Thursday, July 31, 2008

Class Notes - 30th July,2008 - चरणानुयोग का प्रयोजन

चरणानुयोग का प्रयोजन

चरणानुयोग में धर्मं के साधन बताकर जिव को धर्मं में लगाने की बात होती है. जिस में पाप कार्यो को छोड़कर धर्मं कार्य में लगने का उपदेश दिया गया है.

चरणानुयोग से लाभ
  • चरणानुयोग के साधन से कषाय मंद होती है
  • सुगति में सुख प्राप्त होता है
  • जिनमत का निमित्त बना रहेता है
  • तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति होनी हो तो हो जाती है


चरणानुयोग का अभ्यास कराने से जिव को अपने आचरण के अनुसार वीतरागता भासित होती है. एकदेश - सर्वदेश वीतरागता होने पर, श्रावक दशा - मुनिदशा अंगीकार करते है.

जितने अंश में वीतरागता प्रगत हुई हो वह कार्यकारी है,जितने अंश में राग हो, वह हेय है

संपूर्ण वीतरागता ही परम धर्मं है

वीतरागता - साध्य है और चरणानुयोग - साधन है. मतलब - चरणानुयोग के साधन द्वारा वीतरागता प्राप्त की जाती है

द्रव्यानुयोग का प्रयोजन


द्रव्यानुयोग में द्रव्य व तत्वों की बात बताकर जिव को धर्मं में लगाते है.

द्रव्य - गुण - पर्याय के समूह को द्रव्य कहते है

तत्त्व - वस्तु के स्वाभाव को तत्त्व कहते है

द्रव्य व्यापक स्वरुप में है और तत्त्व द्रव्य का अंश है

द्रव्य - जानने के लिए प्रयोजन रूप है. समस्त द्रव्य ज्ञेय है

तत्त्व - मोक्ष जाने में प्रयोजन रूप है.

जो जिव द्रव्यों - तत्वों को नही जानते, स्व - पर का भेद नही जानते उनको हेतु - द्रष्टान्त - युक्ति व प्रमाण - नय द्वारा समजाते है.

द्रव्यानुयोग के लाभ

1. जिनको तत्वज्ञान की प्राप्ति नही हुई
  • द्रव्यानुयोग के अभ्यास के द्वारा अनादि अज्ञान्ता दूर होती है
  • अन्यामत कल्पित तत्त्व जूठे भासित होते है
  • जिनमत पर श्रधा होती है
  • तत्वज्ञान की प्राप्ति होती है

2.जिनको तत्वज्ञान की प्राप्ति हुई हो
  • द्रव्यानुयोग के अभ्यास द्वारा श्रद्धा के अनुसार कथन भासित होते है
  • अभ्यास करने से तत्वज्ञान रहेता है - न करे तो भूल जाता है
  • संक्षेप में तत्वज्ञान हुआ हो तो नाना युक्ति - हेतु - द्रष्टान्त द्वारा स्पष्ट हो जाते है
  • राग घटने से मोक्ष जल्दी होता है

Monday, July 28, 2008

Class Notes - July 28th, 2008 - करणानुयोग का प्रयोजन

Class Notes - July 28th, 2008 - करणानुयोग का प्रयोजन

* धर्म मे लगाना - इस का क्या मतलब?
-> करणानुयोग और अन्य अनुयोग पढ़ने के पीछे ख्याति, आजीविका, ज्ञान क मान, अन्य जीवो को पढ़ा के उनका उद्धार करना आदि प्रयोजन ग़लत हे। इन अनुयोगों की पढाई का एक मात्र उदेश्श धर्म मे उपयोग स्थिर करना हे।

* करणानुयोग का विषय क्या हे?
-> १ : गुणस्थानक / मार्गणा , २ : त्रिलोक की रचना, नरक-स्वर्ग आदि के ठिकाने , ३ : कर्मो के कारण, अवस्था, फल किस किस के, केसे केसे

* मार्गणा किसे कहते हे?
-> जीवो के गति, इन्द्रिय, जाती आदि से खोजने का तरीका, जीवो का classification करना।

* लाभ १ : पाप से विमुखता
* लाभ २ : अगर उपयोग एकार्ग हो जाये तो तत्काल ही सुभ उपयोग रूप धर्म उत्पन्न होता हे। करणानुयोग को गहराई से विचार ने के लिए उपयोग की स्थिरता चाहिए जो की पाप प्रवृति के होने पर, कषाय के होने पर नही होगी और तब सिर्फ़ ऊपर ऊपर से वांचन होगा।
* लाभ ३ : भेद विज्ञान रूप तत्त्व ज्ञान की शीघ्र ही प्राप्ति होती हे ।
* लाभ ४ : जिन मत की सूक्ष्मता और यथार्थता जानकर उसके प्रति आदर, कृतज्ञता, बहुमान का भाव और दृढ श्रध्धान होता हे ।
* लाभ ५ : केवल ज्ञान से जो प्रत्यक्ष दिखाई देता हे वो ही इस श्रुत ज्ञान के द्वारा अप्रत्यक्ष भासित होता हे।

*तत्वज्ञानी के लाभ १ : जेसे प्रथमानुयोग तत्वज्ञानी को द्रष्टान्त रूप लगता हे वेसे करणानुयोग विशेषण रूप लगेगा।
* तत्वज्ञानी के लाभ २: तत्वज्ञान निर्मल होता हे। निर्मलता से वोह सहज ही विशेष धर्मात्मा बनेगा ।

* करण + अनुयोग = गणित कार्य के कारण रूप सूत्र का अधिकार।



Please look at the comments for other "labh" that we discussed in the class.

