Thursday, October 30, 2008

Notes from October 29th, 2008 , page # 36-37

*
-> ज्ञानावरण और दर्शानावरण का उदय तो ज्ञान और दर्शन के अंश का अभाव करता हे।
-> उनका (ज्ञानावरण और दर्शानावरण ) क्षयोपषम से ज्ञान और दर्शन के अंश प्रगत होते हे।
-> इस तरफ़ ज्ञान और दर्शन की शक्ति प्रगटता ज्ञानावरण और दर्शानावरण के क्षयोपषम के सापेक्ष हे।

*
-> क्षयोपषम से शक्ति प्रगट होने पर भी उस शक्ति का संपूर्ण १००% उपयोग/सदभाव एक समय मे नही होगा।
-> एक समय मे सिर्फ़ एक विषय या तो दीखता हे या जाना जाता हे। यानी ग्यानोपयोग होगा तब दर्शानोपयोग नही होगा। दर्शानोपयोग होगा तब ग्यानोपयोग नही होगा।
-> अरे ग्यानोपयोग होगा तो उसमे भी एक ही भेद मे उपयोग होगा। द्रष्टान्त: मति ज्ञान हो तो श्रुत ज्ञान नही होगा।
-> उस एक भेद का भी एक ही विषय जान पायेगा। रस को जानेगा तो स्पर्श को नही जानेगा।
-> एक विषय के भी एक ही अंग को जानेगा। उष्ण स्पर्श को जानेगा तब रक्षा आदि स्पर्श को नही जानता।

* प्रश्न:
-> एसा भास् क्यो होता हे की युगपत कई सारे विषयो का जानना और देखना हो रहा हे।
-> ग्येय के बदलने की चंचलता काफ़ी अधिक मात्रा मे पायी जाती हे, इस लिए परिणाम की सिध्रता से एसा मान लेता हे।

* प्रश्न:
-> अगर एक समय मे एक ही बिषय को जान या देख सकते हे तो उतना ही क्षयोपषम हे एसा क्यों नही कहते?
-> व्यवहार मे भी शक्ति होने पर जरुरी नही हे की उस शक्ति का उपयोग हो ही। इसी तरफ़ ज्ञान या दर्शन की शक्ति पाये जाने पर भी वर्तमान पर्याय मे उस का उपयोग न भी हो।

* प्रश्न:
-> एसा कहते हे की मति ज्ञान आदि की शक्ति ज्ञानावरण के क्षयोपषम से ही पाई जाती हे तो आत्मा मे तो केवल ज्ञान की भी शक्ति पायी जाती हे, वोह कहा क्षयोपषम से होती हे?
-> केवल ज्ञान तो आत्मा मे त्रैकालिक शक्ति के स्वरुप मे हे और वोह तो द्रव्य अपेक्षा हे। जब की ज्ञानावरण के क्षयोपषम से जो भी मति ज्ञान आदि हे वोह तो आत्मा मे वर्तमान पर्याय मे सामर्थ्य स्वरुप शक्ति के रूप मे हे।
-> अगर संसारी छद्मस्थ जीव पुरुषार्थ करे तो उपयोग स्थिर करने पर वर्तमान पर्याय मे व्यक्त मति ज्ञान को प्रगट कर सकेगा। जब की केवल ज्ञान तो छद्मस्थ जीव मे अव्यक्त हे तो फिर प्रगट कर ही नही शकता, पहले तो पुरुषार्थ करके उसे ज्ञानावरण के आवरण को दूर करना पड़ेगा तब जाके केवलज्ञान व्यक्त होगा।

* प्रश्न:
-> क्षयोपषम होने पर भी अगर बाह्य इन्द्रिया का निमित्त ना मिले तो देखना या जानना नही होगा तो कर्म की ही निमित्तता कहा रही?
-> यह कर्म के क्षयोपषम का ही विशेष हे यानी कर्म का क्षयोपषम ही इस प्रकार का हे की उसे बाह्य द्रव्यों का निमित्त मिलेगा तो ही देखेगा या जानेगा।
-> द्रष्टान्त: मनुष्य को अन्धकार मे नही दिखेगा जब की उल्लू को उसी अन्धकार मे ही दिखेगा - सो यह क्षयोपषम का ही विशेष हे।

Tuesday, October 28, 2008

Notes from class of October 28, 2008

Notes from class of October 28, 2008
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Q. Why we celebrate Diwali?

