Wednesday, June 3, 2009

Bhaav Deepika - Notes from June 3,2009


Class Date: 06/03/2009
Chapter: Bhaav Deepika
Page#: 3
0-32


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पुनःआवृत्ति –


प्र० मोक्ष मार्ग के कारणभूत छह तत्व कौन से हैं ?


उ० देव, गुरू, धर्म, आप्त, आगम, और पदार्थ


प्र० धर्म किसे कहते हैं ?


उ० वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं. अतः जीव के लिए राग द्वेष रहित अपने ज्ञाता दृष्टा स्वभाव में स्थिर रहना (शुद्धोपयोग) ही धर्म है. क्योंकि शुभ भाव, क्रिया आदि (शुभोपयोग) धर्म के साधन हैं, व्यवहार से इनको भी धर्म कहते हैं. शुद्धोपयोग से पहले व्यवहार धर्म ही पाया जाता है. व्यवहार धर्म भी दो प्रकार का कहा है – पहला अंतरंग भाव रूप जो जीव का स्वयं का परिणाम है, और दूसरा जो इन भावों से जो मन वचन काय की प्रवृत्ति या बाह्य क्रिया होती है. ये व्यवहार धर्म देश संयम रूप अथवा सकल संयम रूप होते हैं .


आप्त तत्व


जो वीतरागी सर्वज्ञ जीव के परम हित अर्थात मोक्ष मार्ग का उपदेश देतें हैं उन्हें आप्त कहतें हैं. आप्त दो प्रकार के हैं – मूल आप्त और उत्तर आप्त. जो अरिहंत देव चार घातिया कर्मों का नाश कर अनंत चतुष्टय को प्राप्त कर द्वादश सभा में मोक्ष मार्ग का उपदेश देतें हैं ऐसे तीर्थंकर भगवान को मूल आप्त कहतें हैं. जो सम्यक्दर्शन आदि के धारी गणधर, प्रतिगणधर, श्रुतकेवली, आचार्य, उपाध्याय इत्यादि जो मूल आप्त के अनुसार मोक्ष मार्ग का उपदेश देतें हैं उन्हें उत्तर आप्त कहतें हैं. तथा सम्यक्दर्शन आदि से युक्त जिन मार्ग के उपदेष्टा, शास्त्र के ज्ञाता, कषाय रहित वक्ता इत्यादि गृहस्थ उत्तरोत्तर आप्त हैं. परंतु मिथ्या दृष्टी यदि जिन मार्ग का भी उपदेश दें तो आप्त नहीं हैं. अतः वक्ता के सम्यक श्रद्धान का निर्णय कर के ही उन के वचनों पर प्रतीती करनी चाहिये. या फिर आगम से उन वचनों की प्रामाणिकता सिद्ध कर के ही ग्रहण करना चाहिये और ये सम्भव ना हो तो उनके वचनों को नहीं सुनना चाहिये.


आगम तत्व


जिनेन्द्र भगवान की वाणी जो स्यद्वाद से युक्त और जो वीतरागता की पोषक होती है उसे आगम कहते हैं. या फिर आप्त के वचनों को आगम कहते हैं. इनसे अन्यथा सब वचनों को अनागम कहा गया है. जिन देव का आगम प्रमाण नय निक्षेप इत्यादि से अबाधित है अथवा किसी भी युक्ती से अकाट्य है. एक युक्ती से अगर उसका खंडन हो तो वह एक अपेक्षा से हो सकता है किंतु अन्य अपेक्षाओं से उसका समधान हो जाता है. आगम मे एक सिद्धांत से दूसरे सिद्धांत का अथवा पूर्वापर विरोध नहीं होता है. यह तो केवली सर्वज्ञ का वचन है जिसमे कोई दोष नहीं होता.


