Wednesday, April 8, 2009

Class Date:04/07/09
Chapter: 4
Page#: 84
Paragraph #: Punya paap sambandhi aytharth shradhan
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Summary:

पाप और पुण्य, आश्रव और बंध के विशेष है. चारो गति में पुण्य और पाप की प्रवृति होती है, ऐसा नहीं है की सिर्फ sangni जीवो को ही पुण्य/पाप की प्रवृति होती है, जैसे तिर्यंच गति में भी भोजन का प्राप्त होना यह पुण्य कर्म रूप है.
-सुख की प्राप्ति स्व से होती है परन्तु जिव उसे बहार ढूंढ़ता है जो मिथ्यात्व है.
-पुण्य/पाप में मंदता/तीव्रता अनुभाग की respect में है.
- पुण्य/पाप कर्म के उदय में जिव शुभ/अशुभ परिणाम करता है.
-निश्चय से पुण्य/पाप दोनों बंध्रुरूप है, परन्तु व्यवहार से शुभ प्रवृति में जुड़ने को कहते है.
-धर्मक्रिया/स्वाध्याय आदि में लगनेको हम पुण्य मानते है, परन्तु वास्तव में वह भी मिथ्यादर्शन है, धर्मक्रिया आदि सिर्फ सदाचार है. पूजा/स्वध्य आदि प्रवृतिभी जब ठीक से नहीं करते है तो, मिथ्यात्व में पुण्य का मिलना गलत मान्यता बनाता है.
-वास्तव में मंदिर जाने का लक्ष्य रत्नत्रय की प्राप्ति, तत्त्व श्रधान, आश्रव/बांध को रोकना या संवर/निर्जरा का होना चाहिए.
-मिथ्यात्व में पुण्य प्रवृति सिर्फ सदाचार है, पर सम्यक्त्व में पुण्य प्रवृति सोने पर सुहागा होगी, जैसे धर्मं क्रिया में लगने से आगे शुभ निम्मित मिलेंगे, for example.पंचिद्रियापना मिलना, etc.
-पुण्य के उदय में जिव कुछ सोचविचार नहीं करता, परन्तु पाप के उदय में ही सोचता.
-वास्तव में पुण्य की चाह ही संसार के कारन का सूचक है.
-मिथ्यत्वी जिव ये मानता है की जब क्रिया हो रही है तो वह में केर रहा हु, में था तो वह हुवा, मेरी वजह से यह हुवा, और उस प्रवृति का कर्ता बनता है और अपने पर अहोभाव करता है. For Example: रोटी बने तो कहेगा " मैंने बनाई" और अगर रोटी ख़राब बनी तो कहेगा "ख़राब बन गई"
-मिथ्यात्वी पर वस्तु से सुख/दुःख मानता है, परन्तु सुख/दुःख वास्तव में जिव के अपने परिणाम है, पर वस्तु कभी सुख/दुःख के कारणभुत नहीं है, और जब तक ये मान्यता नहीं बदलती तब तक निराकुल रहता है.
-जिव को पाप करते समय उसे ख़राब नहीं मानता पर पाप के उदय को ख़राब मानता है, और तब सोचता है ऐसा क्यों हुआं, मेरी क्या गलती थी, मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुवा.

1 comment:

Vikas said...

Thanks for posting. Some corrections.

- पुण्य/पाप कर्म के उदय में जिव शुभ/अशुभ परिणाम करता है.
Correction: ऐसा नहीं है. यह जरुरी नहीं है की पुण्य के उदय में जीव शुभ परिणाम करे और पाप के उदय में अशुभ परिणाम करे. पुण्य के उदय में जीव पाप करता हुआ देखा जा सकता है और पाप के उदय में भी शुभ करता हुआ देखा जा सकता है.

धर्मक्रिया/स्वाध्याय आदि में लगनेको हम पुण्य मानते है, परन्तु वास्तव में वह भी मिथ्यादर्शन है, धर्मक्रिया आदि सिर्फ सदाचार है. पूजा/स्वध्य आदि प्रवृतिभी जब ठीक से नहीं करते है तो,
Correction: धर्मक्रिया आदि में लगने में पुण्य होता है, यह गलत बात नहीं है, लेकिन इसमे धर्म मानने से मिथ्यादर्शन होता है.

मिथ्यात्व में पुण्य का मिलना गलत मान्यता बनाता है.
Correction: और यह बात मुख्यतया से है की - पुण्य का मिलना गलत मान्यता बनाता है.

-मिथ्यात्व में पुण्य प्रवृति सिर्फ सदाचार है
Correction: पुण्य प्रवृत्ति तो दोनों में ही सदाचार है. लेकिन सम्यक्त्व के साथ पुण्य शुद्धता को बढावा देता है, और मिथ्यात्व के साथ गलत मान्यता को बढावा देता है.

और जब तक ये मान्यता नहीं बदलती तब तक निराकुल रहता है.
Correction: और जब तक ये मान्यता नहीं बदलती तब तक आकुलित रहता है.