Es din pe Mahavir bhagawan ka nirvaan hua es liye Diwali ka din bhagwan Mahavir ka nirvan kalyanak hai. But according to Hindu manyata, they celerate Diwali due to Ramchanraji's arrival in Ayodhya.

Q. Are we happy on Diwali - Yes!! But kya hame kushi honi chahiye yaa dukh?

We lost our last thirthankar and now there won't be any divya dhvani for us. Ye bhagwan ke liye happy occasion hai but hamrare liye to bahut unfortunate din hai.. Ye hamare liye happy hai yadi hum jane hum diwali kyu manate hai and bhagwan mahavir ka sandesa jivan me utare but yadi hum laukik way se celebrate kare to ye hamare liye bahut dukh ka din hai.

Q. What abt dhan teras?

Hum lakshmi / dhan pujan karte hai but eska vidhan Jainism me nahi hai. It is actually dhanya teras because ek din pehle yog nirodh hua - it is the last divya dhwani, samvasharan vighatit ho gaya. Yog nirodh is 14th gunstanak ke pehle ki prakriya- 14th is ayogi gunsthanak. Yog nirodh can last for several days, one day or a few seconds depending on the karmas of the tirthankar.

Q. hum light and candle kyu jalate hai?

Dipak gyan ki jyoti ka symbol hai. Hume moh ke andhkar ko nash karke kevalgyan ki prapti karni hai - deepak will destroy darkness of moh and mithyatva. We should do mahavir swami’s and gautam swami’s puja - but not lakshmiji or ganpatiji’s puja. Yeh grahit mithyatva badhata hai.

Page 35- Avdhi gyan, Manah paryay gyan or Keval gyan ki pravrutti:

Avdhi gyan ki pravrutti rupi padarth mein spasht hoti hai. Avdhi means limit/maryada. The limit is dravya, kshetra, kaal bhaav. It is found in dev and naarki for everyone (bhav pratyay- Avdhi gyan kaa kshayopsham automatically happens in this bhav - no special effort required). In manushya and tiryanch it is not found in everyone. Sangni panchendriyas have the potential for Avdhi gyan. Samyaktva ki jarurat nahi hai for Avdhi gyan.


Q. Kya narki aapne purvabhav ko jante hai?

Narki ko bahut limited Avadhi gyan hota hai aur kshetra ki maryada ke karan wo nahi jaan sakte. But, khabhi unko jaati smaran gyan ho or dev unko remind kare to wo jaan sakte hey lekin apne Avadhi gyan se nahi.

Whatever we remember abt yesterday is due to mati gyan - even then it is very sthul and we do not remember any details. Esi liye ye Avdhi gyan nahi hai. Jaati smaran is a type of mati shrut gyan since it is not very clear or pratyaksh/spasht. Devs have the most avdhi gyan but unme bahut mithyatve hota hai - Wo vishay sukh me lin rehte hai hence unable to achieve samyaktva. It is similar for us also - we know everything here is temporary yet we are unable to attain virakti from vishay shukh.

Avdhi gyan ke three types - Deshavdhi, Parmavdhi and Sarvavdhi. Gun pratyay and bhav pratyay are the types of Deshavdhi. The other 2 are found only for manushya and that also only sanyami munis. Only deshavdhi can be found for all jeevs. Therefore Gun pratyay avdhi gyan can be found in all 3 types but Bhav pratyay avdhi gyan is found only in sayami muniraj.

