chapter 2 :दोष कल्पना निराकरण ...
पेज न. २९९ ४था paragraph तथा आगम के अनुसार उपदेश.... till पेज न. ३०२ ..विघ्न नहीं है।
* जो व्यक्ति आगम के अनुसार सच्चा उपदेश देता है तो ऐसे व्यक्ति का कदाचित क्रोध भी क्षमा के योग्य है किन्तु श्रोता को उसे गुण ही मानना चाहिये, उस क्रोध को ग्रहण नहीं करना चाहिये ।
* जिस प्रकार जब जो औषधि जितनी मात्रा मे गुन्कारि हो उतनी ही लेना उसी प्रकार उपदेश तो सब सुनना किन्तु अपने मे जो विकार हो, वो दुर हो सके उसे ग्रहण करना, अपनी अवस्था के अनुसार उपदेश ग्रहण करना ।
*जिस तरह से गरिष्ठ भोजन स्वास्थ्य के लिये बहुत अच्छा है, किन्तु कोइ बीमार व्यक्ति उसे ग्रहण करे तो उसे और तकलीफ होगी उसी प्रकार अपने निचली दशा का भी त्याग नहीं हुआ है, अशुभ विकार भी नहीं छुटे है तथा ऊंची दशा के त्याग को ग्रहण करना चाहे या निर्विक्ल्प दशा को अंगिकार करना चाहे तो दोष ही उत्पन्न होगा, विकार ही बढेंगे ।
*जिनवाणी स्याद्वाद मयी है और अनेकांत युक्त है सो सिर्फ अर्थ से उपदेश को ग्रहण नहीं करना, उपदेश का क्या प्रयोजन है, किसके लिये दिया है, उसमें क्या अपेक्षा है, जानकर ग्रहण करना ।
*यदि इतनी तर्क बुद्धि नही लगा पाये तो जिस प्रकार से यथार्थ श्रद्धान हो , रागादि घटे उसी उपदेश का प्रयोजन ग्रहण करे ।
प्रश्न : यदि शास्त्रों में ही एक ही बात पर परस्पर विरोध हो तो क्या करे?
उत्तर : यहा पर हम अपेक्षा नहीं लगा सकते । कालादि दोष, ज्ञानादि के अभाव से या कषाय के कारण एसे कथन पाये गये इसलीये कथन में विरोध भासित होने लगा । मूल सात तत्वों आदि में विरोध भसित हो तो व तो आप हि भासित हो जयेगा, किन्तु यदि अन्य कथन का निर्धार न हो तो ये करें:-
१. प्रामाणिकता मिलाना: बडे आचार्यों आदि का कथन प्रमाण मानना ।
२. आम्नाय मिलाना: जो कथन परम्परा आम्नाय से मिले उसे प्रमाण मानना ।
३.फिर भी सत्य - असत्य का भान न हो सके तो " जैसे केवली भगवान को भासित हुए है , वैसे प्रमाण मानना।
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1 comment:
Thanks for posting.
One correction:
...ऊंची दशा का त्याग करना चाहे या निर्विक्ल्प दशा को अंगिकार करना चाहे तो दोष ही उत्पन्न होगा, विकार ही बढेंगे ।...
This should say 'ऊंची दशा के त्याग को ग्रहण करना चाहे या निर्विक्ल्प दशा को अंगिकार'
- Vikas
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