Saturday, May 31, 2008

कर्म बन्ध का निदान

कर्म बन्धन का निदान (कारण)

प्रश्न : आठ कर्मों में से कौनसे कर्म कर्म-बन्ध में निमित्त हैं ?
उत्तर : परमार्थ (निश्चय) से सिर्फ़ मोहनीय का उदय कर्म बन्ध में निमित्त है । ज्ञानावर्णादि शेष ७ कर्मों के उदय से कर्म-बन्ध नहीं होता है ।
इसे टोडरमलजी तर्क से इस प्रकार से सिद्ध करते हैं -
अ) ज्ञान का कम ज्यादा होना अगर कर्म बन्ध में निमित्त हो तो कर्म बन्धन कभी खत्म नहीं होगा । केवलज्ञानावरण कर्म का उदय जीव को १२ गुण्अस्थान तक होता है । अघातिया कर्म का उदय सब (१४) गुणस्थानों में होता है । उससे अगर कर्म बन्धन होता रहा तो बन्धन से छुट्कारा सम्भव नहीं होगा ।
ब) ज्ञान/दर्शन जीव का स्वभाव है । स्वभाव में कमी या ज्यादा होना अगर कर्म बन्धन में कारण हो तो बन्ध कभी रुके ही नहीं ।
निष्कर्ष :
जीव को ज्ञान/दर्शन में न्यूनता या अधिकता से कर्म-बन्ध नहीं होता है । [ज्ञानावर्णी / दर्शनावर्णी]
बाहरी (सांसारिक) पदार्थ से कर्म-बन्ध नहीं होता है । [नाम / गोत्र / आयु / वेदनीय]
अन्तराय कर्म के उदय से कर्म-बन्ध नहीं होता है ।

प्रश्न : भेद-विज्ञान ना होने पर या देव-शास्त्र-गुरु की सच्ची पहचान ना होने से भी तो कर्म बन्ध होता होगा ?
उत्तर : उपचार से, उसमे ज्ञानावर्णी / दर्शनावर्णी का उदय निमित्त हो सकता है । परमार्थ (वास्तव / निश्च्य) से तो भेद-विज्ञान का ना होना या देव-शास्त्र-गुरु की सच्ची पहचान ना होना दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से होता है ।
प्रश्न : अन्तराय कर्म के उदय से कोई लाभ में बाधा आने से कर्म बन्ध होता होगा ?
उत्तर : अन्तराय कर्म का उदय वास्तव में कर्म बन्ध का निमित्त नहीं है । मुनि महाराज को अन्तराय वश भोजन ना मिले तो भी वे समता धारण करते हैं । वहां कषायों के मन्द होने से उन्हे कर्म-बन्ध नहीं के बराबर होता है । वास्तव में तो कर्म बन्ध कषाय (चारित्र मोहनीय) की न्यूनता व अधिकता से हुआ ।

Thursday, May 29, 2008

जीव और कर्म की भिन्नता पेज २३, २४, २५


जीव का लक्षण- चैतन्य (ज्ञान , दर्शन मयी है) आत्मा अमुर्तिक है, इन्द्रिओं से नही जान सकते है
What is संख्यात - मति श्रुति ज्ञान के जाना जा सकता हैं
What is असंख्यात - अवधि मन:पर्यय ज्ञान के जाना जा सकता हैं
What is अनंत – जो केवल ज्ञान से जाना जा सकता है.

कर्म का लक्षण - अचेतन है, उपयौग रहित, सोचने ओर समझने की शक्ति नही है, स्पर्श रस, गन्ध वर्ण युक्त है, It's a collection of the many putgal partical.

Thought: The putgal and the atama is together for countless number of years but not a single particle of Atama is converted Karmic particle and the not a single particle of Karmic partical can converted in to Atama.
Question: आत्मा अमुर्तिक है ओर कर्म सुक्षम पुद्‌गल है उसका आत्मा के साथ बंध केसे हो जाता है
मानना: आत्मा का कर्म के साथ बन्धन अनदि से है
निमित्त नैमित्तिक संबंध: कर्म ओर जीव का निमित्त नैमित्तिक संबंध है। कर्म अपने आप मे फ़ल देने कि शक्ति नहि रखता है पर उदय काल मे जीव का निमित्त पाकर फ़ल देता है (कर्म जीव के शुभ ओर अशुभ भावो के कार्ण आत्मा के साथ बन्ध जाते है ओर निमित्त पाकर पाकर अपना शुभ ओर अशुभ फ़ल देते है)

कर्म के प्रकार: ८ प्रकार के कर्म है जिन्हें दो प्रकर से विभाजित किया है
1- घातिया कर्म: जो कर्म आत्मा के गुणो का घात करते है वे घातिया कर्म है
१) एकदेश घाति- Some karma are present and some are not. The knowledge is partial (only Kevli bhagwaan has the full knowledge everybody else has partial)
२) सर्वदेश घाति- Copletely covered(Not knowledge at all)

