Wednesday, November 26, 2008

Class notes from 11/26/08- Chp 2 pg 43

Naamkarma ka uday continuted

Today we continued the discussion of naam karma and several types of naam karma.

The types that were discussed today:

1) Sehanan- sharir ki rachna for e.g. vajra

2) Sthul- chhota, mota, sprashan gun ki paryay
All 20 parkrutis of sparshan exist at the same time. Similarly, all 5 types of Varna exist (uday hota hai) at the same time

3) Uchvas- is naam ke karma se hum shvaas lete hain
Shvasoshvas jivitavya ka karan hai. 10 pran hai usme se yeh ek hai. Jivitavya ke karnno mein se sabse balvan karan aayu karma hai.

4) Swar- swar karma ke uday se swar utpann hota hai.
Sharir pudgal hai isliye usme me sparsh, ras, gnadh aadi hai. Shabd bhi pudgal ke pind hai- aur shabd matlab bhasha vargana ki pudgal rup parinamiti.
Sakshar/ anakshar shabd ka difference: Sounds, rhythm, dhvani with no words is anakshar rup or swar rup. Akshar rup is with words and is found only in sangni panchendriya.

5) Gamanagaman: Jis karma se aakash dravya mein gaman aur aagaman rup pravrutti hoti hai. There are two types, shubh and ashubh. Just like 2 people if tied together, only the more powerful will get things done, similarly, sharir and aatma are tied together. There could be several options like sharir ki shakti ho ya na ho and aatma ki iccha ho ya na ho. Generally karya tab hi ho sakta hai jan sharir ki shakti ho aur aatma ki iccha ho (sharir ke iccha nahhi hoti). Lekin kabhi kuch bahya badhak karan bhi ho sakte hai jinki vajeh se karya sampann nahi hota. Sharir ki shakti hai, aatma ki iccha hai lekin baarish hai to baahar nahi ja sakte. Anek dusre badhak karan hai. We need to keep in mind that jahan ek karya banta hai, vaha bahut saare karan milte hai tab jake karya hota hai.

Ab aise types ka discussion jo MMP mein describe nahi kiye gaye:

6) Anupurvi- Vigrah gati mein aatma ka shape jisse banta hai. Purane sharir ka shape retain hota hai. Yadi manushya chhod ke dev mein jaaye to vo devgatyanupurvi karma kehlata hai.

7) Upghat- apna sharir apna hi ghaat kare
8) Parghat- Apne sharir ke ang aise jo dusre jeev ka ghat kare

9) Aatap- jiske nimit se bahya mein sharir se prakash utpann hota hai aur sharir garma rehta hain- eg surya- found in tiryanch only
10) Udyot- jiske nimit se bahya mein sharir se prakash utpann hota hai aur sharir sheetal rehta hain. eg- chandrama—found only in tiryanch

11) Agurulaghu—jisse sharir bahut bhaari ya halkaa nahi hota

12) Badar- kisi se ruk jaata hai ya kisi ko rok sakta hai Kuch aise bhi hai jo dikhte nahi, par fir bhai badar hai
13) Sukshma- na kisi se rukte hai, na rok sakte hai—ekendriya ke hi payi jati hai isliye paap prakruti hai. Tras jeev sirf badar hote hai

14) Aparyapt- aparyapt hai to antarmuhurt mein mrutyu nischit hai- otherwise paryapth ho jata hai

15) Subhag- anya jeev ko priti hoti hai dekhne se aise ang/sharir
16) Durbhag- anya jeev ko priti nahi dvesh ho dekhne se aise ang/sharir

17) Aadey- sharir mein kanti hoti hai
18) Anadey-sharir mein kanti nahi hoti

19) Shubh- sharir ke avyay sundar hote hai. This is different from Subhag since isme priti ka bhaav nahi hota
20) Ashubh- avyay sundar nahi hote. Similarly different than Durbhag since isme dvesh/apriti ka bhaav nahi hota.

21) Suswar- accha swar hona
22) Duswar- accha swar nahi hona

23) Pratyek- jis sharir ka ek hi swami. Pratyek mein two types- jinke ashray se nigodhia jeev rehte hai- eg kela, kakdi, bhindi. Other type is jisme nigodh jeev rehte hai lekin fir continuously utpann nahi hote
24) Sadharan- Ek sharir ke anek swami- found in nigodh jeev of vansapatis like kandmul
25) Sthir Asthir- Sharir mein cough, pitt etc.agar asthir ho to rogadik ki utpatti hoti hai. If sthir ho to sharir rograhit rehta hai.

26) Tirthankar- moksh marg mein uski sthiti nahi hai

Other notes:


1) Sharir ke jaise bhi hone mein naam karma ka uday samarth karan hai- baaki bahya karan like exercise etc asamarth hai.

2) Naam karma ke asankhya bhed hai leking kkeval gyani utna hi batate hai jitna chadmasta ke gyan gamya hai aur prayojanbhut hai.

3) Purusharth to karna chahiye lekin jo ekant manyata hai ki maine yeh kiya, vo change karna hai kyonki hamare chahne se ya purusharth karne se vastu ho hi jaaye aisa nahi.

4) Sansar avastha mein tirthankar aur aaharak sharir yeh naam karma nahi hai

5) Manushya mein vaikriya sharir aur tiryanch prakrutiya nahi

Gotra Karma

1) Jis kul mein acche sansakr aur diksha lene yogya kul hai vo ucch kul kehlate hai. Jinme maas bhakshan aur madya pan ho vaise kul nich kehlate hai.

2) Gotra karm change nahi hota- it remains what u have at the time of birth.
Kul ucha hai ke nicha vo kevli gamya hai- gotra karma kaafi sukshma hai

3) Kshudra, tiryanch aur narki nich gotra mane gaye hai. Manushay mein ucha nich dono hai aur dev ko uch gotra hi hai.


