Chapter: 3
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Paragraph #: 4
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Summary:
दर्शनमोहनिय से उत्पन्न होनेवाला दु:ख और उसके उदय से होनेवाली जीव की अवस्था दु:ख से छुटने के लिये किये गये उपाय और वे सभी उपाय झुठे।
प्र. मंत्र क्या प्राप्त हुअ था?
उत्तर: “अनादिनिधन वस्तुएँ भिन्न भिन्न अपनी मर्यादा सहित परिणमित होती है, कोई किसीके आधीन नहीं है, कोइ किसी के परिणमित करानेसे परिणमित नही होता” यही मुल मंत्र है ।
यहाँ स्व के परिणामो के अलावा जो भी पर पदार्थ है वे सभी “कोइ“ मे आते है अर्थात इसेमे हम जिसे अपना मान रहे एसा शरीर भी “कोई” मे आता है इसलिए हम इस शरीर मे भी कुछ परिणमन नही कर सकते ।
हमे normal भेद ज्ञान तो होता है जैसे यह मेरी वस्तु है यह किसी ओर की परंतु हमें स्व-पर के भेदविज्ञान की जरुरत है क्योंकी जब तक हम पर को अपना समझेंगे तब तक हम दुखी रहेंगे क्योकी जिसको हम अपना मानते है अगर वो सचेतन हो य अचेतन उसे बनाए रख्ने क प्रयास करते है।
eg हम शरीर को अपना माने तो उसे पुष्ट रखने का प्रयास करते है सभी इन्द्रियाँ proper work करे इसका ध्यान रखते है।
इसी तरह अन्य पर पदार्थ पर भी बात लागु होती है ।
जब हम इन पर पदार्थ को पर मान ले तब जो दु:ख भासीत हो रहा है वह दु:ख नही होगा,एकत्व भाव नही रहेगा ।
कोइ वस्तु कोइ पदार्थ कोइ शक्ति वस्तु को परिणमीत नही करा सकती ,
इन्द्र और जिनेन्द्र भी एसा करने मे समर्थ नही है ॥
अपनी ईच्छा की पूर्ती होने लग जाए तो दुनिया एक जगह ही रुक जयेगी क्योंकी जो जैसा चाहे वैसा होता है तो कोइ परिवर्तन नही चहेगा। इसलिए कहा की किसी की इच्छा से कुछ नही होता है।
जिस प्रकार “ ईश्वर किसी का कर्ता नही है “ यह एक वस्तु व्यवस्था है उसी प्रकार कोइ २ पदार्थ एक दुसरे को convert नही करा सकते ना ही एक दुसरे रुप हो सकते है यह भी एक वस्तु व्यवस्था है प्रकृति का नियम है ।
एसा करने का अगर कोइ प्रयास करता भी है तो वह झुठे होते है ।
२ पदार्थ एक दुसरे को convert नही करा सकते ना ही एक दुसरे रुप हो सकते है इसका eg इस प्रकार है ::
आत्मा का ज्ञान अचेतन रुप या जड रुप परिणमित नही होता ।आत्मा के प्रदेश या particle का एक अंश भी जडमय नही होता और कोइ पुदगल परमाणु ज्ञानमय नही होता है हम कितनी ही जड पदार्थों की संगती करते है बावजुद इसके ज्ञान अज्ञान मे नही बदलता आत्मा जडरुप नही होता है
कोई किसीके आधीन नहीं है, कोइ किसी के परिणमित करानेसे परिणमित नही होता” यही मुल मंत्र है।
इसे मन्त्र इसलिए कहा क्योंकी सच्चा सुख प्राप्त करने के लिए हमे अपने जीवन मे इसका मनन करना है और implement भी करना है जिस तरह हम किसी मन्त्र का करते है ।
It is one of the essences ( सार ) of the जिनवाणी ।
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अब तक हमने सुख पाने के लिए जो उपाय किये वे सब झुठे सिद्ध करते हुए सच्चा उपाय बताते है और वह यह है ----
“जैसा पदार्थ का स्वरुप है वैसा ही श्रद्धान करना उन्हे यथार्थ मानना और यह परिणमीत करानेसे अन्यथा परिणमीत नही होंगे ऐसा मानना सो ही इस दु:ख को दुर करने का सच्चा उपाय है।भ्रम जनित दु:ख का उपाय भ्रम को दुर करना ही है।“
· जैसी वस्तु व्यवस्था है उसको वैसा ही मानना
· वस्तु को अपने according परिणमी्त कराने का प्रयास न करे।
· कभी प्रयास भी करे पर उसमें आसक्ती रुप या एकत्व भाव से नही करे तो दु:ख नही लगेगा।
Eg: if one’s child got hurt and other child who is living with them for some time he got hurt then there will be difference in feeling because of आस्क्ति of own child .