Gyanaverni: ज्ञान को प्रगट नहि होने दे जेसे बादलो के आ जने पेर सुरज का प्रकाश रुप से देखाई देता है
Dhrshanaverni: दर्शन मे बाधा दे जिन बिम्म, मन्दिर दर्शन मे बाधा दे
Antaray: सता केर्मो, दान , लाभ, भोग उप्भोग मे बाधा उत्पन्न करे. शक्ति को प्रकट करने मे बाधा उत्पन्न करे
Mohanyey: आत्मा के स्वभाव को प्रगट नहि होने दे, जो देखाई देता है वह सत्य का आभस होता है पर असत्य होता है

2-अघातिया कर्म: जो कर्म आत्मा के गुणो ka घात नही करते है वे अघातिया कर्म है
vedneya
Ayau
Naam
Gotra


------------------------------------------------------------------रुचि जैन

मई २८ नवीन कर्म बंध

Audio Link http://cid-52d749a4f28f4c05.skydrive.live.com/self.aspx/Public/MMP%20class/05-28-08Chap2%7C_%e0%a4%a8%e0%a4%b5%e0%a5%80%e0%a4%a8%20%e0%a4%ac%e0%a4%82%e0%a4%a7%20%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%9a%e0%a4%be%e0%a4%b0%20%7C31.WAV

कर्म अनादिकाल से चले आ रहे हैं पुराने कर्म का क्षय हो जाता है और नए कर्म बंध जाते हैं अब नए कर्म क्यों बंधते है यह देखना है ज्ञानावरण, दर्शानावरण व अंतराय के कारण नए कर्म नही बंधाते है, नए कर्म सिर्फ़ मोहनीय कर्म की वजह से ही बंधते हैं जीव का स्वभाव ज्ञान दर्शन व वीर्य है ज्ञानावरण कर्म के उदय से जीव के ज्ञान का घात होता है, दर्शानावरण कर्म से जीव के दर्शन गुण का घात होता है और अंतराय कर्म से जीव के वीर्य गुण का घात होता है लेकिन इनके उदय से नए कर्म का बंध नही होता है इनके क्षयोपषम होने पर जीव का स्वभाव प्रकट होता है विभाव प्रकट नही होता है मोहनीय के उदय से तो विभाव ही प्रकट होता है अतः उसी से कर्म का बंध होता है

Tuesday, May 27, 2008

5/27-Chapter 2 - Ghatiya_Aghatiya Karmas

Ghatiya karma - Atama ke svabhav/gunno ka ghat karne wale.
Aghatiya karma - Atama ke gunno ka ghat nahi karte but bahiya samagri ka sayong karate hai. Karmo ke uday se hi hoti hai, icha kam nahin karti.

Types of ghatiya karma
Servaghati : serva ka ghat karne wala
Deshghati : partial

Meaning & rules of kshayopshum (applicable to all 4 ghati karmas)
1. Servaghati ka udiyabhavik kshay (since it is not nirjara - complete distruction) : servaghati ka uday nahi hona (Servaghati ke spardhak gets converted to deshghati (less intensed))
2. Deshghati ka uday me aana
3. Aupsham (aprshast Aupsham) - Future ke servaghati ka abhi uday main nahin aana.

Gyanavarnia
1. Mati gyanavarnia/shrut gyanavarnia/manhapariyay gyanavarnia/avadhi gyan ka kshayopshum hota hai - kshayopshumik bhav.
kshayopshumik bhav : Karma ke kshayopshum se pragat hone vale bhav.
2.Kavaligyanavarnia ka kshay hota hai - Kshayik bhav.
Kshayik bhav : Karma ke kshay se pragat hone vale bhav.

Mohaniya
Types
1. Darshan Mohaniya (Mithiyatava)
2. Charitra Mohaniya (Kashayas)-Mohaniya se charitra ka ghat hota hai-Viprit svabhav ki vyakta hoti hai.

* Ghatiya karmo se jiva ke svabhav ka ghat anadi se hota aa raha hai. Jivas that are 'asudh' at present are asudh from anadi but once they become 'sudh' there is no turning back.
* Jivas by nature area capable of 'kevalgyan'. Since jeevas & karmas are attached from'anadi' that capacity/shakti pragat nahin hoti.
* Karmo ke nimit ke bina kevalgyanadi (kevalgyan, keval darshan, samyakt, shej sukh) pragat hoga. Since karmas destroys/reduces this shakti (not svabhav itself) they are called ghatiya karmas.