Jo bhi kaha hai uspar vichar kare to hamari avastha se match hota hai aisi pratiti hame hogi. Aisi pratiti hone par granthadi mein shraddhan badhta hai. Isliye vichar, chintan karna aavashyak hai.

-Shweta

25/11/2008, Tuesday, page 41,42,43

revision :--

प्र० वीर्यान्तराय कर्म का कार्य क्या है?
उ० कुछ पुरुषार्थ करना चाहे तो नहीं कर सकता, उत्साहवान होना चाहे तो नहीं हो सकता, वस्तु की प्राप्ति में बाधा उपस्थित करता है।

प्र० वेदनीय कर्म क्या है?
उ० जो वेदन कराता है, अनुभव कराता है।

प्र० वेदनीय कर्म की ३ अवस्था?
उ० १) शरीर की स्वयं की अवस्था:: रोगी, कृश, बुढापा आदि।
२) बाह्य कारणों से शरीर की अवस्था:: सर्दी, गर्मी लगना आदि।
३) और भी बाह्य सुख दुख के कारण:: धन, कुटुम्ब आदि।

प्र० वेदनीय कर्म के प्रकार?
उ० २ प्रकार:- १) साता वेदनीय = अच्छे कारणों का संयोग २) असाता वेदनीय = बुरे कारणों का संयोग

प्र० सुख दुख का कारण क्या है??
उ० बाह्य वस्तुएं सुख दुख की कारण नहीं हैं। अंतरंग कषाय के कारण सुख दुख होता है। सुख दुख में मोहनीय कर्म निमित्त है।
-> सुख दुख उत्पन्न होने में मोहनीय कर्म ही समर्थ कारण है।
-> हमने बाह्य पदार्थों को सुख दुख का मूल कारण माना हुआ है, बाह्य वस्तुऎं सुख दुख उत्पन्न करने में निमित्त कारण है, असमर्थ कारण है।
-> ऎसा विचार करके बाह्य पदार्थों को मिटाने का नहीं अपने मोह को मिटाने का प्रयत्न करना चाहिये।
-> कर्म भी बुरे नहिं हैं, जिन परिणामों की वजह से वो कर्म आये वो परिणाम बुरे हैं, इसलिये परिणामों की संभाल जरूरी है।

निमित्त= बाह्य वस्तुएं
नैमित्तिक= मोहनीय कर्म के कारण उत्पन्न सुख दुख

प्र० कर्म किसे कहते हैं?
उ० जीव के परिणामों के निमित्त से स्वयं परिणमित कार्माणवर्गणारूप (कर्म रूप परिणमित होने योग्य वर्गणाऎं) पुद्गल की विशिष्ट अवस्था को कर्म कहते हैं।

निमित्त= जीव के परिणाम
नैमेत्तिक= कर्म का बंधना

आयु कर्मोदयजन्य अवस्था

प्र० आयु कर्म का कार्य?
उ० प्राप्त पर्याय में जीव को रोके रखता है।
-> जब तक आयु का उदय रहता है तब तक अनेक रोगादि कारण मिलने पर भी शरीर से सम्बन्ध नहीं छूटता== तीव्र अनुभाग होने पर
-> बाह्य कारण मिलने पर आयु कर्म की उदीरणा भी हो जाती है= कम अनुभाग होने पर
-> आयु कर्म के कारण ही जन्म(नवीन आयु), जीवन(आयु उदय), मरण(आयु क्षय) होता है, इससे ब्रह्मा, विष्णु, महेश के अस्तित्व का निषेध होता है।
-> पुत्र का जन्म मरण पालन भी उसके आयु कर्म के कारण ही है, इससे मैने पुत्र को पैदा किया, पालन किया, बडा किया आदि कर्तत्वपने का निषेध होता है।
-> आत्मा की अपेक्षा जन्मादि नहीं हैं क्योंकि आत्मा अनादिनिधन है, वो शरीर अपेक्षा है।

नाम कर्मोदयजन्य अवस्था

प्र० नाम कर्म का कार्य?
उ० शरीर की रचना करता है। शरीर की रचना करता है उससे सम्बन्धित अवस्था होती है।

