Wednesday, November 26, 2008

25/11/2008, Tuesday, page 41,42,43

revision :--

प्र० वीर्यान्तराय कर्म का कार्य क्या है?
उ० कुछ पुरुषार्थ करना चाहे तो नहीं कर सकता, उत्साहवान होना चाहे तो नहीं हो सकता, वस्तु की प्राप्ति में बाधा उपस्थित करता है।

प्र० वेदनीय कर्म क्या है?
उ० जो वेदन कराता है, अनुभव कराता है।

प्र० वेदनीय कर्म की ३ अवस्था?
उ० १) शरीर की स्वयं की अवस्था:: रोगी, कृश, बुढापा आदि।
२) बाह्य कारणों से शरीर की अवस्था:: सर्दी, गर्मी लगना आदि।
३) और भी बाह्य सुख दुख के कारण:: धन, कुटुम्ब आदि।

प्र० वेदनीय कर्म के प्रकार?
उ० २ प्रकार:- १) साता वेदनीय = अच्छे कारणों का संयोग २) असाता वेदनीय = बुरे कारणों का संयोग

प्र० सुख दुख का कारण क्या है??
उ० बाह्य वस्तुएं सुख दुख की कारण नहीं हैं। अंतरंग कषाय के कारण सुख दुख होता है। सुख दुख में मोहनीय कर्म निमित्त है।
-> सुख दुख उत्पन्न होने में मोहनीय कर्म ही समर्थ कारण है।
-> हमने बाह्य पदार्थों को सुख दुख का मूल कारण माना हुआ है, बाह्य वस्तुऎं सुख दुख उत्पन्न करने में निमित्त कारण है, असमर्थ कारण है।
-> ऎसा विचार करके बाह्य पदार्थों को मिटाने का नहीं अपने मोह को मिटाने का प्रयत्न करना चाहिये।
-> कर्म भी बुरे नहिं हैं, जिन परिणामों की वजह से वो कर्म आये वो परिणाम बुरे हैं, इसलिये परिणामों की संभाल जरूरी है।

निमित्त= बाह्य वस्तुएं
नैमित्तिक= मोहनीय कर्म के कारण उत्पन्न सुख दुख

प्र० कर्म किसे कहते हैं?
उ० जीव के परिणामों के निमित्त से स्वयं परिणमित कार्माणवर्गणारूप (कर्म रूप परिणमित होने योग्य वर्गणाऎं) पुद्गल की विशिष्ट अवस्था को कर्म कहते हैं।

निमित्त= जीव के परिणाम
नैमेत्तिक= कर्म का बंधना

आयु कर्मोदयजन्य अवस्था

प्र० आयु कर्म का कार्य?
उ० प्राप्त पर्याय में जीव को रोके रखता है।
-> जब तक आयु का उदय रहता है तब तक अनेक रोगादि कारण मिलने पर भी शरीर से सम्बन्ध नहीं छूटता== तीव्र अनुभाग होने पर
-> बाह्य कारण मिलने पर आयु कर्म की उदीरणा भी हो जाती है= कम अनुभाग होने पर
-> आयु कर्म के कारण ही जन्म(नवीन आयु), जीवन(आयु उदय), मरण(आयु क्षय) होता है, इससे ब्रह्मा, विष्णु, महेश के अस्तित्व का निषेध होता है।
-> पुत्र का जन्म मरण पालन भी उसके आयु कर्म के कारण ही है, इससे मैने पुत्र को पैदा किया, पालन किया, बडा किया आदि कर्तत्वपने का निषेध होता है।
-> आत्मा की अपेक्षा जन्मादि नहीं हैं क्योंकि आत्मा अनादिनिधन है, वो शरीर अपेक्षा है।

नाम कर्मोदयजन्य अवस्था

प्र० नाम कर्म का कार्य?
उ० शरीर की रचना करता है। शरीर की रचना करता है उससे सम्बन्धित अवस्था होती है।

