Wednesday, April 22, 2009

मिथ्याज्ञान का स्वरूप

Class Date: 22-4-2009
Chapter: adhikaar 4
Page#: 86
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Summary:
मिथ्याज्ञान= प्रयोजन भूत जीवादि सात तत्वों के अयथार्थ जानने को मिथ्याज्ञान कहते हैं।
-->मिथ्यादृष्टि का जितना ज्ञान है वो सब मिथ्याज्ञान ही है, और सम्यक्दृष्टि का ज्ञान, बाहर में भले ही सही गलत हो, लेकिन मोक्ष मार्ग में सीधा होने से उसको सम्यकज्ञान नाम दिया है।

-->ज्ञानावरण के उदय से मिथ्याज्ञान नहीं होता, मिथ्यात्व के उदय से होता है, जैसे विष मिला हुआ भोजन विष के कारण से विषैला कहा जाता है, वैसे ही ज्ञान में स्वयं में कोई गडबड नहीं है, इसमें मिथ्यात्व रूपी जहर मिला हुआ है इसलिये इसे मिथ्याज्ञान कहा जाता है।

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-> यहां यथार्थ और अयथार्थ का अर्थ है सच्चा झूठा। तो जीव ज्ञानावरण के उदय से तो पदार्थों को अयथार्थ जानता है जैसे रस्सी को सर्प जाना, और ज्ञानावरण के क्षयोपशम से पदार्थों को यथार्थ जानता है जैसे रस्सी को रस्सी जाना, सर्प को सर्प जाना।
->मिथ्याज्ञान के प्रकार:-
१) जीवादि प्रयोजन भूत तत्वों को जानने की तो बात ही नहीं है, उनको क्षयोपशम रूप शक्ति ही नहीं है, उनको तो जानता ही नहीं है, तो मिथ्याज्ञान हुआ।
२) पदार्थों को जानने की क्षयोपशम रूप शक्ति तो है फ़िर भी नहीं जानता, तो मिथ्याज्ञान हुआ।
३) अन्य मतावलम्बी सम्बन्धी मिथ्याज्ञान चलता है।
४) सतशास्त्रों को पढकर भी मिथ्याज्ञान बना रहता है।

-> यहां दो बाते हैं, एक तो ज्ञान का होना, और दूसरा ज्ञान की शक्ति होना।
एक जो शक्ति मौजूद है वो लब्धि
और उस शक्ति का व्यक्त होना, उसके द्वारा देखना, जानना आदि कार्य होना वो है उसका उपयोग रूप परिणमन।
--> एकेन्द्रिय आदि के जो मिथ्याज्ञान है तो वहां ज्ञानावरण के उदय से जानने की शक्ति ही नहीं है।
--> जीव सुख के कारणों को भी जान सकता है, और दुख के कारणों को भी जान सकता है, सुख रूप भी हो सकता है, और दुख रूप भी, परन्तु असाता वेदनीय का उदय आने पर जीव दुख के कारणों का आश्रय करता है, और दुखी होता है, यदि उस समय जीव सुख के कारणों का आश्रय करे तो उस दुख से हट सकता है। जैसे अगर हमें घर पे किसी बात की परेशानी है और उस चिंतन से हटकर हम मंदिर आ जायें और पूजा, भक्ति में लगें तो उस परेशानी को भूल जाते हैं और इस तरह दुख रूप काल में भी सुखरूप हो सकता है। इसलिये साता असाता वेदनीय ही सुख व दुख के वेदन का मूल कारण है।
--> जब कषायों का तीव्र उदय होग तब जीव पुरुषार्थ नहीं कर सकता, मंद उदय होने पर ही जीव कुछ पुरुषार्थ करे तो कषायों से बच पाये।
--> ज्ञानावरण के क्षयोपशम से जीव में प्रयोजनभूत और अप्रयोजनभूत को जानने की शक्ति होती है, परन्तु मिथ्यात्व के उदय से वह अप्रयोजनभूत को ही जानता है और प्रयोजन भूत को सम्यक प्रकार से नहीं जानता, प्रयोजनभूत को जान ले तो सम्यकदर्शन हो जाये, मिथ्यात्व का तीव्र उदय होने पर ऐसा होता है। हमेशा ऐसा नहीं होता, यदि हमेशा ऐसा हो तो जीव कभी भव बंधन से छूट ही ना पाये, मंद उदय होने पर जीव प्रयोजनभूत तत्वों को जानने का पुरुषार्थ करे तो जान कर सम्यक्त्व की उत्पत्ति कर सकता है। अत: प्रयोजन भूत अप्रयोजन्भूत को जानने में मिथ्यात्व का उदय/अनुदय ही मुख्य कारण है।
यहां पर आगम को पढकर भी मिथ्यात्व के मौजूद होने से प्रयोजन की पूर्ति नहीं होने की अपेक्षा मिथ्याज्ञानी कहा गया है।
--> आगम का ज्ञान हो जाये परन्तु श्रद्धा की मुहर ना लगे तो ज्ञान मिथ्याज्ञान है, श्रद्धा की मुहर लगते ही वो सम्यकज्ञान हो जाये।

