ज्ञानावरण एवं दर्शनावरणके क्षयोपशमसे होनेवाला दु:ख एवं उससे निवॄति (Continued..)
१) जीव के इन्द्रीयों की जानने की शक्ती सीमित हैं, इसलिए उनसे उसकी ईच्छा पुरी नहीं होती है । इसलिए मोह के निमित्तसे इन्द्रियोंको अपने-अपने विषय ग्रहण करने की
निरतंर ईच्छा होती रहती है । उससे आकुलित होकर दु:खी हो रहा है ।
२) उस ईच्छा से ऎसा दु:खी हो रहा है कि किसी एक विषय के ग्रहण की ईच्छा पुर्ती के लिए अपने मरण को भी नहीं देखता है । जैसे :
- हाथी को हथिनी के सपर्श की
- मछली को कांटेमॆं लगे मांस की
- भंवरे को कमल के फ़ूल की सुगन्ध की
- पतंगे को दीपक वर्ण देखने की
- हिरण को संगीत सुनने की
ईच्छा ईतनी प्रबल होती है कि तत्काल मृत्यु हो तबभी उसको नहीं छोडना चाहता ।
३) ईन ईन्द्रियों की पीडा से पीडीत रुप सर्व जीव निर्विचार होकर जैसे कोइ जीव दु:खी होकर पर्वत से गिर पडे वैसे ही ईन्द्रियों से पीडीत जीव विषयों में झलांग लगाते हैं ।
४) सभी प्रकार के कष्ट सहकर धन कमाते हैं, विषयॊं की पुर्ति के लिए उसे भी खो देते हैं ।
५) नरकादिक के कारण जो हींसादिक कार्य हैं, वो भी करता है ।
६) ईन्द्रिओंकी पीडा सही नहीं जाती, इसलिए अन्य विचार कुछ आता नहीं ।
७) जैसे खाज रोग से पीडीत हुआ पुरुष आसक्त होकर खुजाता है, पीडा न हो तो किसलिए खुजाए; उसी प्रकार ईन्द्रियरोगसे पीडित हुए ईन्द्रादिक आसक्त होकर विषय सेवन
करते हैं ।
८) ज्ञानावरण एवं दर्शनावरणके क्षयोपशमसे हुआ इन्द्रिय जनित ज्ञान है, वह मिथ्यादर्शनादिक (दर्शनमोहयनीय) के निमीत्त से ईच्छा सहीत होकर दु:ख का कारण है ।
अब ईन दु:खों को दुर करने का ऊपाय यह जीव क्या करता है:
१) ईन्द्रियोंसे विषयॊंका ग्रहण होनेपर मेरी ईच्छा पुर्ण होगी ऎसा जानकर प्रथम तो नानाप्रकारके भोजनादिकोंसे इन्द्रियोंको प्रबल करता है और ऎसा ही जानता है कि इन्द्रियों
प्रबल रहने से मेरे विषय ग्रहणकी शक्ती विशेष होती है । उसके लिए अनेक बाह्य कारण चाहिए उनको भी ईकट्टा करता है ।
२) ईन्द्रियां हैं वे विषय सन्मुख होने पर उनको ग्रहण करती हैं, इसलिए अनेक बाह्य उपायों द्वारा विषयों का तथा इन्द्रियों का संयोग मिलाता है । नाना प्रकार के
वस्त्रादिकका, भोजनादिकका, पुष्पादिकका, मंदिर-आभूषणादिकका तथा गान-वस्त्रादिकका संयोग मिलानेके अर्थ बहुत ही खेद खिन्न होता है ।
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