Monday, December 14, 2009

Re: MMP Class Notes - परिक्षा रहित आग्यानुसारी धर्मधारक व्यवहाराभासी

Class Date:12/07/09,12/09/09, 12/14/09
Chapter:7
Page#:215-218
Paragraph #: परिक्षा रहित आग्यानुसारी धर्मधारक व्यवहाराभासी
Recorded version:
Summary:

यहा जीव शास्त्र पढता हे और उसे आग्या समजकर मान लेता हे, जो लिखा हे उसकी परिक्षा कर के उस ग्यान को ग्रहण नही करता. यहा परिक्षा जिन वचन कि सत्यता की करनी हे. उनमे शंका या तर्क हे के नही वोह बात नही हे, यह परिक्षा तो खुद के श्रध्धान के लिये हे. खुद को सच्ची प्रतिति नही हुइ हे तब तक तो जो मान्यता हे वोह सिर्फ़ पक्ष मात्र से ग्रहण करी हे एस होगा. जो सत्य सिर्फ़ पक्ष पर आधारीत हो वोह तो एकान्त हुआ.

इस तरह खुद परिक्षा करे और खुद को एहसास हो कि यह बात सत्य हे तब द्रढ श्रध्धान होता हे, इस लिये खुद को युक्ति / तर्क का अवलंबन लेकर परिक्षा कर पक्षपात बुध्धि निकाल सत्य का निर्णय करने के लिये खुला मन रखना हे. सत्य का पक्षपात करना हे, ना कि पक्ष का पक्षपात.

पंडितजि कहते हे कि धर्म में दो प्रकर हे कथन होते हे, स्थुल कथन कि जिनकी प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा परिक्षा कर शकते हे और सुक्ष्म कथन जिन का निर्णय हमारे वर्तमान के मर्यादित ग्यान और अल्प बुध्धि के कारण कर शकना शक्य नही हे. यहा सुक्ष्म कथन तो आग्या से मानना हे और सिर्फ़ स्थुल का निर्णय करना हे.

जो अनेक नाना शास्त्रो में सामान्य या कोमन बातें हे उनकी परिक्षा कि बात नही हे लेकिन जो विरुध्ध बाते हे उनमे दो प्रकार हे एक तो वोह जो सही मे विरुध्ध हे और दुसरी वोह जिस मे उपर-उपर से विरुध्ध दिखे लेकिन वास्तव में हे नही, यहा नय-प्रमाण लगाकर परीक्षा करनी हे.

आधुनिक विग्यान का आधार लेकर भी परीक्षा नही करनी हे. या उसके साथ शास्त्र कि बात मेल खा रहि हे कि नहि यह कुछ परीक्षा नहि हे. इस मे तो यह मतलब हुआ कि आधुनिक विग्यान पर श्रध्धान हे और जिन मत पर श्रध्धान नही हे. यहा जिन के वचनो को इन्द्रिय गोचर ग्यान से साबित करने कि बात तो हे हि नहि. आज काल बच्चो को विग्यान के आधार से जैन मत को साबित कर के फ़िर उसे मनाया जाता हे वोह सही रास्ता नही हे. विग्यान का निशेध नही हे लेकिन सिर्फ़ उसको  हि आधार बनाना मुनासिब नही हे. विग्यान तो सिर्फ़ साधन हे , धर्म रुप साध्य का, यहा तो धर्म को हि साधन बना दिया, और इस से विग्यान कि महत्ता धर्म से ज्यादा हे वोह भी भासित होता हे. अंतरंग से परिक्षा करनी हे, उससे अंतरंग कि महिमा आती हे.

यहा कोइ प्रश्न करे कि आग्या पालन तो धर्म ध्यान का एक प्रकार हे, नि:शंका सम्यकत्व के आठ भेद में से एक हे और आग्या सम्यकत्व एक प्रकार का सम्यकत्व हे तो फ़िर आग्या मानना हि तो धर्म हे, परिक्षा क्यो करे?