-->गुणस्थान:- मोह और योग के निमित्त से जीव के दर्शन(श्रद्धा) व चारित्र गुण में होने वाली तारतम्य रूप अवस्था(कम ज्यादा होने की अवस्था) को गुणस्थान कहते है। इसमें २ गुणों को लिया है दर्शन व चारित्र । ज्ञान को नहीं लिया अर्थात ज्ञान बहुत कम या ज्यादा हो जायेगा तो उससे गुणस्थान नहीं बढ जायेगा। कषाय के अभाव से गुणस्थान बढॆंगें, और कषाय मिथ्यात्व जाने पर मिटती है।
-->कषाय के घटने से परिणाम निर्मल होने से ज्ञान का उघाड होता है , क्षयोपशम होता है, ज्ञान बढता है।
-->अत: मोह के उदय से जो भाव है उससे इस ज्ञान को मिथ्याज्ञान कहा गया है ना कि ज्ञानावरण के कम ज्यादा क्षयोपशम से।
-->ज्ञानावरण का उदय है तो अज्ञान, और ज्ञानावरण के क्षयोपशम से ज्ञान की प्रगटता होती है, उस प्रगटता में विपरीतता होने से मिथ्याज्ञान कहा जाता है।
-> हमें किसकी पीडा अधिक लगती है : मिथ्याज्ञान की या अज्ञान अर्थात जो नहीं जानते है उसकी. जिसकी तकलीफ ज्यादा लगेगी उसको मिटाने का प्रयास अधिक होगा. पीडा ज्यादा लगनी चाहिए मिथ्याज्ञान की लेकिन अधिकांशतया अज्ञान की पीडा ज्यादा दिखाई देती है. इसे देख कर ठीक करना चाहिए
--> जानने मात्र से ज्ञान मिथ्याज्ञान , सम्यकज्ञान नाम नहीं पाता, श्रद्धान होने के कारण वो मिथ्याज्ञान, सम्यकज्ञान नाम पाता है। इसलिये सम्यकदर्शन को सम्यकज्ञान के पहले रखते हैं, और मिथ्यादर्शन को मिथ्याज्ञान के पहले क्योंकि मिथ्यात्व की वजह से ज्ञान मिथ्याज्ञान नाम पाता है। अत: मिथ्यादर्शन कारण और मिथ्याज्ञान कार्य हुआ।
-->जहां सामान्य से ज्ञान-श्रद्धान का निरूपण हो वहां सम्यकज्ञान कारण व सम्यकदर्शन कार्य है और जहां मिथ्या-सम्यक ज्ञान-श्रद्धान का निरूपण हो वहां सम्यकदर्शन कारण व सम्यकज्ञान कार्य है।
->सम्यकदर्शन व सम्यकज्ञान में समय भेद नहीं है, दोनों युगपत होते हैं। जैसे लाइट जलाते ही रोशनी हो गई।
-->कारण कार्य पना २ तरह का है:-
१) पश्चातवर्ती:- कारण अभी हो और कार्य बाद में हो जैसे अग्नि अभी जलाई और धुंआ बाद में हो।
२) तत्कालवर्ती:- कारण और कार्य दोनों सहचारी हैं, एक साथ होते हैं। जैसे दीपक जलाते ही प्रकाश हो गया।

1 comment:

Vikas said...

बढ़िया

One comment:
मिथ्यात्व जो मिथ्या भाव से हुआ और मिथ्याज्ञान अर्थात अज्ञान तो इन दोनों में अव्यक्त को जानने की पीडा अधिक है। मिथ्याज्ञान की पीडा अधिक है।This is not a statement, rather a question to ourself - हमें किसकी पीडा अधिक लगती है : मिथ्याज्ञान की या अज्ञान अर्थात जो नहीं जानते है उसकी. जिसकी तकलीफ ज्यादा लगेगी उसको मिटाने का प्रयास अधिक होगा. पीडा ज्यादा लगनी चाहिए मिथ्याज्ञान की लेकिन अधिकांशतया अज्ञान की पीडा ज्यादा दिखाई देती है. इसे देख कर ठीक करना चाहिए