Aghatiya
- sata/asata rupbahiya samagri ka sayong hota hai.
Saata : +ve feeling
asaata : -ve feeling

Vadniya
- sharir or sharir se related sata/asata samagri ka sayong.
example : health,wife, son, money etcTypes1. Sata Vadniya2. asata Vadniya
Vedan : Feelings
If there is no mohaniya there is no 'ichha' and hence vadniya will not have any effect. Mohaniya karma se bahiya samagari main sukh-dukh ka anubhav hota hai.
Example - Kevalibhagwan (Arihant)

Aayu
- Stithi ke anusar jiva ko sharir me rahena hoga. Kam/jayada nahi ho sakta.
- Aayu ki 'udirna' karm bhumi ke jeevo main payee jati hai.
Udirna : to become active before its due time.

Name
- Gati/Jaati(panchendriya/ekendriay..etc)/Sharir

Gotra
- Ucha/Neech kul main janam hona, high/low status.

Antray (can be calssified in both Ghati and Aghati karmas)
-is considered as aghati in absence of Mohaniya (kisi apeksha se)
- Viray/Shakti ka ghat karta hai isliye Ghati hota hai.

* Ghati karmas are asubh/paap rup karmas - puniya rup prakriya se mandata ayeegi.
* Agati karmas puniya/paap rup hote hai. -puniya rup prakriya se iname farak pageda.
* Aghatiya karmo se jiva sthul ho jata hai (instead of suskhma). Jivas ke 'nij svabhav' sva-arth main pragat nahin hote.

Relation between Pudagal Karmas and chetan Atama
* Karmas, being pudagal, directly atama ke svabhav ka ghat nahin kar sakta but Karmas and atama have 'nimit- naimitik' relation.
Nimit - Akinchit karan
Naimitik - Nimit ke vajaha se ko kariya utpan hua hai.
* Jab karma ka udya hota hai tab atam vibhav rup se parniman karta hai example Anesthesia.

Tuesday, May 20, 2008

Ch: 2 कर्मों के अनादीपने की सिद्धि, 05/19/08

Revision pg 21
मंगला चरण का अर्थ: मिथ्यात्व भाव - मोहनीय कर्म (मोह,राग, द्वेष) का अभाव होते निजभाव (अरिहंत अवस्था रूप भाव) प्रगट होता है. वो भाव हमेशा जयवंत रहो (सदा जय हो, वही उत्तम है) और वो भाव ही मोक्ष का उपाय है.

मोक्ष - छूटना - कोई भी बंधन से छूटना 4 बंधन - प्रकृति, प्रदेश, स्थिति,अनुभाग

कर्म बंध का निदान (कारण) संसार - संसरण - भ्रमण - हर पर्याय मे आत्मा की अवस्था अलग होती है - संसार भ्रमण

औपाधिक भाव - कर्म के उदय के समय मे - कर्म के निमित्त से जो भाव होते है
नैमित्तिक भाव - पर द्रव्य के निमित्त से जो भाव होते है
पारिणामिक भाव - कर्म के निमित्त के बिना जो भाव होते है

कर्मों के अनादी पने की सिद्धि:
Q: पुदगल परमाणु रागादिक निमित्त से कर्म रूप होते है; तो अनादी कर्म रूप कैसे है?
A : रागादिक का निमित्त तो नविन कर्म आते है उसी मे ही सम्भव है, अनादी अवस्था मे वो निमित्त नही है, निमित्त का कोई प्रयोजन नही है. यदि अनादी मे भी राग, द्वेष का निमित्त पना मने तो वो अनादीपना नही रहेता. इसलिए इसे एक सिध्धांत समजना चाहिए.

राग द्वेष रूप जो भाव होते है उससे कार्मण वर्गणा जिव से साथ associate होके कर्म रूप बनती है

तत्वप्रदिपिका - प्रवचनसार शास्त्र की व्याख्या मे सामान्यज्ञेयाधिकार मे कहा है की - रागादिक का कारण द्रव्य कर्म है और द्रव्य कर्म का कारण भाव कर्म है. यदि ऐसा हो तो इतरेतरश्रय दोष लगता है और यह process चलता रहेता है

इतरेतरश्रय दोष : एक असिध्ध बात सिध्ध करने के लिए दूसरी असिध्ध बात का सहारा लेने मे आता है, और दूसरी असिध्ध बात सिध्ध करने मे प्रथम असिध्ध बात का सहारा लेने मे आता है.
A ------causes ----> B and B ------causes ----> A

द्रव्य कर्म भाव कर्म से होते है और भाव कर्म द्रव्य कर्म से होते है यह इतरेतरश्रय दोष है.

यहा इतरेतरश्रय दोष नही लगता क्योंकि अनादी के द्रव्य कर्मो से नविन भाव कर्म होते है और वो नविन भाव कर्म से नविन द्रव्य कर्म होते है वो अनादी द्रव्य कर्म जैसे नही होते ( प्रकृति, प्रदेश, स्थिति,अनुभाग अलग होते है ) इस प्रकार यहा इतरेतरश्रय दोष नही लगता.

