, धर्मं, आप्त, आगम, पदार्थ यह ६ मोक्ष मार्ग के कारणभुत तत्वों / पदार्थ है

गुरु तत्त्व: जो जीवो को अहित से बचाकर हित में प्रवर्तन करते है उनको गुरु कहते है

गुरु दो प्रकार के होते है

१. धर्मं गुरु :- २८ मूलगुण सहित, परिग्रह के त्यागी, नग्न मुद्रा के धारक, शुद्ध रत्नत्रय रूप जिनकी प्रवर्ती है, परम दशलक्षण रूप धर्म की जो मूर्ति है , तप में जो आरूढ़, परम दिगम्बर है वो धर्म गुरु है

२.उपकारी गुरु / हितकारी गुरु :- इनके दो प्रकार है

A. धर्म उपकारी गुरु
१. दीक्षा गुरु : अणुव्रत - महाव्रत का आचरण कराने वाले, दीक्षा देने वाले, चतुर्विध संघ में जो बड़े महा मुनि है
२.शिक्षा गुरु : जिन प्रणित मार्ग का जो उपदेश दे.( मुनि से लेकर गृहस्थ भी हो सकते है )
३.विद्या गुरु : जिनेन्द्र प्रणित शास्त्र को पढाने वाले. (इ.ग. पाठशाला में जो हमेशा पढाते है, गृहस्थ भी हो सकते है )

दीक्षा गुरू आचार्य ही होंगे..शिक्षा गुरु, विद्या गुरू - मुनि से लेकर गृहस्थ भी हो सकते है

B.लौकिक उपकारी गुरु
१.कुल गुरू : बड़े है - अहित से बचके हित में लगाते है इसलिए माता, पिता, पितामह, बड़े भाई, काका, काकी, नाना, नानी,मौसी, मौसा, इत्यादि सब कुल गुरू है. है सब उपकारी है
२. रक्षा गुरू; जिस गांव में रहते है उसके राजा, सरपंच आदि रक्षा गुरू है
३. विद्या गुरु : लौकिक विद्या जिससे आजीविका चले ऐसी शश्त्र विद्या, शास्त्र विद्या ऐसी अनेक प्रकार की विद्या देने वाले
४. आजीविका गुरु: आजीविका का देनहारा
५. शिक्षा गुरू: लौकिक शिक्षा का देनहारा

धर्म गुरू की अष्ट द्रव्य से पूजा करना, अष्टांग नमस्कार या पंचांग नमस्कार करना चाहिए. भक्ति पूर्वक चार प्रकर के दान देने चाहिए.
लौकिक गुरू को यथायोग्य भेट देना चाहिए, विनय पूर्वक हाथ जोड़कर पंचांग नमस्कार करना चाहिए

इनके सिवाय और किसि को गुरू मानना मिथ्यात्व है. लौकिक गुरू को लौकिक गुरू की तरह पूजना चाहिए. लौकिक गुरू को धर्म गुरू की तरह पूजना मिथ्यात्व है. सबकी यथायोग्य विनय करना चाहिए. अयोग्य विनय हो तो उसमे राग दिखता है.

धर्म तत्त्व : वस्तु के स्वाभाव को धर्म कहते है

धर्म दो प्रकार के है

१. निश्चय धर्म : वस्तु के स्वाभाव को निश्चय धर्म कहते है . राग द्वेष रहित ज्ञाता द्रष्टा आत्मा के स्वाभाव में स्थित होना ही निश्चय धर्म है. निज स्वरुप में स्थिरता करना निश्चय धर्म है (जो चीज जैसी है उसको ऐसा ही मानना - जड़ को जड़ ही मानना, जिव को जिव रूप मानना. )

२. व्यव्हार धर्म;
१ देश संयम: मित्यात्व छोड़कर, कषाय, विषय और पॉँच पापो रूप अन्तरंग परिणामो का एकदेश त्याग वह देश संयम है. और धर्म के बाह्य कारण पॉँच अणुव्रत, तिन गुन्व्रत, चार शिक्षा व्रत का ग्रहण करना. उसे भी देश संयम कहते है
२ सकल संयम: सर्व प्रकार से बुद्धि पूर्वक मिथ्यात्व, कषाय, विषय और पॉँच पापो का त्याग हो.. व सकल संयम कहते है और बाह्य कारण रूप २८ मुलगुनो और ८४ लाख उत्तर गुण का ग्रहण करना भी सकल संयम कहते है