नाम कर्म की 93 प्रकृतियां:--

गति= १.नरक, २. मनुष्य, ३.तिर्यंच, ४. देव
गति नाम कर्म से उस गति मे गमन होता है और उस गति के योग्य परिणाम होते है
जाति= १.एकिंद्रिय, २.दोइंद्रिय, ३.तीन इंद्रिय, ४.चार इंद्रिय, ५. पंचैन्द्रिय
शरीर= १.औदारिक, २.वैक्रियिक, ३.तेजस, ४.कार्माण, ५.आहारक
शरीर की रचना होती है।
अंगोपांग= १.औदारिक, २.वैक्रियिक, ३.आहारक
शरीर के अंग उपांग आदि बनते हैं। अंग (२हाथ, २पैर, मस्तक, हृदय, पीठ, नितम्ब), उपांग (उंगली, नाक आंख आदि)
निर्माण= अंगोपांग की ठीक ठीक रचना होना। इसके २ भेद हैं- स्थान: अंगोपांग जहां बनने चाहिए वहीं बने, प्रमाण: उसी आकार के बनें
बंधन= १.औदारिक, २.वैक्रियिक, ३.तेजस, ४.कार्माण, ५.आहारक
शरीर के परमाणु बंधन को प्राप्त हों।
संघात= १.औदारिक, २.वैक्रियिक, ३.तेजस, ४.कार्माण, ५.आहारक
शरीर के परमाणु छिद्र रहित एकता को प्राप्त हों
संस्थान= ६ जिससे शरीर को आकार प्राप्त हो
संहनन= ६ जिससे हड्डियों व नाडियों का बंधन हो
अनुपूर्व्य= १.नरक, २. मनुष्य, ३.तिर्यंच, ४. देव
विग्रह गति में आत्मा-प्रदेशो का आकार पहले वाली गति जैसा होगा.
स्पर्श= ८ हल्का- भारी, ठंडा- गरम, रुखा- चिकना, कड़ा- नरम
रस= ५ खट्टा, मीठा, कड़वा, कषायला, चरपरा
गंध= २ सुगंध, दुर्गंध
वर्ण= ५ सफेद, काला,हरा, पीला, लाल
विहायोगति= १.प्रशस्त, २. अप्रशस्त
जिसके उदय से गमन होता है।
उपघात= शरीर ऐसा हो कि स्वयं का ही घात हो जाये।
परघात= शरीर के अंगों से दूसरे जीव का घात हो जाये।
आतप= शरीर और उससे निकलने वाली किरणे गर्म होगी (सूर्य)
उद्योत= शरीर और उससे निकलने वाली किरणें शीतल होंगीं (चन्द्रमा)
उच्छवास= श्वासोच्छवास होता है
अगुरुलघु= जिसके उदय से शरीर बहुत हल्का व भारी नहीं होता है
तीर्थंकर = जिस कर्म के उदय से तीर्थंकर पद प्राप्त होता है
प्रत्येक= १ जीव का एक ही स्वामी
साधारण= १ शरीर के अनेक स्वामी
त्रस = २,३,४,५ इंद्रियों में जन्म
स्थावर= १ इंद्रिय में जन्म
बादर= जो स्वयं अन्य स्थूल पदार्थों से रुकता है और अन्य स्थूल पदार्थों को रोकता है
सूक्ष्म= जो स्वयं अन्य पदार्थों से नहीं रुकता है और अन्य पदार्थों को नहीं रोकता है
पर्याप्त= जीव पर्याप्त होता है
अपर्याप्त= जीव अपर्याप्त होता है
स्थिर= शरीर के धातु उपधातु अपनी जगह स्थिर रहते हैं
अस्थिर= शरीर के धातु उपधातु अपनी जगह स्थिर नहीं रहते हैं
शुभ= शरीर के अवयव सुन्दर होते हैं
अशुभ= शरीर के अवयव सुन्दर नहीं होते हैं
सुभग= शरीर के अवयव प्रीति को प्राप्त करते हैं
दुर्भग= शरीर के अवयव प्रीति को प्राप्त नहीं करते हैं
सुस्वर= स्वर अच्छा हो
दुःस्वर= स्वर बुरा हो
आदेय= शरीर में कांति होती है
अनादेय= कांतिरहित शरीर
यशःकीर्ति= जिससे संसार में प्रशंसा होती है
अयशःकीर्ति= संसार में प्रशंसा नहीं होती

Tuesday, November 25, 2008

classnotes from 11/24/08, page 41-42, vedniya karma ka uday

इस से पहले हम ने चार प्रकार के घाती कर्मो के उदयजन्य अवस्था के लक्षण देखेअब अघाती कर्म की बात करते हे

प्रश्न: अघाती कर्म मे क्षायिक, उपशामिक, क्षयोपशामिक और उदय रूप चार अवश्थाओ मे से कोन सी अवस्था पाई जायेगी?
-> सर्वघाती और देशघाती तो घटी कर्म की प्रकृतिया हे , अघाती कर्म मे एसा भेद होने से क्षयोपषम और उपशम नही होगाअघाती कर्म पर द्रव्य का संयोग करते हे इस लिए उस मे क्षायिक भाव भी नही होंगेसिर्फ़ उदय रूप अवस्था पाई जायेगी

प्रश्न: वेदनीय कर्म किसी कहेंगे?
-> जो इन्द्रिय सुख/दुःख रूप वेदन/अनुभव करवाता हे वोह हे वेदनीय कर्म

प्रश्न: वेदनीय कर्म के उदय से क्या होगा?
-> वेदनीय कर्म का उदय शरीर मे बाह्य सुख-दुःख के कारन को उत्पन्न करता हे
-> इन बाह्य कारन के तीन भेद हे :
> एक वोह जिन के निमित्त से शरीर की ही सुख-दुःख रूप अवस्था होती हे
> दुसरे शरीर की सुख-दुःख रूप अवस्था मे निमित्तभुत बाह्य कारन होते हे
> तीसरे बाह्य वस्तुओ के ही कारन होते हे

प्रश्न: वेदनीय कर्म के भेद कोन से हे?
-> शाता वेदनीय और अशाता वेदनीय कर्म ये दो भेद हे वेदनीय कर्म के
-> यहाँ विशेष ये जानो की रति और अरति कषाय के निमित्त से एक ही पदार्थ का संयोग कभी शाता वेदनीय या कभी अशाता वेदनीय कर्म के रूप मे होगा

प्रश्न: हमें सुख-दुःख केसे होता हे? वेदनीय कर्म की उसमे क्या भूमिका हे?
-> वेदनीय कर्म तो सिर्फ़ बाह्य निमित्त का संयोग करवाता हेकारणों का मिलना वेदनीय के उदय से होने पर भी उसमे सुख-दुःख मानना मोह के उदय से होता हे
-> कारन स्वयं सुख-दुःख उत्पन्न नही करता, वोह तो निमित्त मात्र हे, इस लिए उसे तो असमर्थ कारन ही कहेंगे
-> मोह के उदय से जिव को बाह्य संयोग मिले या कभी मिले तो उन बाह्य संयोगो का विचारो मे मन से आश्रय लेकर संकल्प करता रहता हेइसी संकल्प से मोहि जिव को सुख-दुःख होता हे
-> इस लिए मोह सुख-दुःख का मूल बलवान समर्थ कारन हे


