जय जिनेन्द्र
अधिकार २ :: चरित्र मोह रुप जीव कि अवस्था
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--> ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म पर हमारा ज्ञान दर्शन कितना पराधिन है यह हमने देखा ,इससे यह बात कि सिध्दि होती है कि ज्ञानावरण और दर्शनावरण से यह जीव बंधा हुआ है जिसके कारण उसका ज्ञान दर्शन प्रगट नही हो पा रहा है।
--> मोहनीय कर्म : २ भेद है।
१) दर्शन मोहनीय: इससे मिथ्यात्व होता है। यह मोहनीय कर्म हमारे कमजोर बनने का सबसे बडा कारण है,इस बात कि समझ ( विश्वास ) हो जाना चहिये। यही हमारा सबसे बडा शत्रु है इसे हमे पहचानना होगा तभी हम इससे बचने का उपाय समझ और कर पायेंगे और सही पथ पर आगे बढ पयेंगे।
२) चारित्र मोहनीय: कषाय की उत्पत्ती होती है, जिसके कारण हमारे कर्म बन्धन होता है और सन्सार चक्र चलता रहेगा।
· दर्शन मोहनीय जब तक है तब तक कषाय रहेगी ही रहेगी।
· कभी दर्शन मोहनीय के बिना कषाय हो भी तो वह बहुत मंद होगी और उसका बन्ध भी मंद होगा।
· मिथ्यात्व सबसे बडा करण है कषाय का।
चार कषाय होती है :क्रोध, मान, माया, लोभ।
१. क्रोध :
प्र. क्रोध क्या है?
उत्तर : अंतर मे किसी भी प्रकार का उल्टा परिणमन वह क्रोध है।
जो प्रगट रुप से दिखाई ना दे परंतु अंतर मे आकुलता होती हो वह भी क्रोध है।
प्र. क्रोध आने के क्या कारण है?
उत्तर: १.जब हमारे अनुसार बात न हो अन्य परिणमन हो तो क्रोध आता है।
२.किसीने हमे कुछ बोल दिया और हमे बुरा लग गया पर उसे प्रगट भले ही ना किया हो तो वह जो बुरा लगा तब क्रोध आया जानना ।
३. कोइ हमे अच्छा नही लगता और अगर हम यह चाहे की उसका बुरा हो जाये तो जहा किसिका बुरा चाहा वहाँ क्रोध आया जानना।
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तथा आप स्वयं ---------------- बुरा चाह्ता है।
यहाँ बताया की क्रोध आता है तब सामने वाले सचेतन या अचेतन पदार्थ ने जो कुछ किया वह हमे गलत लगता है और तब क्रोध के कारण उस किये हुए कार्य या परिणमन को गलत कराके उस कार्य या परिणमन का बुरा चाह्ता है।
क्रोध के कारण कोइ किसिका कितना ही बुरा चाहे बुरा होना, तो भवितव्य (कर्म और बाह्य साधन ) के आधिन है।
प्र. पदार्थ मे इष्ट्पना या अनिष्ट्पना मानना इसका मतलब यह है कि पदार्थ इष्ट या अनिष्ट है?
उत्तर: पदार्थ कभी इष्ट या अनिष्ट नही होते, जीव अपने राग द्वेष रुप विभाव भावों से उन पदार्थो मे इष्ट्पना या अनिष्ट्पना मानता है ।
जब राग होता है तो पदार्थ इष्ट भासित होते है और जब द्वेष होता है तब अनिष्ट भसित होते है ।
उदा: कोइ अपने घर का सदस्य एक ही काम प्रतीदिन करता हो परंतु वह काम कभी राग या अच्छा लगने से इष्ट भसित होते है तो कभी वही कार्य द्वेष भाव से या अच्छा न लगने से अनिष्ट भासित होते है।
** द्वेष से क्रोध होता है:
जैसे पहले कहा कि दर्शन मोहनीय जब तक है तब तक कषाय रहेगी ही रहेगी, द्वेष तो कषाय रुप है. लेकिन मिथ्यात्व अवस्था में द्वेष शीघ्रता हो जाता है जिससे क्रोध कषाय होती है।
२. मान कषाय : मान का उदय होने पर पदार्थ को अनिष्ट मानकर उसे निचा दिखाना चाहता है और स्वयं ऊँचा होना चाह्ता है।
a. अपने आप को लोक मे ऊँचा दिखाने के लिए बहुत श्रंगारादिक करता है धन खर्च करता है ,एसा सोचता है कि अगर मैं एसा नही करुंगा तो लोग समझेंगे कि मेरे पास कुछ नही है तब वह किसी भी तरह अपने मान के लिए स्वय़ं सुंदर दिखे इसलिए श्रंगारादि करता है और धन खर्च करता है।
b. कोइ अगर ऊँचा कार्य करता हो तो वह उसे सुहाता नही और किसी भी तरह वह उसे निचा दिखाने का प्रयास करता है जिससे कि स्वयं ऊँचा सिध्द हो ।
Eg: अगर कोइ १००० रु का दान देता है तो या तो वह स्वयं उससे ज्यादा दान देगा और कहेगा कि देखो मेरे पास उससे कम धन होकर भी मेने उससे ज्यादा दान दिया एसा कहकर स्वय़ं को ऊँचा और उस व्यक्ति को निचा दिखाता है।
या फिर कह देगा कि इसमें कौनसा बडा काम किया इसके पास धन कि कोइ कमी थोडे ही है ।
c. स्वयं कभी निचा कार्य करेगा तो उसे ऊँचा दिखायेगा…
Eg: tax की चोरी करेगा और कहेगा की देखो मेने कितनी चतुराई से tax का गमन किया कि किसी को पता भी नही चला और स्वयं को ऊँचा दिखाने का प्रयास करेगा।
लेकिन यहाँ भी वही सिध्दांत् है कि प्रसिध्दि या महंतता प्राप्त करना भवितव्य आधिन है।
Ø “क्या कहेंगे लोग यही सबसे बडा रोग “ जो मान का ही पोषण करती है।
Ø “छोटे बडे का भाव ही मान का आधार”
प्र. क्रोध और मान दोनो ही पदार्थ मे अनिष्टपना करते है तो दोनो मे अंतर क्या है?