अगर कोइ आस्क्ति वश मुर्दे हो कन्धे पर लेकर घुमे उसे जिन्दा करना चाहे तो दुखी ही होगा और इस दु:ख दुर हो इसलिए २ ही बात हो सकती है या तो वो मुर्दा जिन्दा हो जाए जो की ३ काल मे शक्य नही है और दुसरी बात यह है की उस मुर्दे को मुर्दा मान लिया जाय जो की बहुत ही सरल उपाय है।अर्थात सुखी होने के लिए उस मुर्दे को जिन्दा मानने का भ्रम दुर होना जरुरी है ।
कोइ सोचे की मेरे कारण ही काम हो रहा है, मै न रहु तो काम रुक जायेगा तो यह उस जीव का मिथ्यात्व है क्योंकी एसा होता नही ।world will go on whether we are there or not and if the work is not to be happen it will not be done whether one is present ..
तो इस जीव को सुखी होने के लिए यह भ्रम दुर करना जरुरी है की मेरे होने से ही काम हो रहा है ।
वैद्य का स्वप्न मे आकर केहना की तुम्हे cancer है और उसका उपाय उस वेद्य के पास करने चला आना यहा बिमारी का तो भ्रम ही है उससे दुखी हो रहा है तो यहाँ यह भ्रम तोडना जरुरी है ।
कोइ कार्य अपने ही हाथ हो रहा हो जिसमे अगर कुच गलत हो जए तो अनेक कारण ढुंढता है और अगर अच्छा कार्य हो तो स्वयं ने किया ऐसा कहता है वहाँ कोइ कारण नही जानते यही तो हमारा भ्रम है इसे तोडना जरुरी है ।
उदा: रोटी अच्छी बनी तो मेने बनाई और अगर जल जाए तो कहते है रोटी जल गई ।
भ्रम की दुनिया मे ही अगर कोइ अपने आप को सुखी मानता हो तब तो जब उसका भ्रम टुटेगा और जो दु:ख का अनुभवन होगा वो बहुत ही गहरा होगा और कभी तो यह भी हो कि उस समय उसे जो पर्याय मिले उसमे उस जीव की अवस्था यह जानने की या अनुभवन की शक्ति हि ना रहे ज्ञान न हो कि मैने एसा क्या किया था जो ये दु:ख मिल रहे है और ना ही उस दुख को दुर करने का उपाय ही कर पाएगा इसलिए “आज अगर हमे मौका मिल रहा है, समझ बनी है कि हम दुखी क्यों है और इस दु:ख को दुर करने का और सच्चा सुख प्राप्त करने का उपाय मिल रहा है तो इस वक्त मे अपनी सम्हाल करते हुए उस उपाय को हमारे जीवन मे implement कर लेना चाहिए ताकी इस सुख के भ्रम से निकल कर सच्चा सुख प्राप्त कर सके ।“
यहाँ बताया है कि मिथ्यात्व से होने वली जीव कि अवस्था जिसमें मिथ्यादर्शन के भेद के according मन्यता बनती है जैसे विपरीत,एकान्त, संशय, विनय और अज्ञान ।
“विपरीत मन्यता मे यह जीव वस्तु का जैसा स्वरुप है वैसा मानता नही और जैसा यह मानता है वैसा वस्तु का स्वरुप है नही और इस वजह से यह दुखी रह्ता है।और अपने विचार के अनुसार वस्तु मे परिणमन करने का प्रयास करता है और जब एसा करता है तो इस जीव को वैसी ही संगती मिलती है वैसे ही कुगुरु मिलते है जिससे की उसका मिथ्यात्व पुष्ट होता है और यह जीव भ्रमजनित सुख से दुखी ही होता है और इस विपरीत मन्यता मे सुधार आ जाये, वस्तु का जैसा स्वरुप है वैसा श्रद्धान हो जाए तो जीव को जो सुखी होने का भ्रम हो रहा है वस्तु (सचेतन या अचेतन पदार्थ) उसके आधिन है यह जो भ्रम हो रहा है वह दुर हो जायेगा, जो की सच्चा सुख प्राप्त करने का सच्चा उपाय है।“