* few points that we came across during the class and on which we should think over when we get time:

-> क्या हम मानते हे की सुख-दुःख बाह्य सयोग से नही लेकिन अपने मोह के कारण हे
-> क्या हम समजते हे की सुख पाना और दुःख हटाना ये तो व्यर्थ की बात हेहमें तो मोह से युक्त संकल्प को हटाने का पुरुषार्थ करना हे
-> क्या हमें इन लक्षणों के जानने के बाद संसार बुरा / रोग रूप लग रहा हे ?
-> हमें धार्मिक क्षेत्र मे सम्यक्त्व चाहिए तो क्या हम सम्यक्त्वी जीवो के प्रति, सम्यक्त्व के साधनों के प्रति सही भाव रखते हे? क्या हम उनकी अनुमोदन करते हे? या उसमे विघ्न रूप परिणाम रखते हे?
-> क्या हम स्वीकार करते हे की हमें अनादी संसार का रोग हे? और रोग मुक्त अवस्था हे की जो हम प्राप्त कर सकते हे

Monday, November 17, 2008

Notes for 11/17/08

There is 4 type of Kashay
Anantanubandi, pratyakhayan, Apratyakhayn, sanjwlan

9 no kashay – "kinchet"(minor) indirect effect on the soul. Krodh kayay do the major cause but no-kahay is minor. No-kasha is not so stronge and also called Akahay. No-kasha needs help from the 4 major kashay(Krodh, Maan ,Maya, Lobh) to come out. EX- Like if you have maya or maan(kashay) them hasya kashay can come. It's depended in the 4 major kahay.

9 types of no-kashay:
Hasya , rati, artai, shook, Bhay, Jugupsa, 3 Ved



1-हास्य- To laugh/amusement on the funny stuff, worldly funny. Like the gods statue should not be laughing pose but it should be peaceful and veethraag pose. All kashay will damage the true nature of the soul. Hence the hasya kahsy also does the same thing.

2-रति- is to like somebody or something - is also the minor version is "RAAG". It can give you feeling to get more and forever. Like cat's love for milk or mouse

3-अरति – Is to not like anything or anybody

4-शोक- shook kashay is the gloominess/melancholy state after to loosing something or somebody, nice things in past, good friends, family.

4.1- Arth dhaya- Think about the old memories (good or bad) Arth dhyan can be for future/present like ‘vedana’.

4.2-रोद्र ध्यान - Raudra dhyan is to have fun in sinful activities like in hunting, eating meat, gambling etc.

4.3-धर्म ध्यान - To think about the religious things and dharm related

4.4-शुक्ल धयान- Is the kind of dhayn only attain by siddhya or trthanker bhagwaan.

5-भय- Bhay is the feeling to lose something and somebody (good and bad )

6-जुगुप्सा- The feeling of not likes something and somebody (hate is the intense form of Jugupsa). Do not want to keep close to him.

7-स्त्रीवेद – स्त्री को पुरूष के साथ रमन की इच्छा
8-पुरूष वेद मैं – पुरूष को स्त्री के साथ रमन की इच्छा
9-नपुंसक वेद - "यूग्पद" स्त्री और पुरूष के साथ रमन की इच्छा

कर्म भूमि और त्रियंच ke जीव के द्रव्य(body) or भाव वेद एक नही होती है Rule is that there may be cases in karm bhumi manushya and tiryanch where dravya and bhav ved are not same. But for every jeev it is not applied, only in some cases.

Thursday, November 13, 2008

Notes for Nov 12th, Page 39-40

Date: November 12th

Chapter 2.

Page: 39-40


On Nov 12, initially we did revision of 4 कषाय and talked about its 4 प्रकार.
4.
कषाय are - Krodh, Man, Maya, Lobh.
4.
प्रकार are Anantanubandhi, Apratakhanavarni, Pratakhanavarni and Sanjulan.
Because of Anantanubandhi
कषाय, Jive cannot be Samayak. Because of Sanjulan. कषाय Jive cannot express his YathaKhyatCharita, but it does allow expressing SakalCharita.


There is not time till now that any Sansari jive did not do
मिथ्यात्व and because of that कषाय. Hence Jive does not believe that कषाय is bad and never tried to give up कषाय. We tried to reduce कषाय, but never tried to remove मिथ्यात्व from root, which is right thing to do. मिथ्यात्व is root for कषाय. We also talked that because of our previous Punya, we are able to get this Vitrag Wani.


We also discussed how these
कषाय cause pain and people’s behavior under influence of these कषाय. We also talked about 6 Lesya. From Krishna Lesya which is too strong and Sukla which is too mild. We also talked all Sansari binds all 4 कषाय all the time.

There are 4 types of stage when Jive is मिथ्यात्व from strong to mild are base on Anubhag

· Sella,

· Asthi,

· Daru,

· Latha.

So order mentioned like To break Sella, it takes so much efforts, similarly Sella type of Mithyatva, takes so much efforts to break. But for Lakdi takes so less efforts to break it. So understand that within Mithyatva, some Mithyatva takes long time to remove, and other type’s takes less time.

Then we discussed, there are 4 types of Anger –

· Shilla(Big Stone),

· Pathavi ki Rehka,

· Dhuli ki Rehkha,

· Jal ki Rehkha.

One कषाय can be in Uday for minimum 1 Samay and maximum 1 Antarmurt.
Anantanubandhi is worst
कषाय because that one Samayak ka Ghat karti hai. The second worst is Sanjulan कषाय because that one YathaKhyatCharita ka Ghat karti and then comes pratyakhyan, apratyakhyan.


Then we discussed about which order for 4
कषाय in terms of Anubhag - Lobh, Maya, Krodh, Man. Here order for worseness of कषाय is in decreasing order. For example anantanubandhi Lobh is worse than anantanubandhi Maya, in that order. The same rules apply in similar order for pratyakhyan, apratyakhyan and Sanjulan.