कर्म का अनादी से आत्मा के साथ सम्बन्ध है. ऐसा आगम मे कहा है और युक्ति से भी सम्भव है -अगर कर्म के निमित्त के बिना, पहेले से ही जिव को रागादिक कहा जाय तो रागादिक जिव का स्वाभाव हो जाएगा, और स्वाभाव मतलब पर के निमित्त के बिना जो हो वही स्वाभाव है. इसलिए कर्म का सम्बन्ध आत्मा के साथ अनादी से है.

Q:अलग अलग द्रव्य का अनादी से सम्बन्ध कैसे हो सकता है?
A: जैसे जल - दूध, तिल - तेल का सम्बन्ध अनादी है, कोई नविन मिलाप नही हुआ, इसी तरह अनादी से जिव - कर्म का सम्बन्ध है, नविन मिलाप नही हुआ.

सुक्ष्म पुदगल परमाणु एक दूसरे के साथ मिल जाने से उनके गुण भी एक दूसरे मे मिल जाते है परन्तु जिव - कर्म मिल जाते है पर उनके गुण आपस मे नही मिलते.

सम्बन्ध - जो पहेले भिन्न हो और बाद मे मिले हो उसको सम्बन्ध कहते है.

Q:जिव- कर्म तो अनादी से मिले हुआ है तो उसमे सम्बन्ध कैसे कह सकते है?
A:जिव - कर्म अनादी से मिले हुए थे पर बाद मे अलग हुए तब जानने मे आया की वो भिन्न थे, इस प्रकार अनुमान से पता चला की वो भिन्न थे और केवलज्ञान मे तो भिन्न भासित होता है.

इस प्रकार जिव - कर्म भिन्न है और उसका सम्बन्ध अनादी से है.

Wednesday, May 14, 2008

Chapter 2 5/13/08

On Tuesday, we first did revision of Chapter 1 where we left on Monday. The point was why we should workshop Aarihant. Not for worldly / sensual thing.

Then we started second chapter with 1st Dohha.

We discussed about Why Jiv is feeling sorrow. The reason was Karm Bandh. Then author Pundit TotarmalJi gave example of Patient who has disease. First doctor (Vaidth) explains why Patient has disease, then Doctor how he can recover for the disease and give him medicine/ advice. It is up to Patient to take medicine or follow advice. Same way, it is up to us to follow Aarihant's Marg / teaching. As doctor's job finishes after giving patient advice / medicine, and Patient's duty start. Our job starts after we learnt the Jivvani.

There are two types Bhav (Parinam) – Namatik and Aaupathik (नैमित्तिक / ऒपाधिक भाव). Namatik Bhav are the ones which happens with “Par Dhavya’s ke Nimit Se”, Aaupathik Bhav happens because of Karm’s Uday.

There are 4 नैमित्तिक भाव
1. Kshayik
2. Kshaoyopashmik
3. Upsamik
4. Aaudyik

The 4th one Aaudyik is because of Karma na Uday, Hence it is ऒपाधिक.

- By Sanjah Shah

Monday, May 12, 2008



















Level 1 - FreshersLevel 2 - BelieversLevel 3 - Special Characteristics
PraiseworthyRahasaya Ke JankarUttam/Excellent Shrotta

One whose future seems to be bright and one who
  • wants to understand the purpose of life.

  • feels world is full of miseries and wants
    to end all such miseries.

  • starts thinking of the outcome of his/her
    thoughts and feelings.

  • thinks answers to all the above questions
    are available in "Jain-Shastras".

  • Discusses all his/her doubts with knowledgeable
    persons and thinks about it repeatedly to
    understand the true meaning of all his/her
    feelings which will lead to happiness


  • One who is a firm believer of Jainism.

  • One who has acquired good knowledge of
    Jainism by reading/listening various "Shastras".

  • One who knows the difference between
    "Nischaynay" & "Vyavaharanay".

  • In case of doubts one who politely raises
    the question or discusses with other equally
    or more knowledgeable persons.

  • One who reads various "shastra" regularly.


  • One who has knowledge of grammar and logic
    and deep knowledge of Jain shastras.


  • Jisko "Atam-gyan" huva hai.


  • One who has "Manaha-Paryay gyan" (Muniraj)
    and/or "Avadhi gyan" (Gandhara).

  • Chapter 1: श्रोता का स्वरूप

    A श्रोता is a someone who listens to discourses by a वक्ता.

    Categories of a श्रोता

    1) नवीन श्रोता
    A shrota of this type has questions about the reasons for his existence, his real nature, he thinks about life beyond death, he observes his thoughts and contemplates about the fruits those thoughts would bear. He firmly believes that his well-being rests on getting answers to these questions. He finds scriptures as the source having answers to these questions and thereby develops a keen interest in listening to them. He reflects continuously upon what he learns from these scriptures, asks questions when in doubt and then starts implementing them in life considering them as his कर्तव्य.