Manah paryay gyan can be found only in 6th-12th gunsthanak only in sanyami muniraj. Also unko 64 riddhis me se koi ek riddhi honi chahiye and unka charitra uttam hona chahiye. So yeh gyan unko hi hota hai jo moksh ke right track (najadik) par hai.



-Harshil

Classnotes for 10/27/2008 Pages: 34 and 35

Definitions :

Matigyan = Maan + Indriya ke madhyam se jo gyan uttpan hota hai. (Samanya gyan)
Shrutgyan = Matigyan se jane gaye aarth ke sambandh se anya (other) ko jananaa yaa usi vastu ke sambandh me vishesh janana.Vishaish gyan)

Example : Yah laptop hai ye matigyan hai aur laptop se internet access kar sakte hai woh shrutgyan hai.

Kisi bhi chiz ko jane wah matigyan hai, aur uske aache-bure ka vichar, sukh-dukh ka vichar, wah shrutgyan hai. Jaise sparsh karne se hum thunde-garam ka aanubhav kar sakte hai per garam chiz ko sparsh karne se jalan hoti hai, uska sprash hitkari nahi hai, usse dur hatana hai - wah shrutgyan hai.

Types of Shrutgyan:

1) Akshratmak Shrutgyan= Shabdo se jo gyan hota hai vah akshratmak shrutgyan hai, jo chakshu/sparshsendriy se mil sakta he.
2)AanakshratmakShrutgyan= Sprashsendriya/Rasendriya/ghranendriya /chakshu-indriya/man se jo vishesh gyan hota hai vah aanakshratmak shrutgyan hai.
- Ekendraiy se aasngni jiv ko aanakshratmak shrutgyan hi hota hai.
- Sangni Panchaindriy jiv ko dono hote hai.
Shrutgyan ki paradhin (dependent) pravruti :

Matigyan maan , indriy & bahya nimit per paradhin hai; jab tak matigyan nahi hoga shrutgyan ka prashna hi nahi uthta. Isliye shrutgyan maha-paradhin mante hai.
Meaning of Avadhigyan :
kshaitra-kaal ki maryada ke anusar rupi padarth ko janna vaha avadhigyan hai.
Avadhigyan dev & narki me sabhiko hota hai per sangni pachaindriy tiryanch & manushyo me kisi kisi ko paya jata hai, so wah bhi shariradi ke paradhin hai.
Types of Avadhigyan :

1) Deshavadhi gyan = Yeh dev/naraki/manushya/tiryanch ke paaya jata hai. Dev/naraki ka yeh avadhi gyaan ‘bhav-pratyaya’ kahlata hai. Manushya/tiryanch ka yah gyaan ‘gun-pratyaya’ kahalata hai.

2) Permavadhi gyan = yeh sayami muniraaj ke hi paaya jaata hia.

3) Sarvavdhi gyan = yeh bhi sayami muniraj ke hi paya jaata hai.
Parmavadhi gyan, Sarvavdhi gyan aur Manhparyay gyan mokshmarg me hi pragat hote hai, kevalgyan bhi mokshrupi hai, jiska is pancham kal me abhaava hai.

Thursday, October 23, 2008

Notes from 22nd October, 2008, pg 32-34

कर्मबंधनरूप रोगों के निमित्त से होनेवाली जिवकी अवस्था

यह अधिकार में ८ कर्मो के कारण से जिव की कैसी अवस्था होती है उसके बारे में बताया गया है.
मतिज्ञान की पराधीन प्रवृति:

ज्ञानावरण - ज्ञान में आवरण करना
मतिज्ञान - मन + इन्द्रिय के निमित्त से जो ज्ञान उत्पन्न होता है
श्रुतज्ञान - शब्द सुनने के बाद अच्छे - बुरे का विचार करना