In Human – Lobh, Maya, Krodh and Man is for more duration.
Intensity wise – Human has highest Man, Animal has highest Maya, Dev has highest Lodh and Naraki has highest Krodh.
When Jiv enters in to Moksh Marg, either 3, 2 or 1
प्रकारकि कषाय Uday hota hai. But definitely Anantanubandhi कषाय Chali jati hai.
At any time only 1
कषाय ka Uday Hota hotai. Besides one कषाय convert into another कषाय.


Written by: Sanjay Shah

Tuesday, November 11, 2008

class notes 11/10/08

जय जिनेन्द्र
अधिकार २ :: चरित्र मोह रुप जीव कि अवस्था

page no : 38,39


Revision:
--> ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म पर हमारा ज्ञान दर्शन कितना पराधिन है यह हमने देखा ,इससे यह बात कि सिध्दि होती है कि ज्ञानावरण और दर्शनावरण से यह जीव बंधा हुआ है जिसके कारण उसका ज्ञान दर्शन प्रगट नही हो पा रहा है।
--> मोहनीय कर्म : २ भेद है।
१) दर्शन मोहनीय: इससे मिथ्यात्व होता है। यह मोहनीय कर्म हमारे कमजोर बनने का सबसे बडा कारण है,इस बात कि समझ ( विश्वास ) हो जाना चहिये। यही हमारा सबसे बडा शत्रु है इसे हमे पहचानना होगा तभी हम इससे बचने का उपाय समझ और कर पायेंगे और सही पथ पर आगे बढ पयेंगे।
२) चारित्र मोहनीय: कषाय की उत्पत्ती होती है, जिसके कारण हमारे कर्म बन्धन होता है और सन्सार चक्र चलता रहेगा।
· दर्शन मोहनीय जब तक है तब तक कषाय रहेगी ही रहेगी।
· कभी दर्शन मोहनीय के बिना कषाय हो भी तो वह बहुत मंद होगी और उसका बन्ध भी मंद होगा।
· मिथ्यात्व सबसे बडा करण है कषाय का।
चार कषाय होती है :क्रोध, मान, माया, लोभ।
१. क्रोध :

प्र. क्रोध क्या है?
उत्तर : अंतर मे किसी भी प्रकार का उल्टा परिणमन वह क्रोध है।
जो प्रगट रुप से दिखाई ना दे परंतु अंतर मे आकुलता होती हो वह भी क्रोध है।

प्र. क्रोध आने के क्या कारण है?
उत्तर: १.जब हमारे अनुसार बात न हो अन्य परिणमन हो तो क्रोध आता है।
२.किसीने हमे कुछ बोल दिया और हमे बुरा लग गया पर उसे प्रगट भले ही ना किया हो तो वह जो बुरा लगा तब क्रोध आया जानना ।
३. कोइ हमे अच्छा नही लगता और अगर हम यह चाहे की उसका बुरा हो जाये तो जहा किसिका बुरा चाहा वहाँ क्रोध आया जानना।

Page 38 last line continue on pg 39
तथा आप स्वयं ---------------- बुरा चाह्ता है।
यहाँ बताया की क्रोध आता है तब सामने वाले सचेतन या अचेतन पदार्थ ने जो कुछ किया वह हमे गलत लगता है और तब क्रोध के कारण उस किये हुए कार्य या परिणमन को गलत कराके उस कार्य या परिणमन का बुरा चाह्ता है।
क्रोध के कारण कोइ किसिका कितना ही बुरा चाहे बुरा होना, तो भवितव्य (कर्म और बाह्य साधन ) के आधिन है।

प्र. पदार्थ मे इष्ट्पना या अनिष्ट्पना मानना इसका मतलब यह है कि पदार्थ इष्ट या अनिष्ट है?
उत्तर: पदार्थ कभी इष्ट या अनिष्ट नही होते, जीव अपने राग द्वेष रुप विभाव भावों से उन पदार्थो मे इष्ट्पना या अनिष्ट्पना मानता है ।
जब राग होता है तो पदार्थ इष्ट भासित होते है और जब द्वेष होता है तब अनिष्ट भसित होते है ।
उदा: कोइ अपने घर का सदस्य एक ही काम प्रतीदिन करता हो परंतु वह काम कभी राग या अच्छा लगने से इष्ट भसित होते है तो कभी वही कार्य द्वेष भाव से या अच्छा न लगने से अनिष्ट भासित होते है।

** द्वेष से क्रोध होता है:
जैसे पहले कहा कि दर्शन मोहनीय जब तक है तब तक कषाय रहेगी ही रहेगी, द्वेष तो कषाय रुप है. लेकिन मिथ्यात्व अवस्था में द्वेष शीघ्रता हो जाता है जिससे क्रोध कषाय होती है।
२. मान कषाय : मान का उदय होने पर पदार्थ को अनिष्ट मानकर उसे निचा दिखाना चाहता है और स्वयं ऊँचा होना चाह्ता है।
a. अपने आप को लोक मे ऊँचा दिखाने के लिए बहुत श्रंगारादिक करता है धन खर्च करता है ,एसा सोचता है कि अगर मैं एसा नही करुंगा तो लोग समझेंगे कि मेरे पास कुछ नही है तब वह किसी भी तरह अपने मान के लिए स्वय़ं सुंदर दिखे इसलिए श्रंगारादि करता है और धन खर्च करता है।

b. कोइ अगर ऊँचा कार्य करता हो तो वह उसे सुहाता नही और किसी भी तरह वह उसे निचा दिखाने का प्रयास करता है जिससे कि स्वयं ऊँचा सिध्द हो ।
Eg: अगर कोइ १००० रु का दान देता है तो या तो वह स्वयं उससे ज्यादा दान देगा और कहेगा कि देखो मेरे पास उससे कम धन होकर भी मेने उससे ज्यादा दान दिया एसा कहकर स्वय़ं को ऊँचा और उस व्यक्ति को निचा दिखाता है।
या फिर कह देगा कि इसमें कौनसा बडा काम किया इसके पास धन कि कोइ कमी थोडे ही है ।

c. स्वयं कभी निचा कार्य करेगा तो उसे ऊँचा दिखायेगा…
Eg: tax की चोरी करेगा और कहेगा की देखो मेने कितनी चतुराई से tax का गमन किया कि किसी को पता भी नही चला और स्वयं को ऊँचा दिखाने का प्रयास करेगा।