    2) मध्यम श्रोता
    A shrota of this type has firm faith in religion and has clarity in knowledge based on the scriptures he has read. He clearly understands how Nischchay and Vyavhaar moksa marg complement each other and accordingly he incorporates them in real life. He refrains from doing lowly activites that are forbidden by the religion, indulges in more scriptural readings, resolves doubts by raising questions and answering them himself and when they can't be answered, he asks them with utmost humility.

    3) उत्कृष्ट श्रोता
    A shrota of this type is very well versed with scriptures on grammar, logic (which are generally considered as diffucult to understand) and other highly esteemed scriptures. Additionally, if he has experienced the soul, he grasps the finer details of the scriptures very well. Morever, a shrota who has अवधि or मन:पर्यय ज्ञान is a great श्रोता - for example, gandhar bhagwaan (such as Gautam Swami).


    Additional types of श्रोता and their pitfalls
    • One who listens to Shastras thinking that they are good for him, but because of lack of good intellect, he fails to grasps the meaning. This will result in पुण्य कर्म बंध, but doesn't do any substantial good as far as spiritual progress is concerned.
    • One who happens to listens to Shastra by chance without him putting in any efforts or one who listens to Shastra based on family tradition. Such a shrota will acquire पाप or पुण्य कर्म depending on his thoughts.
    • One who listens to Shastras out of ego, or solely for the purpose of debate in order to establish logical superiority or for some worldly gains. He only acquires पाप कर्म.
    Thus, having learnt qualities of a Shrota, it is upon oneself to introspect what kind of a shrota he is and take corrective measures as appropriate. One should especially be mindful of the shortcomings of shrota and should take extra care to avoid trapping himself into one of the pitfalls described above.

    Wednesday, May 7, 2008

    Class Notes Page 13-14

    Friday class notes

    Page 13-14

    Pandit Todarmal ji is trying to tell us the authenticity of the shastra ji. He is describing himself less-knowledgeable but he is trying to do this big step of creating this shastra.

    This shastra will be based on the old scriptures..

    He will be very careful about the little bit wrong interpretation but if he mistakenly does the wrong analysis then special knowledgeable person should correct it and then take the actual meaning that is his humble request.

    Now he is describing qualities of the readable and reciteable shastra.

    The qualities of the book should be -
    That book is focused upon the only veetrag bhaav.
    That will take you to the one and only happiness with is related to moksha
    That Shastaji raag devsh ko promote nahi karta that will not tell you the fancy imaginations, raag dwash and moha

    Moha – To have the opposite/wrong belief – Mithaythava. The feeling of MINE in any kind of things Like- house, car, and kids


    Raag – to feel very good (to understand as a good thing) for body and worldly things like- house, car, kids, person

    Dwash- to feel bad (to understand as a bad thing )for somebody and something like- house, car, kids, person

    There are books that illustrate the fiction, hate, anger, killing, fancy imagination and support that as ‘dharm’. These kind of shastra are like weapons which hurt your pure soul and will educate you the erroneous bhaav which was already (as sanskaar) connected to your soul. These kinds of shasrta will take you to multiple birth cycle. The true Shastra should not promote /revealing theses kind of information but talk about the path of one and only truth.

    Saturday, May 3, 2008

    महावीर स्वामी जीवन

    महावीर स्वामी जीवन चरित्र

    पुरुरवा भील - विदेहक्षेत्र की पुन्डरिकिणी नगरी - श्रावको का संघ तीर्थयात्रा पे जा रहा था - सागरसेन नाम के मुनिराज भी थे - जंगल मार्ग से जा रहे थे - डाकुओ की टोली - मुनिराज को मारने के लिए बाण चढाए - पत्नी ने रोका - मुनिराज की तेजस्वी मुद्रा - सामान्य शिकार नही है - भील ने मुनिराज को वन मे से बाहर का रास्ता बताया - मुनिराज प्रभावित हो गए - अहिंसा धर्मं बताया - भील ने क्रूरता छोड़ दी - मरकर सौधर्म स्वर्ग मे देव

    सौधर्म स्वर्ग मे देव - सौधर्मस्वर्ग मे अनेक ऋधिया प्राप्त हुई - दो सागरोपम का पुण्यफल - अज्ञान भाव - देवांगना के साथ क्रीडा, वैभव, विलास - आत्मज्ञान नही था - चयकर मनुष्य लोक