मतिज्ञान सामान्य है, श्रुतज्ञान विशेष है

मतिज्ञान की पराधीनता कैसे है ?
  • कोई भी जिव को मतिज्ञान ५ इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है / जानता है. आत्मा ज्ञान से जानता है परन्तु द्रव्य इन्द्रिय और मन का सम्बन्ध होने पर ही वो जानता है.
  • ज्ञान का क्षयोपशम वही रहेता है परन्तु द्रव्य इन्दिर्य तथा मन के परमाणु अन्यथा परिणमित हुऐ हो तो जान नही सकता अथवा थोड़ा जानता है, क्योंकि द्रव्य इन्द्रिय तथा मनरूप परमाणुओ के परिणमन को और मतिज्ञान को निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध है, इसलिए उनके परिणमन के अनुसार ज्ञान का परिणमन होता है.

  • ज्ञान को और बाह्य द्रव्यों को भी निमित्त - नैमितिक सम्बन्ध है - लाल काच लगा देने से वास्तु लाल दिखती है अलग - अलग बाह्य पदार्थ से ज्ञान कम - ज्यादा होता है
  • ज्ञान द्वारा जो जानना होता है वह अस्पष्ट जानना होता है, संशय रहित नही होता

इन्द्रिय की मर्यादा:
  • इन्द्रिय द्वारा जितने क्षेत्र का विषय हो उसमे वर्त्तमान सम्बन्धी स्थूल पुदगल जान सकते है , उससे ज्यादा नही जान सकते
  • अलग अलग इन्द्रिय द्वारा अलग अलग काल में किसी स्कंध के स्पर्शदिक का जानना होता है, एक साथ नही जान सकते
  • एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय का कम नही कर सकती, अगर आँखे अच्छी हो परन्तु सुन नही सकती सिर्फ़ देख सकती है

मन द्वारा:
त्रिकाल सम्बन्धी, दूर क्षेत्रवर्ती, समिपक्षेत्रवर्ती, रूपी - अरुपी द्रव्यों और पर्यायो को अस्पष्टरूप से जानता है. क्षेत्र - काल की मर्यादा नही है परन्तु अस्पष्ट जानता है

ज्ञान होने के लिए क्या जरुरी है?
  1. मतिज्ञानावरण का क्षयोपशम
  2. चक्षु , अचक्षु दर्शनावरणीय क्षयोपशम
  3. निद्रा क्षयोपशम
  4. विर्यांतराय क्षयोपशम - ज्ञान धारण करने की शक्ति के लिए


Thursday, October 16, 2008

15th Oct 2008 - दूसरा अधिकार [अब तक]

१) कर्म का बन्ध अनादि से है ।
२) उत्कृष्ट बंध 70 कोडा कोडी [मोहनीय] ।
३) भाव-कर्म और द्रव्य कर्म में निमित्त-नैमॆत्तिक संबंध है ।
४) घातीया-अघातिया कर्म, आत्मा के स्वभाव के घातने-न घातने से नाम पाते हैं ।
५) कर्मों की दस अवस्थाऎं -
१) बंध २) उदय ३) सत्ता ४) उदीरणा ५) अपकर्षण
६) उत्कर्षण ७) संक्रमण ८) उपशांत ९) निधत्ती १०) निकाचित
६) नित्य निगोद [निगोद, जहां से जीव अभी तक निकले ही नहीं हैं]
इतर निगोद [एक बार नित्य निगोद से निकलकर पुनः निगोद]
दोनों के दुखॊं में कोई भेद नहीं है ।
उतक्रष्ट काल - नित्य निगोद - अनादी अनंत
इतर निगोद - ढाई पुदगल परावर्तन
एकेंद्रीय - असंख्यात पुदगल परावर्तन

मति ज्ञान - इंद्रीय और मन के द्वारा होने वाला परोक्ष-ज्ञान ।

Wednesday, October 15, 2008

Notes from class of October 14, 2008

October 14, 2008:
Chapter 8 pg 304: Anuyogo ka Abhyaskram:

We started the class with homework assignment of naming 10 granths in each of the Anuyogs.