उत्तर मे कहते हे कि जो आग्या सम्यकत्व और आग्या विचय धर्म ध्यान कि बात करि हे उसमे आग्या सिर्फ़ मान लेने का नाम सम्यकत्व या ध्यान नहि हे, बल्कि वितराग और सर्वग्य देव ने जो कहा हे वोह जुठ कैसे हो शकता हे इस प्रकार का परिक्षा पुर्वक का एकाग्र चिंतवन जो हे वोह धर्म ध्यान हे और इस प्रकार के विचार से जो द्रढ श्रध्धान हुआ हे वोह आग्या सम्यकत्व हे. और जो शंका कि बात करि उसमे अगर प्रश्न हे और उसका किराकरण ना करे तो शंका रहती ही हे, चली नही जाती. जब कि परिक्षा कर के निर्णय करने से तो शंका दुर होगी. इस लिये शास्त्रो मे भी कहा हे कि "प्रुच्छना स्वाध्याय का अंग हे", "आग्या प्रधानी से परिक्षा प्रधानी बढिया हे", "नय-प्रमाण से वस्तु का निर्णय करना चाहिये", और आहारक शरीरधारी मुनिराज भी शंका दुर करने के लिये उस लब्धि का उपयोग करते हे एसी बात मिलति हे.

अब कहते हे कि परिक्षा दो प्रकर कि हे. सामान्य और विशेष. सामान्य स्वरुप कि परिक्षा मे देव, गुरु शास्त्र के सामान्य लक्षणो कि प्रतिति ठीक करनी हे और विशेष में यह सामान्य स्वरुप कि समज को व्यक्तिगत देव, गुरु, शास्त्र पर अप्लाय करनी हे.

अब परिक्षा का विषय क्या हे वोह कहते हे: १> देव गुरु, धर्म/शास्त्र कि परिक्षा करनी हे. २> जिवादि सात तत्व कि परिक्षा करनी हे. ३> बन्ध और मोक्ष रुप मार्ग कि परिक्षा करनी हे.

गोम्मटसार मे भी जो बात आती हे कि "सम्यग द्रष्टि जिव गुरु के निमित्त से जुठ भी ग्रहण करे तो आग्या मानी इस लिये मिथ्यात्व का दोष नही लगता", वोह बात भी सुक्ष्म कथन कि जिस कि परिक्षा अनुमान आदि से नहि कर शकते उसकी बात हे.

अब अगली भुल बतलाते हुए कहते हे कि जब अगर जीव परिक्षा करते भी हे तो सामान्य लक्षण से परीक्षा करते हे. दया, शिल कि बाते हे इस लिए जैन धर्म सच्चा धर्म हे या फ़िर पुजा आदि कार्यो से कषाय मंद होती हे इस कारण, चमत्कार आदि के कारण, या इष्ट वस्तु कि प्राप्ति होती हे उस कारण जैन धर्म सच्चा धर्म हे एसी परिक्षा करते हे.  यहा लक्षण मे भुल हे. पहली समस्या यह हे कि अन्य जगह चमत्कार दिखे, या शिल, दया या पुजा रुप व्यवहार धर्म कि क्रिया दिखे तो, वहा से इष्ट कि प्राप्ति हो तो वोह अन्य धर्म अंगिकार कर ले. तो यहा सच्चा श्रध्धान कहा हुआ? दुसरी समस्या यह हे कि जो लक्षण होता हे वह तो अति व्याप्ति , अव्याप्ति, और असंभव, इन तिन दोष से रहित होना चाहिये. यहा सामान्य नैतिकता, सदाचार कि बात हर धर्म करता हे इस लिये अतिव्याप्ति का दोष लगता हे. इस तरह स्थुल बातो से परिक्षा नही हो शकती.

तो जिनमत के कौन से लक्षण से परीक्शा करे एस कोइ पुछे तो कहते हे कि सम्यग दर्शन, ग्यान, चारित्र मोक्षमार्ग हे यह जिनमत का सच्चा लक्षण हे. पहले जो देवादि और जिवादि रुप परिक्षा के विषय कि बात कही उन्ही विषयो को जानना और मानना यह स. ग्यान और स. दर्शन हे , और उससे रागादिक मिटने वोह हुआ स. चारित्र. यह निरुपण जिनमत में हे एसा अन्य नही मिलेगा.    