    ऋषभ देव का पौत्र मरीचि कुमार - ऋषभ देव के पुत्र भरत चक्रवर्ती के पुत्र मरीचि - ऋषभ देव भगवान के साथ अनेक लोगो ने दीक्षा ली - मरीचि कुमार ने भी ली - ऋषभ देव मास तक चैतन्य ध्यान मे लीन - मरीचि आदि साधू भूख, प्यास, सहन नही कर सके - मुनिमार्ग से भ॒ष्ट होकर अलग वर्तन - मुनिवेश छोड़कर तापस वेश धारण करलिया - सांख्यमत का प्रवर्तन किया - मिथ्या मार्ग का सेवन - कुतप के प्रभाव से मे स्वर्ग मे देव

    मे स्वर्ग मे देव - देवांगना के साथ इंद्रिय भोग - आयु पूर्ण होते मनुष्यगति मे ब्राह्मण

    ब्राह्मण का पुत्र - प्रियमित्र नाम - मरकर प्रथम स्वर्ग मे देव

    प्रथम स्वर्ग मे देव - दो सागर तक देवोपनित भोगो मे ही निकल कर - भोगो की लालसासहित मृत्यु - मनुष्य लोक

    ब्राह्मण पुष्पमित्र - बाल्य काल मे संन्यासी ने स्वर्ग का सुख देने की लालच दी -- स्वर्ग - मोक्ष का भेद नही जाननेवाले बालक ने कुतप धारण किया - मिथ्यात्व सहित मरकर दुसरे इशान स्वर्ग मे देव

    इशान स्वर्ग मे देव - अप्सरा के नृत्य - गान मे दीर्घ काल गवाया - मरकर ब्राह्मण

    अग्निसह ब्राह्मण - पुर्वभव के मिथ्या संस्कार - संन्यासी होकर - मिथ्यातप धारण - मरकर तीसरे स्वर्ग मे देव

    तीसरे स्वर्ग मे देव - मरकर ब्राह्मण

    अग्निमित्र ब्राह्मण - युवा अवस्था मे गृह त्याग - संन्यासी -तीव्र तप - मिथ्यात्व मार्ग का उपदेश देने लगे -मरकर चौथे स्वर्ग मे देव

    चौथे स्वर्ग मे देव - असंख्य वषोँ तक स्वर्ग लोक की विभूतियों को पुण्यफल मे भोगा - मरकर ब्राह्मण

    भारद्वाज ब्राह्मण - पुनः पूर्व भव की तरह संन्यासी - कुतप मे जीवन बिता कर - चौथे स्वर्ग मे देव

    चौथे स्वर्ग मे देव - स्वर्ग की ऋधिया प्राप्त - देवंगानाओ के साथ जीवन बिता कर - आयु पूर्ण होने - मंदार माला मुरझाने लगी - तब विचार आया - स्वर्ग की विभूति छोड़ कर जाना पड़ेगा - देवियो से विलाप - मनुष्य मे पड़ा और अनेक भवो मे भटकता

    त्रस पर्याय - अनेक बार मनुष्य और देव गति मे भ्रमण - दुःख - दो घड़ी मे हजारो बार जन्म - मरण --

    राजग्रुही मे ब्राह्मण - नाम स्थविर ब्राह्मण - नास्तिक पंथ का संन्यासी - कुतप - मरकर - पंचम स्वर्ग मे देव

    पंचम स्वर्ग मे देव - पंचम ब्रह्मस्वर्ग मे दस सागर पर्यंत रहा - मरकर - पुनः राजग्रुही मे जन्म

    राजग्रुही नगरी मे विश्वनंदी राजकुमार - विश्व भूति राजा के पुत्र - विश्वभूति राजा श्वेत केश देखकर संसार से विरक्त - भाई विशाखभुती को राज्य - विश्वनंदी को युवराज पद दिया- युवराज ने सुंदर उद्यान बनाया - युवराज को अति ममत्व - विशाखनंदी ने पिता के पास वो उद्यान माँगा - विशाखभुती ने कपट पूर्वक विश्वनंदी को राज्य से बाहर भेजा - विशाखनंदी ने उद्यान पर अधिकार चालू किया - विश्वनंदी और विशाखनंदी के बिच युद्ध - विश्वनंदी ने वीरता पूर्वक सेना के छक्के छुडाये - विशाखनंदी शरण मे आकर क्षमा याचना करने लगा - विश्वनंदी का क्रोध शांत हुआ - भाई के साथ युद्ध करके लज्जित होकर - दीक्षा - अनेक बार उपवास आदि तप किए - मुनिराज पारना हेतु मथुरा नगरी मे गए - बैल ने सिंग मारा - धरती पर गिर पड़े - उसी समय विशाखानंदी वैश्या के घर के पास थे - बल के बारे मे कटाक्ष करने लगे - विश्वनंदी मुनि की सुषुप्त कषाय जग उठी - क्रोध मे बोलने लगे - मेरे तप की प्रभाव से भविष्य मे सबके सामने छेद डालूँगा - इस प्रकार निदान कर बैठे - तप के पुण्य से महाशुक्र स्वर्ग मे देव हुए