Prathmanuyog:
  1. 24 Tirthankar Puran
  2. Adi Puran
  3. Harivansh Puran
  4. Padam Puran
  5. Maha Puran
  6. Uttar Puran
  7. Shambhukumar Charitra
  8. Nagkumar Charitra
  9. Dhanyakumar Charitra
  10. Adhyatma Yogi Ram Charitra

Karnanuyog:

  1. Gomatsar Jeevkand
  2. Gomatsar Karmakand
  3. Shatkhand Aagam
  4. Kshapnasar
  5. Labdhisar
  6. Dhavlaji
  7. Maha Dhavla
  8. Jai Dhavla
  9. Triloksar
  10. Panch Paravartan aur Sansar Bhraman

Charnanuyog:

  1. Rayansar
  2. Ashtapahul
  3. Ratnakaran Shravakachar
  4. Mulachar
  5. Sanyam Prakash
  6. Niyamsar
  7. Purusharth Siddhi Upay
  8. Bhagwati Aradhna
  9. Acharang Sutra
  10. Angardharmavrat

Dravyanuyog: This is further classified into Adhyatma, Aagam and Nyay-

Adhyatma:

  1. Samaysar
  2. Atma Khyati
  3. Ishtopdesh

Aagam:

  1. Tatvarth Sutra
  2. Dravya Sangrah
  3. Panchastikay

Nyay:

  1. Nay Chakra
  2. Nyay Deepika
  3. Pravachansar

Other Dravyanuyog granths:

  1. MMP
  2. Tatvanusharan
  3. Nay Tatva
  4. Yogsar
  5. Parmatma Prakash

Why is it important that we know the names of these granths?

These granths are our virasat, our treasure. As we know all details about our laukik assets like money, jewelry, stocks etc., we should know about our granths as well since they are our assets. Money et. will give us bhog prapti but aagam se dharm ki prapti hoti hai. We tend to be happy to see increase in our personal assets; similarly, apne dharm granth ke naam sunkar, jaankar hamey prasannta honi chahiye, otherwise we do not have ruchi in dharm.

Additionally, knowing these granths makes us realize how limited our knowledge is and therefore we should not be proud of any (little) knowledge we have acquired. It also helps us imagine the vastness of avdhi gyan, manah paryay gyan and of course keval gyan. These granths are like medicines- once we figure out what we are suffering from (raag, dvesh, mithyatva etc.) we need to know what medicines are available so we can pick the appropriate ones to get rid of our ailment.

Pg 304-

Here it is advised that we should first start our learning with Prathmanuyog. However, there is no specified order of learning the Anuyogs. We should understand which level of awareness we are at and study those scriptures that help improve our parinam (reduce raag dvesh etc.) If studying a granth causes us to be dharm vimukh, that is not the right one for us (for e.g. if we read dravyanuyog and think that doing kriyas won't take us anywhere and stop doing kriyas that would be wrong).

It is not necessary to finish one granth/anuyog and then pick up the other. We can simultaneously study multiple granths if so desired.

Bottom line is that we should study granths that talk about vitrag vigyan, reducing mithyatva, emphasise anekantvad through syadvad and help us remain enthusiastically involved and interested in eventually attaining samyak gyan.

Finally, it is mentioned that aagam gyan is the first step towards moksh. There could be a potential for contradiction there since we have earlier learnt that samyak darshan is the first step towards moksh. The resolution is that aagam gyan will lead to samyak gyan which will lead to samyak darshan. Aagam gyan is the first saadhan and samyak darshan is the first sadhya.