अपने चाहने से कार्य होने लग जाये और इच्छा ना हो तो कार्य भी न हो तो एसी अवस्था मे दु:ख का अनुभवन नही होता सुख ही लगता है परंतु वह तो सुखाभास होता है यहाँ दु:ख को दुर करना कठीन लगता है परंतु चाहने पर कार्य ना हो और ना चाह्ते हुए भी कुछ कार्य करना पडे तब तो सिधे दु:ख का अनुभवन होता है और यह बुध्दि बनती है की कार्य हमारे आधिन नही है यहा एसी अवस्था मे सुखी होने का उपाय करना सरल हो जाता है।
ज्ञानी जीव से पुछा जाये की आपका जन्म कब हुआ तब कहते है की
“ जब भ्रम दुर हुआ तब जन्म हुआ ।
सबसे बडी बात तो यह है की मेरा ना तो जन्म होता है ना ही मरण होता है मै तो अनादि से
हुँ और अनंत काल तक रहुंगा।“
चारित्रमोह से दु:ख और उससे निवृत्ति:
चारित्र मोहनीय से क्रोधादि कषाय और हस्यादि नोकषाय उत्पन्न होती है ।
इन कषायोंके कारण जीव क्लेशवान होकर दु:खी होता है और विव्हल होकर नाना प्रकार के कुकार्य मे प्रवर्तता है ।- क्लेशवान होकर : दु:खी होकर, tensed होकर
- विव्हल होना : आकुलीत होना , restless होना
- कुकार्य : खोटे कार्य, बुरे कार्य
“क्रिया मे क्रोध दिखता है परंतु बुरा करने कि इच्छा भी क्रोध ही है।“
यहा क्रोध के उदय के समय में जीव की अवस्था बताते है
क्रोध मे जीव के दुसरे का बुरा करने की इच्छा होती है और तब यह जीव मन वचन काय कृत कारित और अनुमोदना पुर्वक इस प्रकार कार्य करता है
· मन से बुरा करने के उपाय विचारता है,
· वचन - मर्मच्छेदि(मर्म-हृदय ,छेद- hole create हो जाए,बहुत बुरा लग जाए एसे वचना) अपयशके वचन बोलता है ,
· काय - अंगोसे या श्स्त्र-पाषाणादि से घात करता है (सचेतन-अचेतन पदार्थो का घात करना),
· कृत - कष्ट सहनकर धनादि खर्च कर ,मरणादि द्वारा अपना भी बुरा करके अन्य का बुरा करने का उद्यम(प्रयास) करता है,
· कारित - औरोसे बुरा होना जाने तो औरोसे बुरा कराता है
· अनुमोदना - जिसका बुरा चाहता है और स्वयं ही बुरा हो रहा हो तो अनुमोदना करता है।
· और तो जीव इतना क्रोधी हो जाता है की अगर उसे कोइ उसका पुज्य या ईष्टजन समझाने आये तो उनको भी भला बुरा कहता है यहा तक की कभी कभी मारता भी है ।
· बिना प्रयोजन भी जीव अन्य वस्तु मे राग द्वेष करता है ।
· जब क्रोध बहुत ही तीव्र हो जाये और एसा लगने लग जाए की कुछ काम नही बन रहा तो उस क्रोध के वश जीव खुद अपने अंगो का घात करता है और कभी तो वीष खाकर मर भी जाता है।
यह last point हर कषाय के बाद आएगा जो की कषाय की तीव्रता को बताता है जहाँ जीव स्वयं का घात कर मर जाता है ।
One should understand that when this kashay will calm down then only I will become sukhi not by doing wrong to others or even to self.
“कषाय के उत्पन्न होने से दु:ख होता है और कषाय के नष्ट होने से सुख उत्पन्न होता है”
प्र . मिथ्यात्व से होने वाला दु:ख और कषाय से होने वाला दु:ख इनमें क्या अंतर है ?