    महाशुक्र स्वर्ग मे देव - १६ सागर तक भोगलालसा से वैभव का उपभोग किया - मरकर त्रिपुष्ठ वासुदेव बने

    त्रिपुष्ठ वासुदेव - पूर्व भव के चाचा (विशाखभुती) बलदेव के रूप मे और (विश्वनंदी) त्रिपुष्ठ वासुदेव के रूप मे प्रजापति राजा के वहा पुत्र के रूप मे जन्म हुआ - गाँव मे एक सिंह ने लोगो की हिंसा करके भयभीत कर रखा - राजा को खेद हुआ - सिंह को मारने के लिए सेना तैयार की - पर त्रिपुष्ठ कुमार ने सिंह को स्वयं मारने की इच्छा प्रकट की - एक हाथ से पंजे पकड़े - दुसरे हाथ से झपट्टा मारकर निचे पछाड़ दिया - विद्याधर के राजा ज्वलनजटी ने अपनी पुत्री स्वयंप्रभा का विवाह त्रिपुष्ठ के साथ किया - प्रतिस्पर्धी राजा अश्वग्रिव को अपमान लगा - त्रिपुष्ठ के साथ युद्ध करने चला - दोनों के बिच युद्ध चला - क्रोध पूर्वक त्रिपुष्ठ द्वारा छोडे हुआ चक्र ने अश्वग्रिव की ग्रीवा को छेद दिया - भारत क्षेत्र के प्रथम वासुदेव के रूप मे प्रसिद्ध - निदान बंध के कारन रौद्रध्यान सहित मृत्यु - सातवे नरक मे गए

    सातवा नरक - नरक के दुखो - एक नारकी ने आकर भाले से आंखे छेद दी - शरीर मे भाले घोंप दिए - उबलते हुए लालरस मे डाला - वृक्ष की निचे शान्ति पाने के लिए गए तो वृक्ष के तीक्ष्ण पत्ते से शरीर के टुकडे हो गए - मारकर सिंह हुआ

    सिंह - निर्दय सिंह मारकर पुनः नरक मे गया

    नरक - नरक के दुःख को सहन करके पुनः सिंह हुआ

    सिंह - बलवान सिंह हुआ - गर्जना सुनकर जंगल के पशु कांप उठते थे - अमितकिर्ती और अमितप्रभ नामके मुनिराज आकाशमार्ग से जाते हुआ सिंह को प्रतिबोध करने निचे उतरे - शांत मुनिराज को देखकर सिंह को विस्मय हुआ - एक ओर मारा हुआ हिरन दूसरी ओर शांत मुनिवर - विरुद्ध द्रश्य विरुद्ध भाव देखकर क्षणभर विचार मे खो गया - उसको क्रोध की अपेक्षा शान्ति अच्छी लगी - प्रथम बार शांत परिणामो से सिंह को आश्चर्य हुआ - मुनिराज वात्सल्य पूर्वक उसको संबोधन करने लगे - मुनिराज की वाणी - पूर्व भवों का वर्णन - जतिस्मरण हुआ - और मुनिराज ने बताया की भरत क्षेत्र के चौबिसवा तीर्थंकर बनोगे - हर्षपुर्वक नाच उठा - सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ - निर्दोष शिला को तीर्थरूप मानकर सल्लेखना रूप मरण समाधि लगाई - एक ही करवट बैठा रहा - कषाय शांत हो गई - ग्रीष्म की अति उष्ण वायु से शरीर सुख रहा था- सूर्य की किरने उसको जला रही थी - मन मे कोई क्लेश नही - शरीर त्याग करके सौधर्म स्वर्ग मे देव हुआ

    सौधर्म स्वर्ग मे देव - सिंह्केतु देव हुआ - पूजा विधि सहित मुनिवारों की प्रशंसा करता था - अखंड आत्म आराधना पूर्वक असंख्य वर्ष व्यतीत किए - चयकर विदेह्क्षेत्र मे कनकप्रभ राजा के पुत्र रूप मे जन्म

    विदेह्क्षेत्र मे कनकप्रभ राजा के पुत्र कनकध्वज - सुंदरवन मे यात्रा करने गए - तेजस्वी मुने ध्यान मे बैठे थे - अतीन्द्रिय शान्ति की दिव्या झलक देखकर प्रसन्न हुए - धर्मात्मा को देखकर मुनिराज भी प्रसन्न हुये और चरित्र लेने की बात बताई - विलम्ब किए बिना अति वैराग्यपूर्वक - चरित्र दशा अंगीकार - आयु पूर्ण होते हुए आठवे स्वर्ग मे देव