Note: There is no specified order of learning the Anuyogs. But there is a niyam as relates to adhyatma. We should first study Aagam, mul granth, tatva gyan etc. before studying adhyatma granths. Anya anuyog mein niyam nahi phir bhi vidvan sanmat kram hai. For a child, we should first start with Prathmanuyog and Charnanuyog i.e. start with kriyas first such as puja karna, ratri bhojan nahi karna etc. with reasons as to why we do the kriyas. Then we can introduce dravyanuyog and karnanuyog with emphasis on karma theory, structure of trilok, swarg nark etc. This kram is not scripted anywhere but based on experience.

Shweta

Tuesday, October 14, 2008

Class of Monday Oct 13, 2008 Page 302

अनुयोग का प्रयोजन किया है चारो अनुयोग मैं एक साध्य की सिद्धि मैं पूरक हैं
Question- अनुयोगों मैं विरोध रूप से कभी कथन मिलता है ? Ans- उसका उत्तर है की काल दोष के कारन कही-कही विरोध कथन हुए है
प्रत्यक्ष ज्ञान- अवधि , मन: परयः ज्ञान, केवल ज्ञान (और बहु श्रुत का ज्ञान इस काल मैं नही पाए जाते)
परोक्ष ज्ञान- मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान (ही इस काल पाया जाता है)
जैन मत मैं अन्यथा बात मिलाने वाले कषाय (भय, लज्जा, क्रोध, मान) प्राणी भी इस काल में कदाचित्‌ होते हैं. क्या करना- जो बड़े आचार्य आगम परम्परा को मानते है उसे स्वीकार करना. अपना प्रयोजन तक विश्लेषण ही करना, ज्यादा नही करना. 7 तत्वों का / देव-गुरु-शास्त्र का / पदार्थों का विरोध रूप वर्णन करे, तो विश्लेषण करना चाहिए. सम्यक दर्शन मैं संशय बिभ्रम, अनध्यवसाय, विपरीत ज्ञान न हो यह जरूरी है. यह बातें कि - भगवान् की आयु कितनी थी, एक इन्द्रिय जीव को सासादन गुणस्थान जिसमे 2 रुप बाते मिल जाती है, तो दोनो को हि मान्य कर लेना, क्योंकी इससे मोक्ष मार्ग मैं बाधा नही पहुचती है.
प्रयोजन अगर वीतरागता को पोषण करता है वही मान्य है, इसलिए अन्य मत का कथन सदोष होता है. कियोकी वह वीतरागता को पोषण नही करता इसलिए मान्य नही है

अन्य मत और वीतरागता:
Question -वीतरागी bhagwaan को वीतराग भाव होता है तो क्यों समवशरण आदी बिभूति होती है?
Ans- भगवान् की इच्छा से बिभूति नही ही बल्कि देवकृत है वीतराग भगवान् तो समवशरण मैं भी अलिप्त है. पर अन्य मत मैं भगवान् बिभूति से लिप्त दिखाई देते है परस्पर विरोध दिखाई देते है without proof कथन भी मिलते है जिन मत मैं जो भी कथन है वह सब निर्दोष है
इसलिए वही मान्य है

Question - पहले किस अनुयोग का अभ्यास करे- Realize yourself
आचार्य बीरसेन स्वामी का लेख धवाला जी मैं (insight) - महावीर स्वामी की आयु की 72 बर्ष की थी या भीर ७१.३ बर्ष की थी - इनमे से किसे एक कथन को मान लेने मैं कोई बाधा नही होती है

Thursday, October 9, 2008

class notes on 10/8/08

chapter 2 :दोष कल्पना निराकरण ...
पेज न. २९९ ४था paragraph तथा आगम के अनुसार उपदेश.... till पेज न. ३०२ ..विघ्न नहीं है।

* जो व्यक्ति आगम के अनुसार सच्चा उपदेश देता है तो ऐसे व्यक्ति का कदाचित क्रोध भी क्षमा के योग्य है किन्तु श्रोता को उसे गुण ही मानना चाहिये, उस क्रोध को ग्रहण नहीं करना चाहिये ।

