Tuesday, December 9, 2008

date 12/08/08 ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयोपक्षम से होने वाल दु:ख और उससे निव्रत्ति continued page no: 47 first para

review
* सुख is not a function of getting things and desires fulfilled.. because , जो सामग्री मिली उससे जो इच्छाओं के कारण जो कषायें उत्पन्न हुई थीं, जो कषायवान हुआ था , उन कषायों के मन्द होने के कारण हमें सुखाभास प्रतीत होता है।
*इस तरह जब हमें समझ मे आ जायेगा कि इच्छाओं का मिटना वो सुखरुप अवस्था है, तो ऐसी अवस्था भगवान के , आचार्यों के नहीं पाई जाती है इसलिये वे सुखी है ।

* इस बात का जब हमें ज्ञान हो जायेगा तो हमें जो सच्चा सुख भगवान को प्राप्त है उसका स्वरुप समझ में आयेगा, उन्हें वह कैसे प्राप्त हुआ वह समझ में आ जायेगा ।
* सो हम जब जानेंगे कि इच्छाओं का उत्पन्न होना वह दुख का कारण है और जो हमें सुख लग रहा है वह उन इच्छाओं की पुर्ति से नहीं कषायों के मन्द होने, शमित होने के कारण लग रहा है ।
* जब हमें ये बात समझ में आ जयेगी तब जिससे हमें स्व और पर के संबंधता में निर्मलता आनी शुरु हो जायेगी।

* नि:केवलज्ञान - अपने ज्ञान स्वभाव का अनुभव नहीं है अर्थात इससे वस्तुओं, भोगों का जानना हुआ इसका अनुभवन नहीं है

* ये जो स्वाद का ज्ञान हुआ, वह भी पर द्रव्य का स्वाद नहीं है, वह तो ज्ञान का ही स्वरुप है, ये नहीं जानता है\

Explanation of: ज्ञेयमिश्रित ज्ञान के अनुभवन से विषयों की ही प्रधानता भासित होती है....
ज्ञेयमिश्रित ज्ञान:
*ज्ञेय से ज्ञान हो रहा है।
इससे बुराइ क्या है?-
*ज्ञेय पदार्थ जब तक अनुभव में नहीं आयेंगे, तब तक उस पदार्थ का ज्ञान नहीं होगा।
*ज्ञेय पदार्थ सामने आ भी जाये तो उस समय पर जो ज्ञान हो रहा है वह ज्ञेय से ज्ञान नहीं हो रहा है ।
*ज्ञेय पदार्थ ज्ञान को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं है, आत्मा स्वयं ज्ञान को उत्पन्न करने में समर्थ है, किन्तु हम ऐसा मानते है कि हमारा ज्ञान ज्ञेय के आधीन है, हमें ज्ञेय से ही जान रहे हैं । जैसे लड्डू से मुझे सुख मिल रहा है, किन्तु इनका निमित्त नैमित्तिक संबंध है।

*परन्तु वस्तुस्थिति में " ज्ञान ज्ञान से उत्पन्न होता है, ज्ञेय से नहीं"।अगर ज्ञेय से जाना जाता तो केवली भग्वान तो कैसे जानते? तो ज्ञान ज्ञान से ही उत्पन्न होता है अर्थात दर्पण की तरह ज्ञान की झलकन है, दर्पण में जो प्रतिबिम्ब दिखाइ दे रहा है वह स्वयं दर्पण का है, अर्थात दर्पण में ही उत्पन्न हुआ है। इसी प्रकार हमें जो पदार्थों का ज्ञान हो रहा है वह ज्ञान में उत्पन्न होता है, ज्ञान से ही उत्पन्न होता है ज्ञेय से नहीं। जैसे केवली भगवान का आत्मा स्वयं को जानता है और उसमें जो ज्ञेय झलकते है वैसा वैसा ज्ञेयाकार बनता है और वैसे ही सबको अर्थात स्व और पर को जानता है। ऐसा ही हमारा आत्मा है।

*किन्तु हमनें विषय को मुख्य किया ज्ञान को नहीं, तो ऐसा अनुभव होने से विषय की ही प्रधानता भासित होती है, जिससे उन विषयों के प्रति, उनकों भोगने कि इच्छायें उत्पन्न होती है, उसके लिये वह ज्ञेय के पीछे भागा जा रहा है जिससे जीव कषा्यवान होकर दुखी होता है।

*ऐसा हमें इसलिये लगता है क्योंकि हम समझते है कि हमें ज्ञेय से ज्ञान हुआ। ऐसा निमित्त नैमित्त्तिक संबंध है कि जब हम किसी पदार्थ को किसी ज्ञेय के निमित्त से जान रहे हो और उस समय ज्ञान का भी उसी रुप परिणमन हो जाये तो हमें ऐसा लगता है कि हमें ज्ञेय से ज्ञान हुआ।
अत: ज्ञेयमिश्रित ज्ञान के अनुभवन से वह दुखी हो रहा है, यह ज्ञेयमिश्रित ज्ञान की बुराई है