    आठवे स्वर्ग मे देव - देवानंद नाम - असंख्य वर्ष तक देवों का आनंद प्राप्त कटके अपनी आत्म आराधना बढ़ने पुनः मनुष्य लोक मे आये

    व्रजधर राजा के पुत्र के रूप मे जन्म - नाम हरिषेण - श्रावक के १२ व्रत धारण किए - जिन दीक्षा लेकर तपोवन मे जाकर प्रशान्तरस मे मग्न हो गए - समाधि पूर्वक शरीर त्याग कर महाशुक्र स्वर्ग मे देव

    महाशुक्र स्वर्ग मे देव - १६ सागर आयु के धारी देव हुए - आयु पूर्ण होते विदेह्क्षेत्र मे जन्म

    विदेह्क्षेत्र मे धनंजय राजा के पुत्र के रूप मे - नाम प्रियमित्र - राजा ने राज्य पुत्र को सौंप दिया - राज्य के साथ साथ अणुव्रतों का भी पालन करते थे - एकबार शस्त्र भंडार मे सुदर्शन चक्र प्रगट हुआ - परन्तु आश्चर्य चकित नही हुए - चक्ररत्न प्राप्त होते ही विदेह्क्षेत्र के खंडो की दिग्विजय की - तेरासी लाख पूर्व तक चक्रवर्ती पद पर रहे - दर्पण मे मुख देखते समय कान के पास श्वेत केश देखकर चित्त संसार से विरक्त हुआ - जिन दीक्षा लेकर चरित्र अंगीकार किया - पुण्य फल के कारन बारवें सूर्यप्रभ स्वर्ग मे देव हुए

    सूर्यप्रभ स्वर्ग मे देव - असंख्य वर्ष तक रहे - मनुष्य लोक मे अवतरित हुए

    भरतक्षेत्र के पूर्व भाग मे श्वेतनगरी मे राजा नन्दिवर्धन के पुत्र के रूप मे जन्म हुआ - नाम नंदन - वन मे श्रुत सागर नाम के मुनिराज को मिले - मुनिराज के उपदेश सुनकर नंदनराजा अपना जीवन प्रसन्नता पूर्वक बिताते थे - धर्मं के चिंतन के बिना एक क्षण भी रहते नही थे - महाराजा नन्दिवर्धन आकाश मे मेघों की क्षण भंगुरता देखकर उदासीन हो गये - विरक्त हुए- जिन दीक्षा अंगीकार की - कर्मो को नष्ट करके मोक्ष पद प्राप्त किया - पिता के वियोग से नंदन शोकाकुल थे - नन्द राजा ने राज्य का भार संभाल लिया - धर्मं और राज्य सहयोग पूर्वक चल रहे थे - बसंत रितु का प्रारम्भ हो गया था - प्रौष्ठल नाम के श्रुत केवली मुनिराज श्वेतपुरी मे आए थे - भक्ति पूर्वक वंदन करके नंदन राजा ने मुनिराज से वीतरागता का उपदेश और अपने पूर्व भवों की बात सुनी - जातिस्मरण हुआ- पूर्व भव का चित्रपट और भविष्य की सुंदर कहानी सुनकर प्रसन्न हो गए - मुनिराज ने दीक्षा लेने की प्रेरणा दी - जिन्दिक्षा अंगीकार की - विशुद्ध चरित्र बल से लब्धियो सहित ११ अंग रूप श्रुत ज्ञान का विकास हो गया - प्रौष्ठल श्रुत केवली की धर्मं सभा मे बैठे थे - अनेक मुनिवर, आचार्यों, उपाध्याय,साधू भी, स्वानुभव रस युक्त जिनवाणी सब साथ मे देखकर नन्द मुनिराज उल्लसित हो गए और तीर्थंकर नामकर्म बंधना प्रारम्भ हो गया - नन्द मुनिराज आश्चर्य करी अदभुत घटना देखकर सोलह प्रकार की मंगल भावना जागृत हुई - तीर्थंकर प्रकृति के पिंड रूप पुदगल स्वयमेव परिणमित होने लगे - अत्यन्त विशुद्ध परिणामो से क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ - उसी समय वासुपुज्य स्वामी का शासन चल रहा था - समाधि मरण करके १६ वें प्राणत स्वर्ग के पुश्पोत्तर विमान मे इंद्र रूप उत्पन्न हुए

    १६ वें प्राणत स्वर्ग मे जन्म - चयकर मनुष्य लोक मे जन्म

    मनुष्य लोक - महावीर स्वामी

    By Avani Shah.

    The recorded class is at: http://cid-52d749a4f28f4c05.skydrive.live.com/self.aspx/Public/MMP%20class/04-26-08_Revision_%e0%a4%ae%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%b5%e0%a5%80%e0%a4%b0%20%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a5%80%20%e0%a4%aa%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%9a%e0%a4%af.WAV