Thursday, June 18, 2009

निस्च्याभासी मिथ्यत्वी

Class Date: 06/17/2009
Chapter: Bhav Dipika
Page#: 35 & 36
Paragraph #: Page 35 last pera & Page 36 first pera
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Summary:

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मोक्ष के ६ अंग - देव, गुरु, धर्मं, आप्त, आगम, पदार्थ
इसमें धर्मं अंग के प्रति एकांत मिथ्यात्व

"धर्मं" के दो भेद किये है - 1) निश्चय धर्मं - शुद्ध उपयोगरूप
२) व्यव्हार धर्मं - शुभ उपयोगरूप मन, वचन, काय की बाह्य क्रिया

निश्चयाभासी - सिर्फ निश्चय धर्म के प्रति एकान्तता धारण करता है और व्यव्हार का निषेध करता है
व्यव्हार्भासी - सिर्फ व्यव्हार धर्मं के प्रति एकान्तता धारण करता है और निश्चय का निषेध करता है.

पूजा, स्वाध्याय, रात्रि भोजन त्याग, सप्त व्यसन त्याग (जुवा, मांश, मदिरा, परनारी, शिकार, चोरी, वेश्यागमन, इनके त्याग रूप व्यवहार धर्म है. इनकी प्रवृत्ति रूप नहीं परन्तु इसको छोड़ करके शुद्ध स्वरुप की प्राप्ति होगी

सप्त व्यसन त्याग श्रावक की basic step है, जिससे व्यव्हार धर्म की शुरुआत होती है और जिव उपदेश देने योग्य बनता है. This is like 1st standard in school

निश्चयाभाशी व्यव्हार धर्मं को सर्वथा हेय(छोड़ने योग्य) ही मानता है और निश्चय धर्म का सर्वथा पक्ष धारण करके सर्व सिद्धि मानता है. जिसके कुछ लक्षण नीचे बताया है -
Example:
- सात तत्त्व के नाम मात्र जानना, लक्शान आदी जान लेना
-में चेतन स्वरुप आत्मा हु और ये जड़ आदि स्वरुप मुझसे भिन्न है
-जीवादी तत्वों की, स्व-पर की, आत्मा की चर्चा करने से ही
-मन में ध्यान आदि ही से
और स्वयं को ज्ञानी मानता है वे निश्चयाभासी एकांत मिथ्यात्व है.
निश्चयाभासी मानता है की जीवादी सात तत्त्व को जान लिया, लक्षणसहित जान लीया और परिभाषा भी शीख ली, और जानने मात्र से सिद्धि होती है और अनुभव से सिद्धि होती है और व्यव्हार धर्मं की प्रवृति का सर्वथा निषेध करके या उसको न करने मान्यता बनता है,

निस्चयाभासी मानता है की मै चैतन्य स्वरुप आत्मा हु, और बाकि सरे मुझसे भिन्न है, और बाकि कोई भी पाप प्रवृति में भी यही मानता है की आत्मा सोता नहीं, खाता नहीं, पाप नहीं करता, परिग्रह नहीं करता. ये कथन सही है, परन्तु सिर्फ द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा शुद्ध है, पर्याय की अपेक्षा से असुद्ध ही है ये नहीं मानता और रागादी का पोषण करता है और उसके उपाय न करके मिथ्यात्व का पोषण करता है और स्वछंदी होता है.

निश्च्च्याभास की मान्यता शास्त्रों को पढने के बाद पाई जाती है

ये मान्यता संख्य मत में पाई जाती है, जिसमे प्रकृति और पुरुष दो चीज़ है और पुरुष सर्वथा शुद्ध है और प्रकृति ही सुबकुछ करती है. व्यवहार धर्मं को सर्वथा हेय जानता है और निश्चय धर्मं को ही उपादेय मानता है और कुछ प्रवृति नहीं करता.

प्रवचनसार के अनुसार इसलिए जो मोक्ष मार्ग में सहकारी बने ऐसी प्रवृति(पुण्य) कथंचित उपादेय है और जो संसार में भ्रमण ही कराती है, वह कथंचित हेय नहीं, पूर्णतः हेय है इसलिए कहा की मिथ्यात्व के साथ पुण्य प्रवृति बंध का कारन है और सम्यक्त्व के साथ की गयी प्रवृति कथंचित मोक्ष का कारण है. यह कथंचित कहा है.
यहाँ पर कहनेका हेतु यह है की मिथ्यात्व अवस्था ही ख़राब है इसमें शुभ प्रवृति भी करे तो खोटी है और अशुभ तो ऐसे भी गलत है तो जितनी जल्दी इससे छुट जाये उसमे ही भलाई है.

