Wednesday, June 3, 2009

गृहीत मिथ्यात्व का स्वरुप

Class Date: 2nd june. 2009
Chapter: Bhav Dipika
Page#: 29-30
Paragraph #: 2nd
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Summary:

गृहीत मिथ्यात्व का स्वरुप

मोक्ष मार्ग के कारणभुत तत्वों में विपरीत मान्यता संसार का कारण बनता है. देव, गुरु, धर्मं, आप्त, आगम, पदार्थ यह ६ मोक्ष मार्ग के कारणभुत तत्वों / पदार्थ है

गुरु तत्त्व: जो जीवो को अहित से बचाकर हित में प्रवर्तन करते है उनको गुरु कहते है

गुरु दो प्रकार के होते है

१. धर्मं गुरु :- २८ मूलगुण सहित, परिग्रह के त्यागी, नग्न मुद्रा के धारक, शुद्ध रत्नत्रय रूप जिनकी प्रवर्ती है, परम दशलक्षण रूप धर्म की जो मूर्ति है , तप में जो आरूढ़, परम दिगम्बर है वो धर्म गुरु है

२.उपकारी गुरु / हितकारी गुरु :- इनके दो प्रकार है

A. धर्म उपकारी गुरु
१. दीक्षा गुरु : अणुव्रत - महाव्रत का आचरण कराने वाले, दीक्षा देने वाले, चतुर्विध संघ में जो बड़े महा मुनि है
२.शिक्षा गुरु : जिन प्रणित मार्ग का जो उपदेश दे.( मुनि से लेकर गृहस्थ भी हो सकते है )
३.विद्या गुरु : जिनेन्द्र प्रणित शास्त्र को पढाने वाले. (इ.ग. पाठशाला में जो हमेशा पढाते है, गृहस्थ भी हो सकते है )

दीक्षा गुरू आचार्य ही होंगे..शिक्षा गुरु, विद्या गुरू - मुनि से लेकर गृहस्थ भी हो सकते है

B.लौकिक उपकारी गुरु
१.कुल गुरू : बड़े है - अहित से बचके हित में लगाते है इसलिए माता, पिता, पितामह, बड़े भाई, काका, काकी, नाना, नानी,मौसी, मौसा, इत्यादि सब कुल गुरू है. है सब उपकारी है
२. रक्षा गुरू; जिस गांव में रहते है उसके राजा, सरपंच आदि रक्षा गुरू है
३. विद्या गुरु : लौकिक विद्या जिससे आजीविका चले ऐसी शश्त्र विद्या, शास्त्र विद्या ऐसी अनेक प्रकार की विद्या देने वाले
४. आजीविका गुरु: आजीविका का देनहारा
५. शिक्षा गुरू: लौकिक शिक्षा का देनहारा

धर्म गुरू की अष्ट द्रव्य से पूजा करना, अष्टांग नमस्कार या पंचांग नमस्कार करना चाहिए. भक्ति पूर्वक चार प्रकर के दान देने चाहिए.
लौकिक गुरू को यथायोग्य भेट देना चाहिए, विनय पूर्वक हाथ जोड़कर पंचांग नमस्कार करना चाहिए

इनके सिवाय और किसि को गुरू मानना मिथ्यात्व है. लौकिक गुरू को लौकिक गुरू की तरह पूजना चाहिए. लौकिक गुरू को धर्म गुरू की तरह पूजना मिथ्यात्व है. सबकी यथायोग्य विनय करना चाहिए. अयोग्य विनय हो तो उसमे राग दिखता है.

धर्म तत्त्व : वस्तु के स्वाभाव को धर्म कहते है

धर्म दो प्रकार के है

१. निश्चय धर्म : वस्तु के स्वाभाव को निश्चय धर्म कहते है . राग द्वेष रहित ज्ञाता द्रष्टा आत्मा के स्वाभाव में स्थित होना ही निश्चय धर्म है. निज स्वरुप में स्थिरता करना निश्चय धर्म है (जो चीज जैसी है उसको ऐसा ही मानना - जड़ को जड़ ही मानना, जिव को जिव रूप मानना. )

२. व्यव्हार धर्म;
१ देश संयम: मित्यात्व छोड़कर, कषाय, विषय और पॉँच पापो रूप अन्तरंग परिणामो का एकदेश त्याग वह देश संयम है. और धर्म के बाह्य कारण पॉँच अणुव्रत, तिन गुन्व्रत, चार शिक्षा व्रत का ग्रहण करना. उसे भी देश संयम कहते है
२ सकल संयम: सर्व प्रकार से बुद्धि पूर्वक मिथ्यात्व, कषाय, विषय और पॉँच पापो का त्याग हो.. व सकल संयम कहते है और बाह्य कारण रूप २८ मुलगुनो और ८४ लाख उत्तर गुण का ग्रहण करना भी सकल संयम कहते है

1 comment:

Vikas said...

बहुत बढ़िया. लिखने के लिए धन्यवाद.