लेकिन यहाँ भी वही सिध्दांत् है कि प्रसिध्दि या महंतता प्राप्त करना भवितव्य आधिन है।

Ø “क्या कहेंगे लोग यही सबसे बडा रोग “ जो मान का ही पोषण करती है।
Ø “छोटे बडे का भाव ही मान का आधार”

प्र. क्रोध और मान दोनो ही पदार्थ मे अनिष्टपना करते है तो दोनो मे अंतर क्या है?
उत्तर: क्रोध मे जीव पदर्थ मे अनिष्ट्पना मानकर उसे नष्ट करना चाहता है,मान मे जीव पदार्थ में अनिष्ट्पना मानकर उसे निचा दिखाकर स्वयं को ऊँचा दिखाना चाहता है।

प्र. मान और क्रोध दोनो एक साथ भी हो सकते है?
उत्तर : एक समय मे एक ही कषाय का उदय होता है। एक कषाय का उदय कमसे कम एक समय और ज्यादा से ज्यादा अंतरमुहुर्त होता है। every कषाय leads each other.

३. माया कषाय : माया का अर्थ होता है छल करना, या मन-वचन-काया का समान न होना (मन मे कुछ,वचन मे कुछ और दिखाना या करना कुछ और ही ), ठ्गना- लोगो को ठगने के अभिप्राय से कार्य करना । अपना अभिप्राय प्रगट ना हो इसलिए अच्छापन दिखाना, अलग२ कार्य करना।

-> क्रोध और मान यह द्वेष रुप है इसलिए उसमें पदर्थोंमे अनिष्टपना होता है।
-> पदार्थों मे इष्टपना होता है, जिसके कारण मायाचार करता है, इसलिये माया राग कषाय है.

a. माया में जीव स्वयं को दु:खी दिखाता है ताकी वह दुसरो से सहानुभुती पा सके और उसके आधार पर लोगो को ठग सके। eg. रावण को सीताजी को पाना था ये तो उसका राग हुआ और उसके कारण उसने छ्ल (माया)से अपना स्वांग बदल कर सीताजी की सहानुभुती प्राप्त कर ली और फिर उनका हरण कर लिया।
b. माया मे स्वयं को ऊँचा दिखाकर भी छल करता है – भले हि स्वयं के पास उतना ना हो फिर भी किसी तरह स्वयं को ऊँचा दिखाएगा ताकी लोग उसे पुछे उस और आकर्शित हो विश्वास कर कभी कोइ धन या किमती वस्तु उसे दे दे तो वह उसे ठगले।

c. माया मे इष्ट की सिद्धी करना चाहता है जिससे वह स्वयं का अच्छा करना चाहता है वहाँ जिससे मायाचार कर रहा है उसका भले ही बुरा हो तो हो उससे उसका कोइ संबंध नहीं।
d. इष्ट की सिद्धी के लिए कुछ भी कर सकता है, किसी भी तरीके को अपना सकता है।
e. मानका पोषण करने के लिए भी जीव मायाचारी करता है क्योंकी यहाँ उसका मान में राग है।

४. लोभ कषाय : पदार्थ को इष्ट मानकर उसे प्राप्त करने की चाह रखना वह लोभ है ।
लोभ भी राग रुप है।

प्र: माया और लोभ में क्या अंतर है?
उत्तर: माया इष्ट्पने से पदार्थ को किसी भी तरह चाहे ठ्गकर हि क्यो न हो उसे पाना चाह्ती है।
लोभ मे जीव को उस पदार्थ मे इष्ट्पना तो होता है परंतु वह उसे राग वश सिर्फ प्राप्त करना चाहता है उसके लिये प्रयास करता है। eg: lobh to earn money

* Lobh in one way it is good as if it is done for our self our soul and it is bad if we do it in other things!!!!
Actually it is good only for the newcomers on mokshmaarg.
लोभ यह सर्वथा बुरा ही है परंतु अगर हम यह कहे की धर्म मे किसी जीव की शुरुवात है और वह अपने आत्मा के प्रति या धर्म के प्रति लोभ करे तो ठिक है वह प्रशस्त लोभ कहलाएगा और जब जीव ७ वें गुणस्थान मे पहुँच जाता है तब वहा यह प्रशस्त लोभ भी बुरा होगा।
अन्य वस्तु या पदर्थो मे लोभ करना वह अप्रशस्त लोभ है


पाँचो पाप कषाय के कारण ही होते है ।
कषाय से पाप रुप कार्य होते है ।

Trupti Jain




Monday, November 10, 2008

19th Nov - चारित्र मोहनीय व अंतराय कर्मोदय जन्य अवस्था - Cont

कषाय [क्रोध, मान, माया, लोभ] धर्म के क्षेत्र में भी पायी जाती है ।
कुछ उदाहरण -
क्रोध - धार्मिक विवादॊं में उलझना, मानवश क्रोध ।
मान - मंदिर में सभी मुझे धार्मिक जानें इस कारण से पूजा / ध्यान / स्वाध्याय / दान आदि करना ।
माया - पूजा / स्वाध्याय में दूसरों को दिखाने के लिये उत्साह दिखाना।
लोभ - धार्मिक क्रीया के पीछे सांसारिक लोभ ।

