प्र०= निश्चय सम्यकदर्शन, ज्ञान, चारित्र और व्यवहार सम्यकदर्शन, ज्ञान, चारित्र किसे कहते हैं?
उ०= व्यवहार सम्यकदर्शन= अरहंत देव, निर्ग्रंथ गुरु, दया धर्म को ही मानना, जीवादिक तत्वों के व्यवहार स्वरूप का श्रद्धान करना, शंकादि 25 दोष न लगाना, निःशंकितादि आठ अंगों का पालन करना आदि।
निःशंकितादि 8 अंग :- निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, उपगूहन, अमूढदृष्टि, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना।
शंकादि 25 दोष :- 8 निशंकितादि 8 अंगों के विपरीत।
8 मद = ज्ञान का मद, पूजा का मद, कुल का मद, जाति का मद, बल का मद, ऋद्धि का मद, तप का मद, शरीर का मद।
3 मूढता :- लोक मूढता, देव मूढता, गुरु मूढता।
6 अनायतन :- कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र का श्रद्धान और कुदेव की सेवा करने वाला, कुगुरु की सेवा करने वाला और कुशास्त्र को पढने वाला।
निश्चय सम्यकदर्शन= यथार्थ तत्वों का श्रद्धान, स्व पर भेद विज्ञान अर्थात बाह्य में शरीर जीव से भिन्न है, शरीर की अवस्था, पुत्र पत्नी सब मुझसे भिन्न हैं और अंतरंग में अपनी आत्मा में उत्पन्न मोह, राग द्वेष रूप परिणामों भी भिन्न जानना आदि। शुद्धात्मतत्व की अनुभूति करना ।
"परद्रव्यों से भिन्न आपमें रुचि सम्यक्त्व भला है"
व्यवहार सम्यकज्ञान = जिनमत के शास्त्रों का अभ्यास करना, सम्यकज्ञान के 8 अंगों का साधन करना।
8 अंग = १)शब्द शुद्धि, २)अर्थ शुद्धि, ३)शब्द व अर्थ दोनों की शुद्धि, ४)योग्य काल में अध्ययन, ५)उपधान अर्थात किसी नियम व तप सहित अध्ययन, ६)शास्त्र का विनयपूर्वक अध्ययन, ७)अनिह्नव अर्थात गुरु के प्रति उपकार बुद्धि प्रकट करना, ८)बहुमान अर्थात ज्ञान का, शास्त्र का और पढाने वाले का बहुत आदर करना।
निश्चय सम्यकज्ञान = संशयादि रहित उन तत्वों को उसी तरह जानना,स्व का जानपना, अपने ज्ञान मय शुद्धात्मा की अनुभूति रूप ज्ञान।
"आप रूप को जानपनो सो सम्यक्ज्ञान कला है"
व्यवहार चारित्र= एकदेश व सर्वदेश हिंसादि पापों का त्याग, व्रतादि अंगों का पालन।
निश्चय चारित्र= रागादिक को दूर करना, सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान पूर्वक शुद्धोपयोग द्वारा आत्मस्वरूप में लीन होना, विचरना, स्थिर रहना।
"आप रूप में लीन रहे, थिर सम्यक्चारित सोई"
--> किसी अन्य जीव का व्यवहार सम्यकदर्शन तो देख सकते हैं परन्तु निश्चय नहीं और स्वयं का निश्चय भी देख सकते हैं।
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--> वास्तव में जिनवाणी का उद्देश्य है कि किसी भी तरह जीव अशुभ प्रवृत्ति को छोड कर शुभ/शुद्ध प्रवृत्ति में लग जाये।
--> किसी को तो निश्चय का उपदेश मिले ही नहीं, परन्तु यहां तो सुदेव, सुगुरु, सुशास्त्र का निमित्त मिलने पर व्यवहार और निश्चय दोनों उपदेश मिल रहे हैं तो वो व्यवहार को तो ग्रहण करता है परन्तु निश्चय का श्रद्धान नहीं करता अर्थात वास्तव में जीवात्मा क्या है, मैं क्या हूं उसको नहीं देखता।
--> तथा विषय की इच्छा घटने पर पहले बहुत दुखी था अब दुख की मात्रा कम होने से कम दुखी हुआ।आकुलता का पैमाना कम हो जाता है।
--> केवल व्यवहार सम्यकदर्शन के ही उपाय करेगा निश्चय के नहीं तो वे झूठे ही हॊंगे, व्यवहार सम्यकदर्शन व्यर्थ नहीं है परन्तु उस में ही संतुष्ट हो जाने पर व्यर्थ है क्यों कि लक्ष्य तो निश्चय का ही होना चाहिये। व्यवहार सम्यकदर्शन,ज्ञान, चारित्र साधन रूप हैं, और निश्चय सम्यकदर्शन, ज्ञान, चारित्र साध्य रूप है।
-->संसारी जीव पदार्थों को स्वयं के अनुसार परिणमित कराना चाहता है जो कि संभव नहीं है। अनादिनिधन वस्तुएं (६ द्रव्य, परमाणु आदि) भिन्न भिन्न अपनी मर्यादा सहित अर्थात स्वयं के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में परिणमित होती है।प्रत्येक वस्तु स्वयं के आधीन है, कोई किसी का कर्ता नहीं है, जो होना है वह उसके स्वयं के कारण से होगा। अपने चाहने करने से कुछ नहीं होगा।अनंत पुद्गल परमाणुओं से बना यह शरीर और उसमें रहने वाला जीव एक। तो एक जीव उस अनंत को कैसे परिणमित कर सकता है। कोई वस्तु कोई शक्ति एक दूसरे को परिणमित कराने में समर्थ नहीं है।
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1 comment:
बहुत ही सुंदर!
परम सत्य: संसारी जीव पदार्थों को स्वयं के अनुसार परिणमित कराना चाहता है जो कि संभव नहीं है।
ज्ञान और चारित्र की यह पंक्ति भी लिखी जा सकती है:
आप रूप को जानपनो सो सम्यक्ज्ञान कला है|
आप रूप में लीन रहे, थिर सम्यक्चारित सोई|
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