आगम विषय में तीन प्रकार के पदार्थ कहें हैं - ज्ञेय, हेय और उपादेय. ज्ञेय अर्थात जानने योग्य, हेय अर्थात छोड़ने योग्य, और उपादेय अर्थात ग्रहण करने योग्य. इन तीनो प्रकार के पदार्थों की सिद्धि प्रत्यक्ष प्रमाण या अनुमान प्रमाण द्वारा करना. और जो आगम प्रमाण से सिद्ध होता हो तो उसे सुनकर सुनिश्चित स्वानुभव अबाधक प्रमाण से सिद्ध करना. उन में जो अबाधित हो उन्हें जिनागम मानना और जो बाधित हैं उन्हे जिनागम नहीं मानना. कोई अर्थ इसलीये ग्रहण नहीं करना क्योंकि वह प्राकृत या संस्कृत में है या फिर क्योंकि वह किसी बड़े आचार्य के नाम पर लिखे गये हैं परंतु आगम के सेवन, युक्ती का अवलम्बन, परम्परा गुरु के उपदेश और स्वानुभव का आश्रय लेकर ही निर्णय करना. अन्यथा अर्थ को ग्रहण से जीव का अकल्याण ही होता है.


पदार्थ तत्व


पद यानि वस्तु के अर्थ यानि प्रयोजन को पदार्थ कहते हैं. ये नौ प्रकार के हैं - जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप. इनका यथार्थ स्वरूप ग्रहण करने से ये मोक्ष के कारण हैं और अयथार्थ स्वरूप ग्रहण से ये संसार के कारण हैं.


जीव तत्व


जीव दो प्रकार के है - एक तो मोक्ष के कारण हैं और दूसरे संसारी जीव हैं. मोक्ष के कारण जीव नौ हैं - अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, मुनि, अर्जिका, श्रावक, श्राविका. और बाकि सब जीव संसारी हैं.


अजीव तत्व


अजीव तत्व पाँच हैं – पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल.


आस्रव तत्व


कर्मों के आगमन को आस्रव कहते हैं. आस्रव के दो मुख्य भेद हैं – भावास्रव और द्रव्यास्रव. जिस अंतरंग परिणाम से जीव में कर्मों का आस्रव होता है वह भावास्रव है और उस से भिन्न कर्मों/नोकर्मों का कारण जो पुद्गल वर्गणाओं का आस्रव है वह द्रव्यास्रव या मूलास्रव है. मूलास्रव के तेरह भेद हैं – ज्ञानवर्णादि आठ कर्मास्रव, और औदारिक, वैक्रियक, आहरक, तैजस, कार्माण ये पाँच नोकर्मास्रव.


मन वचन काय की क्रिया को योग कहते हैं. ये योग द्रव्यास्रव का कारण है. तथा कर्मों की स्थिती और अनुभाग मिथ्यात्व और कषाय अथवा राग-द्वेष से युक्त अव्रत परिणाम द्वारा निर्धारित होती है अतः ये भी द्रव्यास्रव का कारण कहे जाते हैं. इन द्रव्यास्रव के कारणों को भावास्रव कहते हैं और इनके सत्तावन भेद हैं - पंद्रह योग के, पच्चीस कषाय के, बारह अव्रत के और पाँच मिथ्यात्व के.


पंद्रह योग


मनोयोग – सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग (4)


वचनयोग - सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग, अनुभय वचनयोग (4)


काययोग – औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, वैक्रियक काययोग, वैक्रियक मिश्र काययोग,


आहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग, कार्माण काययोग (7)


पाँच मिथ्यात्व


एकांत, विनय, विपरीत, संशय, अज्ञान


1 comment:

Vikas said...

Thanks for posting nice summary.

Always remember:
पदार्थ तत्व - इनका यथार्थ स्वरूप ग्रहण करने से ये मोक्ष के कारण हैं और अयथार्थ स्वरूप ग्रहण से ये संसार के कारण हैं.

आगम के सेवन, युक्ती का अवलम्बन, परम्परा गुरु के उपदेश और स्वानुभव का आश्रय लेकर ही निर्णय करना.

1 Correction which differs from the book: औदारिक, वैक्रियक, आहरक, तैजस, कार्माण ये पाँच नोकर्मास्रव.
अन्य ग्रंथो में कार्माण ग्रहण को नोकर्मास्रव में नहीं लिया है. और उसे कर्मास्रव में ग्रहण किया है. यह बात अन्य ग्रंथो से मिलन करने योग्य है.