अंतराय कर्म - जिस कर्म के निमित्त से जीव जैसा चाहे वैसा ना हो । अंतराय कर्म ईच्छित वस्तु की प्राप्ति में विघ्न डालता है ।
भेद - १) दान-अंतराय २) लाभ-अंतराय ३) भोग-अंतराय ४) उपभोग-अंतराय ५) वीर्य-अंतराय

वीर्यांतराय कर्म के उदय वश जीव की ज्ञान-दर्शन आदि अनंत शक्तियां पूर्णत: प्रकट नहीं हो पातीं।

अंतराय कर्म का क्षयोपशम या क्षय होता है ।

Thursday, November 6, 2008

क्लास नवबंर ५ ०८ (प्रष्ट ३८)

दर्शन मोहनीय की ३ प्रकृतियां:

१. मिथ्यात्व - सर्वघाती, १ ला गुणस्थान ।
२. सम्यक मिथ्यात्व (मिऋ प्रकृति) - सर्वघाती, ३ रा गुणस्थान, केवल १ अन्तर मुहुर्त की अवस्था होत्ती है ।
३. सम्यक अवस्था - देश घाती, ४ - ७ वें गुणस्थान में होती है, यह सम्यकत्व मे दोश लगाती है, लेकिन उससे सम्यकत्व बाधित नहीं होता है ।

चारित्र मोह रुप जीव की अवस्था

कषाय
- सम्यकत्व, देश चारित्र, सकल चारित्र को होने नहीं देती है ।
- आत्मा के स्वभाव का घात करती है ।
- राग द्वेष ये कषाय रुप है ।
- आत्मा को कसे अर्थात दुख दे वह कषाय है ।

- पर पदार्थों को अपना मानना ही कषाय का मुल कारण है ।
- एक समय मे एक ही कषाय उतपन्न होती है ।

क्रोध
- क्रोध का उदय होने पर, पर पदार्थों में अनिष्ट पना मानकर उनका बुरा चाहता है ।
- क्रोध का मूल कारण - जब अपने अनुसार काम न हो, अन्य परिणमन हो तब क्रोध आता है ।

मान
- मान घमंड को कहते है ।
- पर पदार्थों में अनिष्टपना मान कर उसे नीचा करना चाहता है, स्वयं ऊंचा होना चाहता है ।

Wednesday, November 5, 2008

दर्शन मोहरूप जीव की अवस्था, page 38, date 4th Nov.

-->मॊहनीय कर्म के २ भेद :-
१) दर्शन मोहनीय--> के उदय से मिथ्यात्व
२) चारित्र मोहनीय--> के उदय से कषाय

प्र० मिथ्यात्व किसे कहते है?
उ० जीव के अतत्वश्रद्धानरूप परिणमन को मिथ्यात्व कहते है अर्थात विपरीत या उलटी मान्यता ही मिथ्यात्व है। जैसे देव, शास्त्र गुरु के सम्बन्ध में उलटी मान्यता या सात तत्वों, छः द्रव्यों के सम्बन्ध में उलटा जानना आदि।

मिथ्यात्व अवस्था में जीव स्व-पर का भेद नहीं कर पाता। जैसे स्व अर्थात ज्ञानादिक गुण जो कि स्वयं आत्मा के हैं और आत्मा अमूर्तिक है। और पर अर्थात स्व की आत्मा को छोडकर जितने भी पदार्थ हैं सब पर हैं। तो मिथ्यात्वी जीव शरीर आदि पुद्गल जो पर हैं उनको अपना मानता है उनमें अहंबुद्धि धारण करता है कि ये शरीर मेरा है, मैं गोरा हूं, मैं लडका हूं, मैं वकील हूं आदि। मनुष्य पर्याय में रहे तो उसी पर्याय को अपनी मानता है और तिर्यंच पर्याय को बुरा मानता है और तिर्यंच पर्याय में तिर्यंच पर्याय को अपना मानता है।

स्वभाव परभाव का विवेक नहीं कर पाता। जैसे ज्ञान, दर्शन, चैतन्य जीव के स्वभाव हैं अपने गुण हैं। और राग द्वेष आदि कर्मों के निमित्त से औपाधिक भाव हैं अर्थात विभाव भाव हैं। तो मिथ्यात्वी राग द्वेष आदि विभाव भावों को अपना मानता है। वर्णादिक अर्थात शरीर के गुण जैसे गोरा-काला, बडा छॊटा, मोटा-पतला, जवानी-बुढापा, ठंडा गर्म लगना, ये सब पुद्गल परमाणुओं का आना जाना होता रहता है जिससे ये सब अवस्था होती हैं उनको उस रूप न जानकर सब को अपना स्वरूप मानता है। अन्य बाह्य पदार्थ जैसे धन-कुटुम्ब आदि को अपना मानता है जब कि ये प्रत्यक्ष भिन्न दिखाई देते हैं परन्तु उन सब को मानता है कि ये मेरे हैं।
इस प्रकार ऊपर लिखी सब अवस्था अगृहीत मिथ्यात्व में आती हैं।

मिथ्यात्व के २ भेद:-
१) अगृहीत मिथ्यात्व--> अनादिकालीन विपरीत मान्यता
२) गृहीत मिथ्यात्व--> जो भी वर्तमान पर्याय में नया सुनकर या उपदेश द्वारा विपरीत ग्रहण किया है। जैसे किसी उपदेश से कल्पित रागी द्वेषी देवताओं को कल्याणकारी मान लेना।

--> गृहीत मिथ्यात्व संज्ञी पंचेन्द्रिय को पाया जाता है उसमें भी मुख्यतया मनुष्य पर्याय में पाया जाता है।