अन्य कई सारे जिव जिनमत संगति से या अन्य महान पुरुशो को देख या देखा देखी मे ग्रहण करते हे. यहा कहते हे कि उन्का जिन मत ग्रहण करके भला ही हुआ हे लिकेन अब उनको आगे बढना चाहिये और खुद विचार रुप पुरुषार्थ कर के जैन धर्म के सच्चे और मुल रहस्यो को पहचान कर जैन धर्म का मर्म समजना चाहिये. इस तरह से तत्वविचार करने से वितराग-विग्यान रुप जैन धर्म कि महिमा समज में आती हे.

Friday, December 4, 2009

व्यवहाराभासी मिथ्यादृष्टी

Class Date: 12/1/09
Chapter: 7
Page#: 213
Paragraph #:3
Recorded version: http://cid-52d749a4f28f4c05.skydrive.live.com/self.aspx/Public/MMP%20class/Chapter%207/12-01-2009%5E_Chap7%5E_Vyavharabhasi%5E31.WAV
Summary:



निश्चयाभासी में जो भी मिथ्या मान्यताये है उनका निराकरण प्रवचनसार की एक गाथा द्वारा किया जा सकता है:
"सुविदितपयत्थसुत्तो संजमतव संजुदो विगादरागो
समणो सम्सुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगोत्ति "
अर्थात -
जिन्होंने पदार्थों को और सूत्रों को भली भांति जा लिया है , जो संयम और तपयुक्त है, जो वीतराग अर्थात राग द्वेष से रहित है और जिन्हें सुख दुःख सामान है, ऐसे श्रमण को शुद्धोपयोगी कहा गया है






व्यवहाराभासी मिथ्यादृष्टि :
इसमें व्यव्हाराभासी मिथ्यात्व में गृहीत मान्यताओं के साथ अग्रुहित मिथ्यात्व मान्यताओं का भी वर्णन मिलेगा
यहाँ जिन्होंने व्यवहार को तो धारण किया है परन्तु वासव मैं व्यवहार को धारण नहीं किया है उसका वर्णन किया है, इसमें भूल के सम्बन्ध में जो भूल करते हैं वो बताया है यहाँ पर किसी क्रिया का निषेध करना उद्देश्य नहीं है अपितु शुद्धोपयोग का स्थापन करना उद्देश्य है

* निश्चय व्रत : शुद्धोपयोग में परिणमन
* व्यवहार व्रत : शुभोपयोग में परिणमन
* व्यवहार धर्म : शुभोपयोग के समय व्रत रूप मन, वचन, काय की प्रवृत्ति
* जहाँ साधन - भक्ति, व्रत, ताप और साध्य - मोक्ष में अंतर है (भिन्न साधानसाध्य भाव ) उसका मुख्यता से उपदेश है, उन्ही साधन को अंगीकार करके आचरण करके उसे ही सर्वधर्म के अंग मान लेने से सम्यग्दर्शन नहीं होता बल्कि मिथ्यव्भव ही पुष्ट होता है
*यहाँ जो पूजा तथा पुजादी में जो भगवान के लिए राग होता उत्पन्न होता है उसका निषेध नहीं किया है बल्कि पुजादी करने से ही मुझे मोक्ष मिल जायेगा इस मान्यता का निषेध किया है
* यहाँ यह जानकर की इनसे मोक्ष नहीं होता जानकर पाप में प्रवृत्ति मत करने लग जाना अर्थात यहाँ इसका पाप प्रवृत्ति की अपेक्षा निषेध नहीं है बल्कि यहाँ जो जीव व्यव्हारादी प्रवृत्ति में ही संतुष्ट हो जाते है उन जीवो को मोक्षमार्ग में लगाने के लिए निरूपण किया है
* अब जो कथन करते है उसे सुनकर शुभप्रव्रत्ति को छोड़ अशुभ प्रवृत्ति में प्रवर्तन करोगे तो तुम्हारा ही बुरा होगा और यदि यथार्थ श्रद्धान कर मोक्षमार्ग में लगोगे तो तुम्हारा भला होगा
सार : यहाँ पर व्यवहराभासी की मिथ्या मान्यता की सिर्फ व्यव्हार की क्रियाओं मात्र से मोक्ष मिल जायेगा, वही धर्म है उसे सही कराकर उसे शुद्धोपयोग में स्थापित करना ही उद्देश्य है