* जिस प्रकार जब जो औषधि जितनी मात्रा मे गुन्कारि हो उतनी ही लेना उसी प्रकार उपदेश तो सब सुनना किन्तु अपने मे जो विकार हो, वो दुर हो सके उसे ग्रहण करना, अपनी अवस्था के अनुसार उपदेश ग्रहण करना ।

*जिस तरह से गरिष्ठ भोजन स्वास्थ्य के लिये बहुत अच्छा है, किन्तु कोइ बीमार व्यक्ति उसे ग्रहण करे तो उसे और तकलीफ होगी उसी प्रकार अपने निचली दशा का भी त्याग नहीं हुआ है, अशुभ विकार भी नहीं छुटे है तथा ऊंची दशा के त्याग को ग्रहण करना चाहे या निर्विक्ल्प दशा को अंगिकार करना चाहे तो दोष ही उत्पन्न होगा, विकार ही बढेंगे ।

*जिनवाणी स्याद्वाद मयी है और अनेकांत युक्त है सो सिर्फ अर्थ से उपदेश को ग्रहण नहीं करना, उपदेश का क्या प्रयोजन है, किसके लिये दिया है, उसमें क्या अपेक्षा है, जानकर ग्रहण करना ।

*यदि इतनी तर्क बुद्धि नही लगा पाये तो जिस प्रकार से यथार्थ श्रद्धान हो , रागादि घटे उसी उपदेश का प्रयोजन ग्रहण करे ।

प्रश्न : यदि शास्त्रों में ही एक ही बात पर परस्पर विरोध हो तो क्या करे?
उत्तर : यहा पर हम अपेक्षा नहीं लगा सकते । कालादि दोष, ज्ञानादि के अभाव से या कषाय के कारण एसे कथन पाये गये इसलीये कथन में विरोध भासित होने लगा । मूल सात तत्वों आदि में विरोध भसित हो तो व तो आप हि भासित हो जयेगा, किन्तु यदि अन्य कथन का निर्धार न हो तो ये करें:-
१. प्रामाणिकता मिलाना: बडे आचार्यों आदि का कथन प्रमाण मानना ।
२. आम्नाय मिलाना: जो कथन परम्परा आम्नाय से मिले उसे प्रमाण मानना ।
३.फिर भी सत्य - असत्य का भान न हो सके तो " जैसे केवली भगवान को भासित हुए है , वैसे प्रमाण मानना।