Thursday, July 24, 2008

क्लास २३ जुलाई

प्रथमानुयोग का प्रयोजन:
१. प्रथमानुयोग में सन्सार की विचित्रता, पुण्य पाप का फ़ल ऐवं मह्न्त पुरुषों की प्रवृति बताकर तुच्छ बुद्धि जीवो को धर्म के सन्मुख करते है ।
२. लौकिक प्रवृत्तिरुप निरुपण होने से तत्व समझ मे आ जाता है ।
३. प्रथमानुयोग का पढ्ना तत्व ज्ञानी जीवो को उदाहरण रुप भसित होता है।४. सुभटो के लिये उत्साह जागृत होता है।

करणानुयोग का प्रयोजन
१. जीवों के व कर्मों के विशेष तथा त्रिलोकादिककी रचना निरुपित करके जीवो को धर्म में लगाया है।
२. त्रिलोकादिककी रचना को जानने से जीव को पता चलाता है कि लोक का नाश नहीं होगा ,जीव क नाश नहीं होगा, इससे उसका भय निकल जाता है।
३. इस अनुयोग मे विस्तार से चर्चा होने पर पता चलता है कि धर्म सभी जगह है ।
४. जीव सभी जगह घुम चुका है तथा अनंत काल से घुम रहा है।
५. मान कषाय कम होती है।
६. इस जीव को कहाँ जाना उसका निर्णय कर सकता है।
७. ज्ञान प्रगट नहीं है तो उसे प्रगट करने क पुरुषर्थ करना चाहिये।
८. दुनिया मे सारे पर्वत पहाड,नदियाँ देख चुका है । और क्या देखना चाहता है ? जो देखना है वह ज्ञान मे अपने आप भासित होना चहिए ऎसा कार्य करना
चाहिये ।


वीरेन्द्र जैन

Wednesday, July 23, 2008

Tuesday 07/22/08 - Chapter 2 Introduction

On Tuesday we discussed about नित्य निगोद और इतर निगोद of chapter 2. We talked about how long The time maximum time Jiv can stay in इतर निगोद (for ढाई पुदगल परावर्तन). We also talked about that Jiv can live maximum little more than 2 Thousand Sagar in त्रस पर्याय. From this we learnt that it is really difficult to can get Human birth.

Then we started 8th chapter – Updesh ka Sawroop. In that we discussed about 4 Anuyogs – Pathamanuyog, Karuanuyog, Charananuyog and Dwayanuyog.

Pathamanuyog – Talks about great persons’ life, fruit of punya & Papa and Sansar’s unusual thing – like person in one birth is Chakavatri and next birth he might be in 7th Narak.
Karuanuyog – Talks about Gunashathan, Trilok and Karma.
Charananuyog – Talks about Gruhasath and Muni’s Acharan.
Dwayanuyog – Talks about 6 Dharvya, Sav and Parv Djarvya’s Bhed.

Posted by - Sanjay Shah.

Tuesday, July 1, 2008

नित्य निगोद और इत्तर निगोद June 30 Class Notes

नित्य निगोद और इतर निगोद ( मोक्ष मार्ग प्रकाशक ) प्रष्ट ३१
जीव जहाँ हमेशा से रह रहा है और पहली बार जीव नित्य निगोद से निकल कर आता है इत्तर निगोद जब जीव नित्य से निकल कर दूसरी पर्याय से वापस निगोद में जाता है तो वह इत्तर निगोद कहलाता है
हर जीव नित्य निगोद से ही निकल कर आता है चार गति मैं से तिर्यंच मैं निगोद आता है इस मैं से भी एक इंद्रिय का धारक निगोदिया जीव है उस मैं भी वनस्पति कायक होता है वनस्पति मैं भी दो प्रकार है - साधारण और प्रत्येक साधारण वनस्पति मैं एक शरीर और अनेक स्वामी वह नित्य निगोद कहलाता है प्रत्येक वनस्पति दो प्रकार के है - प्रतिष्टित और अप्रतिष्टित एक इन्द्रिय जीव है जो नित्य निगोद मैं ही भ्रमण करते हैं , वे नित्य निगोद जीव सदकाल वहीं रहते है ६०८ जीव ६ महीने ८ समय मैं वहां से निकलते हैं इतने ही जीव वहाँ जाते भी हैं जो एक इन्द्रिय जीव नित्य निगोद से निकलते हैं वे एक इन्द्रिय , विकलत्र्य मैं जाते हैं ये सीधे नरक और देव मैं नहीं जाते हैं वह मनुष्य और तिर्यंच मैं जाता है इत्तर निगोद को चतुर्गति निगोद भी कहते हैं
जीव इत्तर निगोद से निकल कर फ़िर अन्य पर्याय मैं भ्रमण करते हैं असंख्यात कल्प काल तक भ्रमण कर सकता है एक कल्प २० कोडा कोडी सागर का होता है एक इन्द्रिय से त्रस पर्याय का काल करीब दो हज़ार सागर है इत्तर निगोद मैं ढाई पुदगल परावर्तन तक रहता है - जो की अनंत काल है स्थावर मैं फ़िर कल्प काल तक
ऐसा परिवर्तन चलता रहता है कभी दो इन्द्रिय मैं चला जावे तो असंख्यात पुदगल परावर्तन है निगोद से त्रस पर्याय मैं जाना काक तालिक नयाय वर्त जैसा है - दुर्लभ है एक कव्वा भूखा हो और कोई ताली बजाए, फिर कोई वृक्ष से फल उसके मुंह मैं आ जावे वो काक तालिक न्याय वर्त है अधिकाँश समय एक इन्द्रिय जीव मैं जाता है इस प्रकार कर्म बंधन का रोग जीव को अनादी काल से चल रहा है