Thursday, January 1, 2009

दर्शन मोह के कारण जीव की अवस्था

Class Date:12/31/2008
Chapter: 3
Page#: 51
Paragraph #: 1st
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ummary:
revision: दर्शन मोह के कारण यह जीव दुखी हो रहा है । चूंकि जीव और शरीर का काफी close संबंध है तो उसने शरीर को ही अपना अंग मान लिया है परंतु यह शरीर भी वास्तव में तो कर्मोदय रूप अवस्था है । यद्यपि यह दोनों एक ही जगह पर रहते है तथापि ये भिन्न -भिन्न वर्तते हैं, भिन्न-भिन्न ही उनका स्वभाव है और यह जीव उसे(शरीर को) अपना मानकर दुखी होता रहता है।

*इस प्रकार संसार की जितनी भी अवस्थाएं है व सब ताप रुप ही है, किन्तु यह जीव इसमें इतना रम गया है कि यह उसे ताप रुप अर्थात दुख रुप नहिं लगता।

From Book:
* जैसे पागल कहीं जाकर ठहरता है, तो वहां आने जाने वाले लोगों को को वो अपना मानता है, ये मानता है कि ये सब मेरे कारण आये हैं, ये मेरी बात मान रहे हैं आदि। परन्तु वास्तव में तो वह पदार्थ दुसरे अर्थात उन स्वयं के आधीन है। उसी तरह यह जीव जो पर्याय, शरीर धारण करता है उससे संबंधित जो स्त्री-पुत्रादि स्वयं प्राप्त होते हैं उन्हें अपना मानता है, मानता है कि ये मेरे आधीन वर्तते हैं, जैसे बच्चे के बात मानने पर सुखी और बात नहीं मानने पर दुखी होता है, वो जीव - अजीव पदार्थ तो स्वयमेव अनेक अवस्था रुप परिणमन करते हैं, उन्हें अपने आधीन मानता है और बाद में उनके विपरित अवस्था रुप परिणमन में दुखी होता है ।

प्र. तो इन दुखों से बचने का उपाय क्या है?
. इन दुखों से बचने के लिये यह जीव अपनी असंभव कल्पनायें कि मैं इन सब वस्तुओं का कर्त्ता हूं, ये मेरे आधीन है। यह जाने कि मैं किसी जीव को सुखी - दुखी नहीं कर सकता, साथ ही मुझे कोइ सुखी - दुखी नहीं कर सकता। तो इस प्रकार राग - द्वेष मिटने से यह जीव सुखी हो सकता है, यही एक मार्ग है।

प्र. यहा कोइ कहे कि किसी काल में शरीर की तथा पुत्रादिक की क्रिया इस जीव के आधीन होते दिखायी देती है, तब तो यह सुखी होता दिखाई देता है?
उ. दो कारण :
१. शरीर, पुत्र, स्त्री आदि का जो भवितव्य अर्थात होनहार हो,
२. जीव की इच्छापूर्ति के लिये जो साधन चहिये वे उपलब्ध हो,
ये दो कारण हो तो जीव की अनेक इच्छाओं में से किसी एक प्रकार की इच्छा पूरी हो जाती है, किन्तु सारी पुरी नहीं होती है। बाह्य पदार्थ जो है वो किसी समय किसी एक प्रकार से परिणमित होते दिखाइ देते है, उसमें इतनी closeness होती है कि ऎसा feel होता है कि यह मेरे इच्छा के कारण हुआ है ऐसा नहीं है, इच्छा जो है वह तो प्रेरणारुप निमित्त है।
और इच्छाओं मे से कोई एक परिणमित हो भी जाती है तो उसे सुखाभास ही होता है, सुख प्राप्त नही होता है।
इस प्रकार जीव समस्त प्रकार जैसा चाहता है वैसा नहीं होता है और यह निरंतर दुखी ही रहता है।










1 comment:

Vikas said...

Good posting. Thanks for sending.