निश्चयाभासी सिर्फ उसको सुनने में ही, मन में विचार करने में ही, मन के द्वारा ध्यान करने को, आसन आदि करने या प्राणायामआदी को ही मानता है, परन्तु अभी संपूर्ण वस्तु विशेष समजी नहीं उसका ध्यान कैसे कर सकता है?

सम्यक्त्व की परिभाषा परवचनसार के अनुसार यह है की यह सुख स्वभावी आत्मा पूर्णता उपादेय है ऐसी रूचि रूप होना यही सम्यक्त्व है, और जिसकी रूचि हो अच्छा लगे उसका सहजता से ध्यान होता है उसे ही ध्यान कहते है, एक अंग को ही मुख्या करके और संपूर्ण वस्तु ना जान कर कैसे ध्यान कर सकता है.

यह सारी मान्यता को ग्रहण करके आप्त को ज्ञानी मानता है, क्योकि खुद को ज्ञान स्वरूप मानता है और एकांत मत ग्रहण करता है यह ही निस्चयाभासी एकांत मिथ्यात्व है.

इससे विपरीत व्यव्हाराभासी पूजा आदि, दान, व्रत, चोरी त्याग को ही धर्मं मान kr खुदको धर्मात्मा मानता है.

इसके समाधान हेतु बताया है की निश्चय धर्मं को जानना श्रधान करना और व्यव्हार धर्मं की प्रवृति के कारन जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मिले इस रूप प्रवर्तना, जितनी शक्ति है उस अनुसार करना और जो न कर सके उसका श्रधान करना.

व्यव्हार धर्मं को कारन जानना, और निश्चय धर्मं को कार्य जानना इसके लिए कहा है की पहले तो बुद्धिपूर्वक पक्ष छोडे जाते है, तब फिर जब निर्मल श्रधान होगा तो बाकि पक्ष अपने आप चले जायेंगे.

इसलिए व्यव्हार का उपयोग निश्चय के लिए करना, जैसे लकडी का उपयोग आग उत्प्पन करनेके लिया होता है सो लकडी और आग दोनों का स्वरुप ही अलग अलग है लकडी खुद नस्ट होती है और आग को उत्प्पन करती है उसके नस्ट हुवे बिना आग उत्प्पन नहीं होती. वैसे ही व्यव्हार और निश्चय का स्वरुप ही अलग अलग है और निश्चय के लिए व्यव्हार का उपयोग किया जाता है, व्यव्हार धर्मं खुद नस्ट होता है और उसमे से निश्चय धर्मं निकल के आता है सो दोनों की सापेक्षता न छोडनी ऐसा सम्यक्त्व का स्वरुप है.

1 comment:

Vikas said...

Thanks for posting. Something we should always think about:
निश्चय धर्मं को जानना श्रधान करना और व्यव्हार धर्मं की प्रवृति के कारन जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मिले इस रूप प्रवर्तना, जितनी शक्ति है उस अनुसार करना और जो न कर सके उसका श्रधान करना.


Some corrections:
चोरी, वेश्यागमन, आदि रूप जिव की प्रवृति व्यव्हार धर्मं रूप है.
Correction: इनके त्याग रूप व्यवहार धर्म है. इनकी प्रवृत्ति रूप नहीं.

जो संसार में भ्रमण ही कराती हे वह कथंचित हेय है
Correction: जो संसार में भ्रमण ही कराती है, वह कथंचित हेय नहीं, पूर्णतः हेय है

सम्यक्त्व के साथ की गयी प्रवृति सर्वथा मोक्ष का कारन है.
Correction: सर्वथा नहीं, कथंचित मोक्ष का कारण है.

परन्तु यहाँ एक अंग को गौण करके ध्यान कैसे कर पायेगा
Correction: एक अंग को ही मुख्या करके और संपूर्ण वस्तु ना जान कर कैसे ध्यान कर सकता है.