इस से पहले हम ने चार प्रकार के घाती कर्मो के उदयजन्य अवस्था के लक्षण देखे। अब अघाती कर्म की बात करते हे।
प्रश्न: अघाती कर्म मे क्षायिक, उपशामिक, क्षयोपशामिक और उदय रूप चार अवश्थाओ मे से कोन सी अवस्था पाई जायेगी?
-> सर्वघाती और देशघाती तो घटी कर्म की प्रकृतिया हे , अघाती कर्म मे एसा भेद न होने से क्षयोपषम और उपशम नही होगा। अघाती कर्म पर द्रव्य का संयोग करते हे इस लिए उस मे क्षायिक भाव भी नही होंगे। सिर्फ़ उदय रूप अवस्था पाई जायेगी।
प्रश्न: वेदनीय कर्म किसी कहेंगे?
-> जो इन्द्रिय सुख/दुःख रूप वेदन/अनुभव करवाता हे वोह हे वेदनीय कर्म।
प्रश्न: वेदनीय कर्म के उदय से क्या होगा?
-> वेदनीय कर्म का उदय शरीर मे बाह्य सुख-दुःख के कारन को उत्पन्न करता हे।
-> इन बाह्य कारन के तीन भेद हे :
१> एक वोह जिन के निमित्त से शरीर की ही सुख-दुःख रूप अवस्था होती हे।
२> दुसरे शरीर की सुख-दुःख रूप अवस्था मे निमित्तभुत बाह्य कारन होते हे ।
३> तीसरे बाह्य वस्तुओ के ही कारन होते हे ।
प्रश्न: वेदनीय कर्म के भेद कोन से हे?
-> शाता वेदनीय और अशाता वेदनीय कर्म ये दो भेद हे वेदनीय कर्म के।
-> यहाँ विशेष ये जानो की रति और अरति कषाय के निमित्त से एक ही पदार्थ का संयोग कभी शाता वेदनीय या कभी अशाता वेदनीय कर्म के रूप मे होगा।
प्रश्न: हमें सुख-दुःख केसे होता हे? वेदनीय कर्म की उसमे क्या भूमिका हे?
-> वेदनीय कर्म तो सिर्फ़ बाह्य निमित्त का संयोग करवाता हे। कारणों का मिलना वेदनीय के उदय से होने पर भी उसमे सुख-दुःख मानना मोह के उदय से होता हे।
-> कारन स्वयं सुख-दुःख उत्पन्न नही करता, वोह तो निमित्त मात्र हे, इस लिए उसे तो असमर्थ कारन ही कहेंगे।
-> मोह के उदय से जिव को बाह्य संयोग मिले या कभी न मिले तो उन बाह्य संयोगो का विचारो मे मन से आश्रय लेकर संकल्प करता रहता हे। इसी संकल्प से मोहि जिव को सुख-दुःख होता हे।
-> इस लिए मोह सुख-दुःख का मूल बलवान समर्थ कारन हे।
* few points that we came across during the class and on which we should think over when we get time:
-> क्या हम मानते हे की सुख-दुःख बाह्य सयोग से नही लेकिन अपने मोह के कारण हे।
-> क्या हम समजते हे की सुख पाना और दुःख हटाना ये तो व्यर्थ की बात हे। हमें तो मोह से युक्त संकल्प को हटाने का पुरुषार्थ करना हे।
-> क्या हमें इन लक्षणों के जानने के बाद संसार बुरा / रोग रूप लग रहा हे ?
-> हमें धार्मिक क्षेत्र मे सम्यक्त्व चाहिए तो क्या हम सम्यक्त्वी जीवो के प्रति, सम्यक्त्व के साधनों के प्रति सही भाव रखते हे? क्या हम उनकी अनुमोदन करते हे? या उसमे विघ्न रूप परिणाम रखते हे?
-> क्या हम स्वीकार करते हे की हमें अनादी संसार का रोग हे? और रोग मुक्त अवस्था हे की जो हम प्राप्त कर सकते हे।
Tuesday, November 25, 2008
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1 comment:
बहुत बढिया notes. अंत में जो विचार के बिन्दु रखे है, वे बारंबार विचारणीय है और कर्म-जीव के संबंध मे हमारि समझ को निर्मल करने मे समर्थ है.
धन्यवाद!
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