उत्तर: मिथ्यात्व मे उल्टी मान्यता होती है जहा वस्तु का सही स्वरुप न जानकर उसके विपरीत ही समझता है और वस्तु को अपने आधिन जानकर उन्हे अपने अनुसार परिणमन कराना चाहता है जो की होता नही उसके कारण जीव को महा दु:ख होता है। - कषाय यह मिथ्यात्व के कारण ही होती है।
मिथ्यात्व मन्यता से जीव यह मानता है की मै शरीर हूँ और इसमे मे परिणमन कर सकता हूँ करा सकता हूँ । यहाँ, मै शरीर हूँ इस बात मे अपने आप मे दु:ख की अभिव्यक्ति नही हो रही परंतु मन्यता की “मै शरीर हूँ “ वह मिथ्यात्व है और इसके साथ ही जीव इस शरीर को पुष्ट करने की इच्छा करता है,किस प्रकार का भोजन स्वास्थ्य के लिए अच्छा है कैसा भोजन बुरा है इन सब बातो की इच्छारुप से प्रगट्ता होती है, तो यहा यह जो इच्छा है वह मिथ्यात्व के साथ है तो इस मिथ्यात्व के साथ वाली इच्छा से होने वाला दु:ख, महा दु:ख है। यहा मिथ्यात्व उस इच्छा पर हावी है ।
मै शरीर हूँ इस बात से दु:ख की अभिव्यक्ती तब तक नही होगी जब तक हमारे इच्छा की पुर्ती होती रहेगी लेकीन जैसे ही अपने अनुसार कार्य नही हुआ तब इस मिथ्यात्व वाला दु:ख अभिव्यक्ती मे आयेगा।
जैसे कोइ यह सोचे की मेरे बाल सफ़ेद नही हो सकते तो यह तो उसकी मान्यता हुई बाल सफ़ेद नही होने चाहीए यह उसकी इच्छा है और इस बात से उसके दु:ख की अभिव्यक्ती तब तक नही होगी जब तक बाल काले रहेंगे जैसे ही बाल सफ़ेद होने लगेंगे उस बाल सफ़ेद ना होने की इच्छा पर मिथ्यात्व का रंग चड जएगा और जीव महा खेद खीन्न होगा क्योंकी अब बात उसके अनुसार नही हो रही। यहा इच्छा, मिथ्यात्व (विपरीत मान्यता) के साथ है।
उपर के गुणस्थान मे इच्छा तो होती है लेकीन उन इच्छा से जो दु:ख होता है वह तीव्र नही होता क्योंकी यहा जो इच्छा होती है वह मिथ्यात्व के साथ नही होती। उन इच्छाओमे जीव की आसक्ती नही रहती इसलिए दु:खकी intensity कम रहती है ।इसलिए कहते है की सम्यक्दृष्टी सुखी है यद्यपि सम्यक्दृष्टी के भी इच्छा होती है परंतु उस इच्छा मे उसकी आसक्ती नही रहती । यहा इस जीव के मिथ्यात्व निकल गया है तो साथ ही उससे होने वाला दु:ख भी निकल गया है अब उसके जो इच्छा रही है वह रागद्वेष रुप इच्छा ही रह गई है and even उसकी intensity भी कम हो जाती है क्योंकी अब इन इच्छा पर मिथ्यात्व हावी नही है जिसमे उसके इच्छा तो होती है परंतु आसक्ती नही होने के कारण उस इच्छा से होने वाला दु:ख से दुखी नही रहता ।
“सम्यग्दृष्टी जीव को भेदज्ञान हुआ है और उल्टी मन्यता नष्ट हुई है।दर्शनमोह का नाश तो हो जाता है परंतु चरित्रमोह की अवस्था रहती है पर उनकी मन्यता सिधी है ।“
“यद्यपि इच्छाओ का मूलकारण चारित्र मोह है फिर भी अनंत इच्छा की बात देखे तो मिथ्यादर्शन के साथ ही अनंत इच्छा होती है, मिथ्यादर्शन के बिना अनंत इच्छा नही कही जाती।“
प्रश्न: अगर एसा हो की इच्छा चली जाए पर विपरीत मन्यता हो तब भी उस मन्यता की अभिव्यक्ती न होने से उस मन्यता का दु:ख भी नही रहता ??