उत्तर: क्रोध मे जीव पदर्थ मे अनिष्ट्पना मानकर उसे नष्ट करना चाहता है,मान मे जीव पदार्थ में अनिष्ट्पना मानकर उसे निचा दिखाकर स्वयं को ऊँचा दिखाना चाहता है।
प्र. मान और क्रोध दोनो एक साथ भी हो सकते है?
उत्तर : एक समय मे एक ही कषाय का उदय होता है। एक कषाय का उदय कमसे कम एक समय और ज्यादा से ज्यादा अंतरमुहुर्त होता है। every कषाय leads each other.
३. माया कषाय : माया का अर्थ होता है छल करना, या मन-वचन-काया का समान न होना (मन मे कुछ,वचन मे कुछ और दिखाना या करना कुछ और ही ), ठ्गना- लोगो को ठगने के अभिप्राय से कार्य करना । अपना अभिप्राय प्रगट ना हो इसलिए अच्छापन दिखाना, अलग२ कार्य करना।
-> क्रोध और मान यह द्वेष रुप है इसलिए उसमें पदर्थोंमे अनिष्टपना होता है।
-> पदार्थों मे इष्टपना होता है, जिसके कारण मायाचार करता है, इसलिये माया राग कषाय है.
a. माया में जीव स्वयं को दु:खी दिखाता है ताकी वह दुसरो से सहानुभुती पा सके और उसके आधार पर लोगो को ठग सके। eg. रावण को सीताजी को पाना था ये तो उसका राग हुआ और उसके कारण उसने छ्ल (माया)से अपना स्वांग बदल कर सीताजी की सहानुभुती प्राप्त कर ली और फिर उनका हरण कर लिया।
b. माया मे स्वयं को ऊँचा दिखाकर भी छल करता है – भले हि स्वयं के पास उतना ना हो फिर भी किसी तरह स्वयं को ऊँचा दिखाएगा ताकी लोग उसे पुछे उस और आकर्शित हो विश्वास कर कभी कोइ धन या किमती वस्तु उसे दे दे तो वह उसे ठगले।
c. माया मे इष्ट की सिद्धी करना चाहता है जिससे वह स्वयं का अच्छा करना चाहता है वहाँ जिससे मायाचार कर रहा है उसका भले ही बुरा हो तो हो उससे उसका कोइ संबंध नहीं।
d. इष्ट की सिद्धी के लिए कुछ भी कर सकता है, किसी भी तरीके को अपना सकता है।
e. मानका पोषण करने के लिए भी जीव मायाचारी करता है क्योंकी यहाँ उसका मान में राग है।
४. लोभ कषाय : पदार्थ को इष्ट मानकर उसे प्राप्त करने की चाह रखना वह लोभ है ।
लोभ भी राग रुप है।
प्र: माया और लोभ में क्या अंतर है?
उत्तर: माया इष्ट्पने से पदार्थ को किसी भी तरह चाहे ठ्गकर हि क्यो न हो उसे पाना चाह्ती है।
लोभ मे जीव को उस पदार्थ मे इष्ट्पना तो होता है परंतु वह उसे राग वश सिर्फ प्राप्त करना चाहता है उसके लिये प्रयास करता है। eg: lobh to earn money
* Lobh in one way it is good as if it is done for our self our soul and it is bad if we do it in other things!!!!
Actually it is good only for the newcomers on mokshmaarg.
लोभ यह सर्वथा बुरा ही है परंतु अगर हम यह कहे की धर्म मे किसी जीव की शुरुवात है और वह अपने आत्मा के प्रति या धर्म के प्रति लोभ करे तो ठिक है वह प्रशस्त लोभ कहलाएगा और जब जीव ७ वें गुणस्थान मे पहुँच जाता है तब वहा यह प्रशस्त लोभ भी बुरा होगा।
अन्य वस्तु या पदर्थो मे लोभ करना वह अप्रशस्त लोभ है
पाँचो पाप कषाय के कारण ही होते है ।
कषाय से पाप रुप कार्य होते है ।
Trupti Jain
3 comments:
Very good explanation..... :)
Very well written. Thanks.
Couple corrections:
...तो यहा कहा की द्वेष से क्रोध होता है तब यहा द्वेष वह तो है मिथ्यात्व और क्रोध जो है वह है कषाय ।...
Correction:द्वेष अपने आप में मिथ्यात्व नहि है. द्वेष तो कषाय रुप है. लेकिन मिथ्यात्व अवस्था में द्वेष शीघ्रता हो जाता है.
माया राग रुप है इसलिए इसमें पदर्थो में इष्ट्पना होता है
Correction:पदार्थों मे इष्टपना होता है, जिसके कारण मायाचार करता है, इसलिये माया राग कषाय है.
jai jinendra i have done corrections so please check it vikasji whether the statments r correct now.
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