प्र० दोनों मिथ्यात्व में से पहले कौन सा मिथ्यात्व जायेगा?
उ० पहले गृहीत मिथ्यात्व जाता है क्योंकि नवीन अर्जित गृहीत मिथ्यात्व के त्याग के बिना अगृहीत मिथ्यात्व नहीं छूटता। गृहीत मिथ्यात्व का त्याग करना मनुष्य के अपने आधीन है क्योंकि उसने उसे अपने अज्ञान भाव से ग्रहण किया है अतः अपने ज्ञान भाव से छोड भी सकता है।

दर्शन मोहनीय का जहां तीव्र उदय होता है अर्थात तीव्र अनुभाग सहित उदय होता है वहां बहुत विपरीत श्रद्धान करता है, और जहां कम उदय या कम अनुभाग सहित उदय होता है वहां थोडा विपरीत श्रद्धान करता है।

दर्शन मोहनीय के सर्व घाति स्पर्धक ४ प्रकार के हैं:-
१) शैल= पाषाण(पत्थर)
२) अस्थि= हड्डी
३) दारु= लकडी
४) लता= बेल

शैल और अस्थि १-५ इंद्रिय असैनी पंचेन्द्रिय के होते हैं अर्थात उसमें इतना तीव्र उदय होता है कि वो सुन भी नहीं पा रहा, उसको कुछ सुनने को भी नहीं मिल रहा, सुनने की योग्यता ही नहीं है, उपदेश की अपात्रता पर्याय अपेक्षा है।
दारु संज्ञी पंचेन्द्रिय को होते हैं अर्थात उस जीव को सुनने की योग्यता तो है परन्तु सुन नहीं पा रहा, उसको उपदेश की अपात्रता उपदेश सुनने की अपेक्षा है।

Tuesday, November 4, 2008

11/3/08 chapter 2, मोहनीय कर्मोदयजन्य अवस्था, पेज 37

मन:पर्ययज्ञान के भेद:
१.ऋजुमति ज्ञान:
-दुसरे के मन मे स्थित होने पर भी जो सरलतया मन, वचन, काय के द्वारा किया गया हो, ऎसे पदार्थ को विषय करने वाले ज्ञान को ऋजुमति ज्ञान कहते है ।
-वर्तमान में जिसका चिन्तवन किया जा रहा है ऎसे त्रिकाल विषयक रुपी पदार्थ को ऋजुमति ज्ञान जानता है ।
अर्थात वर्तमान में जो भूत, भविष्य तथा वर्तमान के बारे में जो सरल रुपी पदर्थो का विचार ऋजुमति ज्ञान का विषय है।
२. विपुलमति ज्ञान :
दुसरे के मन में स्थित भूत, भविष्य, वर्तमान में जिसका चिन्तवन किया जा रहा हो ऎसे सरल अथवा कुटिल विषयों को विषय करने वाले ज्ञान को विपुलमति ज्ञान कहते है ।

* अवधि ज्ञान व मति ज्ञान में अंतर:

प्रश्न: अवधिज्ञान के बाद मन:पर्यय ज्ञान को क्यों रखा?
उत्तर: - मन का विषय ज्याद सूक्ष्म है ।
-मन:पर्यय ज्ञान मोक्ष अ केवल ज्ञान के समीप है, इसलिये उसे अवधि ज्ञान के बाद रखा।

प्रश्न: बुढापे में मति,श्रुत ज्ञान कम क्यों हो जाता है?
उत्तर:- पूर्व में बहुत संक्लेश परिणाम करने के कारण कषाय की तीव्रता से क्षयोपशम कम हो सकता है।
- शरीर नामकर्म के उदय से।
- इन्द्रियों में शिथिलता आ जाने के कारण।

प्रश्न: नींद में ज्ञान उत्पन्न होता हुआ मालुम पढता है, किन्तु दर्शन तो होता नहिं है क्योंकि निद्रा का उदय चल रहा है और निद्रा सर्वघाति है. सो ज्ञान कैसे होता है?
उत्तर: - पहले उस वस्तु का दर्शन हो चुका है।
- निद्रा प्रक्रति का उदय maximum अन्तर्मुहुर्त में होता ही होता है, उसके बाद उसमें gap होगा ही होगा । तो जब निद्रा प्रक्रति का उदय नहीं है तब दर्शनोयोग हो जायेगा।
इसी प्रकार जब हम जागते रहते है तब निद्रा का उदय सूक्ष्मरुप है, व्यक्त नहीं है इसीलिए दिखाइ नहीं देता।

पेज ३७: अब इस जीव के मोहनीय कर्मोदयजन्य अवस्था:

* दर्शन मोह के उदय से मिथ्यात्ब भाव होता है।
*चारित्र मोह के उदय से कषाय भाव होता है।

दर्शनमोह रुप जीव की अवस्था:

*आत्मा अमूर्तिक प्रदेशों का पुंज है, वह science आदि के द्वारा नहिं जाना जा सकता, प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणों का धारी है, अनादिनिधन है, वह स्व है ऎसा प्रत्येक जीव का स्वरुप है।

* जो मूर्तिक है, पुदगल है ये शरीर आदि तथा उसके संयोग से प्राप्त पदार्थ, पर्यायें, ये ज्ञानदि से रहित है, पर है।

* सो इन पर पदर्थों के संयोग से जो पर्यायें उत्पन्न्न हो रही है उनमें ये मैं ही हूं, जो न तो जीव है न तो पुदगल है, उससे जो mix state बनी है उसमें अहंबुद्धी करता है, स्व पर का भेद नहीं कर पाता है ।
सो इस प्रकार यह जीव विपरीत श्रद्धान रुप प्रवर्तन करता है।