उत्तर: उपर की लेश्या मे ऐसा होता है की अनंतानुबंधी जब रहती है तब मिथ्यात्व है परंतु इस अवस्था मे भी अगर जीव शुक्ल लेश्या मे है तो वहा इच्छा मंद होती है नही के बराबर होती है यहा इच्छा पुरी तरह चली गई है ऐसा नही कहेंगे पर यहा इच्छा अंतरंग मे पूरी तरह दबा दी गई है जिससे की वह प्रगटही नही हो रही है ऐसा होने पर भी उस जीव की मन्यता विपरीत है परंतु उसकी अभेव्यक्ती ना होने के कारण उस रुप दु:ख प्रगट नही हो रहा शुक्ल लेश्या होने के कारण उस जीव का शुभ बंध भी उत्कृष्ट होता है।
क्रिया परिणाम और अभिप्राय यह ३ बाते होती है
क्रिया : जो भी हम कर रहे है वह कार्य है ।
परिणाम: जो भी हम क्रिया कर रहे है वह अंतरंग मे है वह परिणाम है।
अभिप्राय : कार्य करने के पिछे जो reason है जो belief है वह अभिप्राय है ।(मन्यता,श्रद्धान)
परिणाम और क्रिया मे जहा विपरीतता है वह चारित्र मोहरुप अवस्था है और अभिप्राय जब विपरीत होता है वह दर्शन मोह रुप अवस्था है ।
जब सभी जीव एक जैसा कार्य कर रहे हो तब भी सभी का बंध एक जैसा नही होता है इसलिए क्रियासे बंध नही होता है परिणाम और अभिप्राय से बंध होता है ।
Points:
· क्रोध रुपी अपनी अवस्था सोच कर यह विचार करे के क्या वह अवस्था सुखरुप थी या दु:खरुप थी।
· क्रोध मे कुछ विचार नही रहता विवेक नही रहता इसका कारण एक तो क्रोध कषाय के उदय की तीव्रता है और दुसरा उस कषाय से जुडा मिथ्यात्व है।
“अपनी इच्छा से कार्य हो और न चाहे तो ना हो तो इस दु:ख को दुर करना बहुत कठीन है क्योंकी इसमे जीव को दु:ख भासित ही नही होता उसे ऐसा लगता है की सबकुछ मेरे आधिन ही है तो दु:ख किस बात का ? परंतु जब इच्छा हो और कार्य न हो तो तब इस दु:ख का अनुभवन होता है और तब जीव यह सोच सकता है की कोइ कार्य हमारे आधिन नही है तब इस दु:ख को दुर करना थोडा सरल हो जाता है ।“
2 comments:
I think it covered almost complete class. Thanks for that. भ्रम से उत्पन्न हुए दुःख से बचने का उपाय भ्रम दूर करना है, यह बढ़िया बताया.
This was very nice point:
..इसलिए “आज अगर हमे मौका मिल रहा है, समझ बनी है कि हम दुखी क्यों है और इस दु:ख को दुर करने का और सच्चा सुख प्राप्त करने का उपाय मिल रहा है तो इस वक्त मे अपनी सम्हाल करते हुए उस उपाय को हमारे जीवन मे implement कर लेना चाहिए ताकी इस सुख के भ्रम से निकल कर सच्चा सुख प्राप्त कर सके ।“
Couple points to correct:
..शुक्ल लेश्या होने के कारण उस जीव का बंध भी उत्कृष्ट होता है। should be ..शुक्ल लेश्या होने के कारण उस जीव का शुभ बंध भी उत्कृष्ट होता है।
This is not clear to me. Can you explain this: परिणाम: जो भी हम क्रिया कर रहे है वह अंतरंग मे है वह परिणाम है।
परिणाम: जो भी हम क्रिया कर रहे है वह अंतरंग मे है वह परिणाम है।
कहने का मतलब यह है कि जो क्रिया रुप मे व्यक्त हो रहा है पर वो अंतरंग मे होता है उसे परिणाम कह्ते है | if this is still incorrect so please explain wht is parinaam
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