प्र. क्या हमें अभी सब ज्ञान( पदार्थ) झलक रहें है ?
उ. छ्द्मस्थ के सभी पदार्थ नहीं झलक रहे है, उसके एक समय पर एक एक पदार्थ ही जो focus में है वह ही झलक रहा है।

* जीव को मोह के कारण विषय ग्रहण की इच्छा पाइ जाती है, अज्ञान के कारण नहीं ।

प्र. ज्ञेय मिश्रित ज्ञान में क्या दोष है?
उ. ज्ञान को महत्ता नहीं दे पा रहे है, तो हम स्वयं को ही महत्ता नहीं दे पा रहे है, तो ये नहीं ध्यान दे पा रहे है मैं खुद आत्मा हुं और उसी से ज्ञान होता है ये नहीं जानते तो ज्ञेयों से ज्ञान होता ये जानकर बाह्य वस्तुओं के पीछे ही भागते रहते है।

page no. 47 2nd para..

* सो ये इच्छायें तो तीनों काल के सब विषयों को ग्रहण करने की पाई जाती है किन्तु सिर्फ वर्तमान में ५ इन्द्रिय विषय को जान सकता है इतनी ही शक्ति है, उसमें भी कुछ का भोग करे, उनमें से भी कुछ को याद रखे इसीलिये इच्छा कभी पूर्ण नहीं होती है तो एसी इच्छायें तो केवलज्ञान पूर्ण होने पर ही हो जहां पर संपूर्ण पदार्थों को एक साथ जानना हो । इस कारण ये ज्ञान के संबंध में जो बहुत सारी इच्छायें है वे पूर्ण नही हुइ नहीं, हो नहीं सकती इसलिये दुखी हुआ तो जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण है उसके कारण दुखी होता है
सो विषयों के मिलने से, पंचेन्द्रिय भोगों के मिलने से सुखी नहीं हुआ, इच्छाओं के मिटने से, कषायों , रागादि के मिटने के कारण सुखी हुआ ।

*मेरा जानना या नहीं जानना वह दुख का कारण नहीं है जो ज्ञानावरण , दर्शनावरण है उसके कारण दुखी हो रहा है।

प्र. किन्तु हमें तो कुछ - कुछ इच्छायें पूरी होती भासित होती है?
उ. लेकिन फिर हमें तो कुछ कुछ इच्छाये पुरी होती भासित होती है, किन्तु जो इच्छाओं को पूरि करने पर वह इच्छा पुन: उत्पन्न होती भी दिखाइ देती है तो अभी तक इच्छाओं के लिये enough नहीं हुआ है, तो उन्हे पुर्ण करने के लिये हम निरंतर प्रयास करते है किन्तु वह पुरुषार्थ सम्यक नहीं है इसलिये वें अभी तक पूर्ण नहीं हुइ हैं।


जानने योग्य बातें :
प्र. क्या ज्ञान की उत्पत्ति पराधीन है?
उ. ज्ञान पराधीन हुआ तो सुख भी पराधीन हो जायेगा, जिससे सुख भी पराधीन हो जायेगा तो सुख कैसे उत्पन्न होगा, श्रद्धान को नहीं जान सकता, चरित्र को नहीं जान सकता। इसीलिये सुख और ज्ञान साथ साथ चलते हैं अत: ज्ञान पराधीन नहीं है स्वतंत्र है ।

*
उपादान - जो स्वयं कार्यरुप परिणमित होवे
--त्रिकाली उपादान कारण : जिसमें कार्य रुप परिणमित होने कि शक्ति हमेशा पाई जाती है।
-- क्षणिक उपादान कारण : कार्य होने से पहले जो कारण चाहिये वे क्षणिक उपादान कारण है, जैसे मोक्ष के लिये व्यव्हार रत्नत्र्य तथा निश्चय रत्नत्रय क्षणिक उपादान कारण है। यह भी दो प्रकार का होता है : समर्थ और असमर्थ ।

इस प्रकार यहां मोह और ज्ञान को relate किया है और बताया है कि ये जो जीव कि जानने संबंधी इच्छाये है ये केवलज्ञान होने पर ही पूर्ण हो सकती है जिसमें तीनों लोक की त्रिकाल वस्तुओं को एक साथ जान लेता है, जिससे और कुछ जानना बाकी नहीं रह गया है तो और कुछ जानने की इच्छा भी नहीं रह गई है। सो हमें इच्छाओं के शमन के लिये सम्यक पुरुषार्थ करना चहिये।

2 comments:

Vikas said...

Good post.

Couple suggestions: There are some out-of-context topics in between the summary like upadaan-nimitt, क्या ज्ञान की उत्पत्ति पराधीन है? etc. These should be noted at the end of the summary so a blog represents the summary.

At the end, this should be raised as question and the rest of the para could be answer: "लेकिन फिर हमें तो कुछ कुछ इच्छाये पुरी होती भासित होती है, ..."

sarika said...

made the correction as u suggested. Thanks for the suggestions. I will keep in mind from now.