नाम कर्म की 93 प्रकृतियां:--

गति= १.नरक, २. मनुष्य, ३.तिर्यंच, ४. देव
गति नाम कर्म से उस गति मे गमन होता है और उस गति के योग्य परिणाम होते है
जाति= १.एकिंद्रिय, २.दोइंद्रिय, ३.तीन इंद्रिय, ४.चार इंद्रिय, ५. पंचैन्द्रिय
शरीर= १.औदारिक, २.वैक्रियिक, ३.तेजस, ४.कार्माण, ५.आहारक
शरीर की रचना होती है।
अंगोपांग= १.औदारिक, २.वैक्रियिक, ३.आहारक
शरीर के अंग उपांग आदि बनते हैं। अंग (२हाथ, २पैर, मस्तक, हृदय, पीठ, नितम्ब), उपांग (उंगली, नाक आंख आदि)
निर्माण= अंगोपांग की ठीक ठीक रचना होना। इसके २ भेद हैं- स्थान: अंगोपांग जहां बनने चाहिए वहीं बने, प्रमाण: उसी आकार के बनें
बंधन= १.औदारिक, २.वैक्रियिक, ३.तेजस, ४.कार्माण, ५.आहारक
शरीर के परमाणु बंधन को प्राप्त हों।
संघात= १.औदारिक, २.वैक्रियिक, ३.तेजस, ४.कार्माण, ५.आहारक
शरीर के परमाणु छिद्र रहित एकता को प्राप्त हों
संस्थान= ६ जिससे शरीर को आकार प्राप्त हो
संहनन= ६ जिससे हड्डियों व नाडियों का बंधन हो
अनुपूर्व्य= १.नरक, २. मनुष्य, ३.तिर्यंच, ४. देव
विग्रह गति में आत्मा-प्रदेशो का आकार पहले वाली गति जैसा होगा.
स्पर्श= ८ हल्का- भारी, ठंडा- गरम, रुखा- चिकना, कड़ा- नरम
रस= ५ खट्टा, मीठा, कड़वा, कषायला, चरपरा
गंध= २ सुगंध, दुर्गंध
वर्ण= ५ सफेद, काला,हरा, पीला, लाल
विहायोगति= १.प्रशस्त, २. अप्रशस्त
जिसके उदय से गमन होता है।
उपघात= शरीर ऐसा हो कि स्वयं का ही घात हो जाये।
परघात= शरीर के अंगों से दूसरे जीव का घात हो जाये।
आतप= शरीर और उससे निकलने वाली किरणे गर्म होगी (सूर्य)
उद्योत= शरीर और उससे निकलने वाली किरणें शीतल होंगीं (चन्द्रमा)
उच्छवास= श्वासोच्छवास होता है
अगुरुलघु= जिसके उदय से शरीर बहुत हल्का व भारी नहीं होता है
तीर्थंकर = जिस कर्म के उदय से तीर्थंकर पद प्राप्त होता है
प्रत्येक= १ जीव का एक ही स्वामी
साधारण= १ शरीर के अनेक स्वामी
त्रस = २,३,४,५ इंद्रियों में जन्म
स्थावर= १ इंद्रिय में जन्म
बादर= जो स्वयं अन्य स्थूल पदार्थों से रुकता है और अन्य स्थूल पदार्थों को रोकता है
सूक्ष्म= जो स्वयं अन्य पदार्थों से नहीं रुकता है और अन्य पदार्थों को नहीं रोकता है
पर्याप्त= जीव पर्याप्त होता है
अपर्याप्त= जीव अपर्याप्त होता है
स्थिर= शरीर के धातु उपधातु अपनी जगह स्थिर रहते हैं
अस्थिर= शरीर के धातु उपधातु अपनी जगह स्थिर नहीं रहते हैं
शुभ= शरीर के अवयव सुन्दर होते हैं
अशुभ= शरीर के अवयव सुन्दर नहीं होते हैं
सुभग= शरीर के अवयव प्रीति को प्राप्त करते हैं
दुर्भग= शरीर के अवयव प्रीति को प्राप्त नहीं करते हैं
सुस्वर= स्वर अच्छा हो
दुःस्वर= स्वर बुरा हो
आदेय= शरीर में कांति होती है
अनादेय= कांतिरहित शरीर
यशःकीर्ति= जिससे संसार में प्रशंसा होती है
अयशःकीर्ति= संसार में प्रशंसा नहीं होती

2 comments:

Vikas said...

Excellent and well written post.

... कर्म भी बुरे नहिं हैं, जिन परिणामों की वजह से वो कर्म आये वो परिणाम बुरे हैं, इसलिये परिणामों की संभाल जरूरी है।

Very valid point. ऐसा ना हो कि हम हर कार्य को कर्मों के उपर डालकर निर्भार हो जाये. वास्तव मे मेरे परिणाम सुख-दु:ख के निर्माता है, कर्म नहिं, ऐसा जानना / विचारना योग्य है.

Some corrections in naam karm:

गति= १.नरक, २. मनुष्य, ३.तिर्यंच, ४. देव
गति के अनुसार जीव के शरीर की रचना और भाव बनाती है।

Correction: गति नाम कर्म से उस गति मे गमन होता है और उस गति के योग्य परिणाम होते है. शरीर कि रचना शरीर नामकर्म से होती है.

अनुपूर्व्य= १.नरक, २. मनुष्य, ३.तिर्यंच, ४. देव. आत्मा के प्रदेश विग्रह गति में मरने के पहले वाली गति जैसे रहेंगे।
Correction: विग्रह गति में आत्मा-प्रदेशो का आकार पहले वाली गति जैसा होगा.

आतप= साधारण शरीर और उससे निकलने वाली किरणे गर्म होगी (सूर्य)
उद्योत= साधारण शरीर और उससे निकलने वाली किरणें शीतल होंगीं (चन्द्रमा)

Correction: ये साधारण शरीर नहिं है. और बलकि साधारण जीवॊ के तो इन दोनो का उदय नहि पाया जाता.

अगुरुलघु= जिसके उदय से शरीर बहुत हल्का व भारी होता है
Correction: अगुरुलघु= जिसके उदय से शरीर बहुत हल्का व भारी नहीं होता है

त्रस = २,३,४ इंद्रियों में जन्म
Correction: त्रस = २,३,४ ५ इंद्रियों में जन्म

Sunaina said...

just corrected all the mistakes.. thank you....