Wednesday, October 8, 2008

class notes date 10/7/08 Tuesday

अधिकार ८ :: अनुयोगो मे परस्पर विरोध का निराकरण

jai jinendra

कौनसे उपदेश ग्रहण करना :->
जिस प्रकार शब्दों के अनेक अर्थ होते है उन्हे जहाँ जैसा सही हो वैसा जानना चहिये उसी प्रकार उपदेश के बारे में कहा है कि उपदेश भी अनेक प्रकार के होते है उन्हे हमे सुनना तो चहिये परंतु ग्रहण उन्हें ही करना चाहिये जो कि हमारे विकार को दुर करे और हमे हमारे प्रयोजन याने आत्मा के कल्याण के मर्ग पर चलने मे सहायक हो। हमारे राग द्वेषादि विकारी भावो का विरोध करने वाले उपदेश ग्रहण करने चाहिये और उन्हे पुष्ट करने वाले उपदेश नही ग्रहण करने चाहिये।
जैसे औषधी तो अनेक प्रकार की होती है परंतु हमे जैसा रोग हो उसे नष्ट या दुर करने वाली औषधी हि हम ग्रहण करते है उसी प्रकार उपदेश का भी जानना।
हमे पक्षवादि बनकर उपदेश सुनने नही चाहिए ।पक्षबुद्धि से भला नही होता इसलिए अपने लिए क्या कार्यकारी है उस उपदेश को ही अंगीकार करना चाहिए। जैसे किसी जीव को व्यवहार का ज्ञान अथवा बह्य क्रियाओ कि प्रधानता या अधिकता हो और वह व्यवहार का हि पोषक कराने वाले उपदेश सुने तो वह आत्मकल्याण के मार्ग पर आगे नही बढ पायेगा या आत्मानुभव नही कर पायेगा वैसे हि किसी जीव को निश्चय का ज्ञान हो या अधिकता हो और वह निश्चय का हि उपदेश सुने तो वह वैराग्य कि ओर न बढकर अपने को जो अच्छा लगे वैसा करके विषय कषाय का हि पोषण करेगा, वह कोइ भी धार्मिक क्रियाए नही करेगा और इस तरह वह अपना बुरा हि करेगा ।
इसलिए हमारे लिये जो उपदेश हो उस ही को ग्रहण करना चाहिए एकान्त बुद्धि से उपदेश को ग्रहण नही करना चाहिए। निश्चय या व्यवहार में से किसी एक ही नय में अगर हमारा ज्ञान हो तो इससे सम्यक्त्वता का पूर्ण होना सम्भव नही है इससे हमारा बुरा ही होगा ।
यहाँ एक तात्वीक उदाहरण देते है कि आत्मानुशासन शास्त्र मे कहा है की "तु गुणवान होकर दोष क्यों लगाता है? दोषवान होना था तो दोषमय ही क्यों नही हुआ।" यहाँ यह उपदेश गुणवान जीव या व्रती के लिये कहा है जिससे कभी उस जीव से कोइ दोष होते हो तो वह दुर हो जाये या दुर करे, परंतु अगर यह उपदेश कोइ अज्ञानी या अव्रती ग्रहण कर ले तो वह उसका विपरीत अर्थ निकालकर उन गुणवान जीव को निचा दिखलाये या विचार करे कि ऐसा दोष लगाने से अच्छे तो हम है जो हमने कोइ व्रत हि ग्रहण नही किये है तो यह बुरा होगा ।सर्वदोषमय होकर कोइ व्रत ग्रहण न करे और गुणवान कि निन्दा करे तो वह भी दोष ही है।कभी किसी गुणवान जीव से कोइ गलती से कही किंचीत दोष हो जाए तो वह सर्वदोषमय जीव से तो अच्छा ही है। और गुणवान या व्रती से किंचीत दोष होने पर उसकी निन्दा की जाए फिर तो सर्व दोषोसे रहीत तो केवल सिद्ध भगवान ही है उनसे निचली अवस्था वाले जीवो मे गुणदोष तो होते ही है।

"दोषवान होना था तो दोषमय ही क्यो नही हुआ" इसका अर्थ केवल कहने के लिये है तर्क के लिये है ताकि उससे गुणवान जीव से जो किंचीत दोष हो रहा हो तो वह उसे दुर कर सके यहा कोइ यह समझ ले की शास्त्रजी मे तो लिखा है तो अगर हम दोषमय है तो क्या बुरा तो एसा विचार उस जीव के लिये बुरा हि करेगा।
उदाहरण: जैसे पिताजी ने बच्चे को पढाई के समय tv देखते देखकर कहा कि "तुम तो tv ही देख लो उसी से तुम पास हो जाओगे तुम्हारी किताबे और बस्ता जला देते है " तो वह बच्चा पिताजी के केहने का सही मतलब जानकर tv बन्दकर पढ्ने बेठ जाता है ना कि अपना बस्ता या किताबे जलाता है ।
जैसे शीत का रोग हुआ हो तो गरम औषधी लेते है और गर्मी से कोइ रोग हो रहा हो तो शीत औषधी लेते है विपरीत भी नही लेते उसी प्रकार उपदेश का भी सही अर्थ निकालकर हमारी कमी को जो पुरा कर रहा हो उसे ही ग्रहण करना चाहिए विपरीत ग्रहण नही करना चाहिए।
………

Trupti Jain