-->मॊहनीय कर्म के २ भेद :-
१) दर्शन मोहनीय--> के उदय से मिथ्यात्व
२) चारित्र मोहनीय--> के उदय से कषाय
प्र० मिथ्यात्व किसे कहते है?
उ० जीव के अतत्वश्रद्धानरूप परिणमन को मिथ्यात्व कहते है अर्थात विपरीत या उलटी मान्यता ही मिथ्यात्व है। जैसे देव, शास्त्र गुरु के सम्बन्ध में उलटी मान्यता या सात तत्वों, छः द्रव्यों के सम्बन्ध में उलटा जानना आदि।
मिथ्यात्व अवस्था में जीव स्व-पर का भेद नहीं कर पाता। जैसे स्व अर्थात ज्ञानादिक गुण जो कि स्वयं आत्मा के हैं और आत्मा अमूर्तिक है। और पर अर्थात स्व की आत्मा को छोडकर जितने भी पदार्थ हैं सब पर हैं। तो मिथ्यात्वी जीव शरीर आदि पुद्गल जो पर हैं उनको अपना मानता है उनमें अहंबुद्धि धारण करता है कि ये शरीर मेरा है, मैं गोरा हूं, मैं लडका हूं, मैं वकील हूं आदि। मनुष्य पर्याय में रहे तो उसी पर्याय को अपनी मानता है और तिर्यंच पर्याय को बुरा मानता है और तिर्यंच पर्याय में तिर्यंच पर्याय को अपना मानता है।
स्वभाव परभाव का विवेक नहीं कर पाता। जैसे ज्ञान, दर्शन, चैतन्य जीव के स्वभाव हैं अपने गुण हैं। और राग द्वेष आदि कर्मों के निमित्त से औपाधिक भाव हैं अर्थात विभाव भाव हैं। तो मिथ्यात्वी राग द्वेष आदि विभाव भावों को अपना मानता है। वर्णादिक अर्थात शरीर के गुण जैसे गोरा-काला, बडा छॊटा, मोटा-पतला, जवानी-बुढापा, ठंडा गर्म लगना, ये सब पुद्गल परमाणुओं का आना जाना होता रहता है जिससे ये सब अवस्था होती हैं उनको उस रूप न जानकर सब को अपना स्वरूप मानता है। अन्य बाह्य पदार्थ जैसे धन-कुटुम्ब आदि को अपना मानता है जब कि ये प्रत्यक्ष भिन्न दिखाई देते हैं परन्तु उन सब को मानता है कि ये मेरे हैं।
इस प्रकार ऊपर लिखी सब अवस्था अगृहीत मिथ्यात्व में आती हैं।
मिथ्यात्व के २ भेद:-
१) अगृहीत मिथ्यात्व--> अनादिकालीन विपरीत मान्यता
२) गृहीत मिथ्यात्व--> जो भी वर्तमान पर्याय में नया सुनकर या उपदेश द्वारा विपरीत ग्रहण किया है। जैसे किसी उपदेश से कल्पित रागी द्वेषी देवताओं को कल्याणकारी मान लेना।
--> गृहीत मिथ्यात्व संज्ञी पंचेन्द्रिय को पाया जाता है उसमें भी मुख्यतया मनुष्य पर्याय में पाया जाता है।
प्र० दोनों मिथ्यात्व में से पहले कौन सा मिथ्यात्व जायेगा?
उ० पहले गृहीत मिथ्यात्व जाता है क्योंकि नवीन अर्जित गृहीत मिथ्यात्व के त्याग के बिना अगृहीत मिथ्यात्व नहीं छूटता। गृहीत मिथ्यात्व का त्याग करना मनुष्य के अपने आधीन है क्योंकि उसने उसे अपने अज्ञान भाव से ग्रहण किया है अतः अपने ज्ञान भाव से छोड भी सकता है।
दर्शन मोहनीय का जहां तीव्र उदय होता है अर्थात तीव्र अनुभाग सहित उदय होता है वहां बहुत विपरीत श्रद्धान करता है, और जहां कम उदय या कम अनुभाग सहित उदय होता है वहां थोडा विपरीत श्रद्धान करता है।
दर्शन मोहनीय के सर्व घाति स्पर्धक ४ प्रकार के हैं:-
१) शैल= पाषाण(पत्थर)
२) अस्थि= हड्डी
३) दारु= लकडी
४) लता= बेल
शैल और अस्थि १-५ इंद्रिय असैनी पंचेन्द्रिय के होते हैं अर्थात उसमें इतना तीव्र उदय होता है कि वो सुन भी नहीं पा रहा, उसको कुछ सुनने को भी नहीं मिल रहा, सुनने की योग्यता ही नहीं है, उपदेश की अपात्रता पर्याय अपेक्षा है।
दारु संज्ञी पंचेन्द्रिय को होते हैं अर्थात उस जीव को सुनने की योग्यता तो है परन्तु सुन नहीं पा रहा, उसको उपदेश की अपात्रता उपदेश सुनने की अपेक्षा है।
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2 comments:
मिथ्यात्त्व के उदय की अवस्था का सहि वर्णन किया. धन्यवाद!
ऐसी मिथ्यात्त्व रुप अवस्था का विचार करके अपनी ये अवस्था हो रहि है कि नहि, इसक बारंबार विचार बहुत जरुरी है. अपनी रोग रुप अवस्था का निर्णय हो जाने के बाद उस रोग से छुटना आसान हो जाता है.
अनेक प्रकार के तीव्र-मंद उदय में अपने स्वयं के उदय कौन सी श्रेणी के हो रहे है, ऐसा जानकर सहि इलाज कर सकते है. इसलिये ऐसा स्वरुप जा्नकर समीचीन विचार करना.
This may help in realising the mithyatva avastha and its symptoms. If possible, one should memorize and think about it.
सचित्त और अचित्त एवं मिश्र सब पर द्र्व्य ये |
है मेरे ये, मै इनका हू, ये मै हू, या मै हू वे ही ॥
हम थे सभी के, या हमारे थे सभी गत काल मे |
हम होयेंगे उनके, हमारे वे अनागत काल मे ॥
ऐसी असंभव कल्पनाये मूढ जन नित ही करे
भूतार्थ जाननहार जन ऐसे विकल्प नहि करे ॥
These are from Samaysaar, Rangbhumi adhikaar २०-२२.
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