Saturday, May 3, 2008

महावीर स्वामी जीवन

महावीर स्वामी जीवन चरित्र

पुरुरवा भील - विदेहक्षेत्र की पुन्डरिकिणी नगरी - श्रावको का संघ तीर्थयात्रा पे जा रहा था - सागरसेन नाम के मुनिराज भी थे - जंगल मार्ग से जा रहे थे - डाकुओ की टोली - मुनिराज को मारने के लिए बाण चढाए - पत्नी ने रोका - मुनिराज की तेजस्वी मुद्रा - सामान्य शिकार नही है - भील ने मुनिराज को वन मे से बाहर का रास्ता बताया - मुनिराज प्रभावित हो गए - अहिंसा धर्मं बताया - भील ने क्रूरता छोड़ दी - मरकर सौधर्म स्वर्ग मे देव

सौधर्म स्वर्ग मे देव - सौधर्मस्वर्ग मे अनेक ऋधिया प्राप्त हुई - दो सागरोपम का पुण्यफल - अज्ञान भाव - देवांगना के साथ क्रीडा, वैभव, विलास - आत्मज्ञान नही था - चयकर मनुष्य लोक

ऋषभ देव का पौत्र मरीचि कुमार - ऋषभ देव के पुत्र भरत चक्रवर्ती के पुत्र मरीचि - ऋषभ देव भगवान के साथ अनेक लोगो ने दीक्षा ली - मरीचि कुमार ने भी ली - ऋषभ देव मास तक चैतन्य ध्यान मे लीन - मरीचि आदि साधू भूख, प्यास, सहन नही कर सके - मुनिमार्ग से भ॒ष्ट होकर अलग वर्तन - मुनिवेश छोड़कर तापस वेश धारण करलिया - सांख्यमत का प्रवर्तन किया - मिथ्या मार्ग का सेवन - कुतप के प्रभाव से मे स्वर्ग मे देव

मे स्वर्ग मे देव - देवांगना के साथ इंद्रिय भोग - आयु पूर्ण होते मनुष्यगति मे ब्राह्मण

ब्राह्मण का पुत्र - प्रियमित्र नाम - मरकर प्रथम स्वर्ग मे देव

प्रथम स्वर्ग मे देव - दो सागर तक देवोपनित भोगो मे ही निकल कर - भोगो की लालसासहित मृत्यु - मनुष्य लोक

ब्राह्मण पुष्पमित्र - बाल्य काल मे संन्यासी ने स्वर्ग का सुख देने की लालच दी -- स्वर्ग - मोक्ष का भेद नही जाननेवाले बालक ने कुतप धारण किया - मिथ्यात्व सहित मरकर दुसरे इशान स्वर्ग मे देव

इशान स्वर्ग मे देव - अप्सरा के नृत्य - गान मे दीर्घ काल गवाया - मरकर ब्राह्मण

अग्निसह ब्राह्मण - पुर्वभव के मिथ्या संस्कार - संन्यासी होकर - मिथ्यातप धारण - मरकर तीसरे स्वर्ग मे देव

तीसरे स्वर्ग मे देव - मरकर ब्राह्मण

अग्निमित्र ब्राह्मण - युवा अवस्था मे गृह त्याग - संन्यासी -तीव्र तप - मिथ्यात्व मार्ग का उपदेश देने लगे -मरकर चौथे स्वर्ग मे देव

चौथे स्वर्ग मे देव - असंख्य वषोँ तक स्वर्ग लोक की विभूतियों को पुण्यफल मे भोगा - मरकर ब्राह्मण

भारद्वाज ब्राह्मण - पुनः पूर्व भव की तरह संन्यासी - कुतप मे जीवन बिता कर - चौथे स्वर्ग मे देव

चौथे स्वर्ग मे देव - स्वर्ग की ऋधिया प्राप्त - देवंगानाओ के साथ जीवन बिता कर - आयु पूर्ण होने - मंदार माला मुरझाने लगी - तब विचार आया - स्वर्ग की विभूति छोड़ कर जाना पड़ेगा - देवियो से विलाप - मनुष्य मे पड़ा और अनेक भवो मे भटकता

त्रस पर्याय - अनेक बार मनुष्य और देव गति मे भ्रमण - दुःख - दो घड़ी मे हजारो बार जन्म - मरण --

राजग्रुही मे ब्राह्मण - नाम स्थविर ब्राह्मण - नास्तिक पंथ का संन्यासी - कुतप - मरकर - पंचम स्वर्ग मे देव

पंचम स्वर्ग मे देव - पंचम ब्रह्मस्वर्ग मे दस सागर पर्यंत रहा - मरकर - पुनः राजग्रुही मे जन्म

राजग्रुही नगरी मे विश्वनंदी राजकुमार - विश्व भूति राजा के पुत्र - विश्वभूति राजा श्वेत केश देखकर संसार से विरक्त - भाई विशाखभुती को राज्य - विश्वनंदी को युवराज पद दिया- युवराज ने सुंदर उद्यान बनाया - युवराज को अति ममत्व - विशाखनंदी ने पिता के पास वो उद्यान माँगा - विशाखभुती ने कपट पूर्वक विश्वनंदी को राज्य से बाहर भेजा - विशाखनंदी ने उद्यान पर अधिकार चालू किया - विश्वनंदी और विशाखनंदी के बिच युद्ध - विश्वनंदी ने वीरता पूर्वक सेना के छक्के छुडाये - विशाखनंदी शरण मे आकर क्षमा याचना करने लगा - विश्वनंदी का क्रोध शांत हुआ - भाई के साथ युद्ध करके लज्जित होकर - दीक्षा - अनेक बार उपवास आदि तप किए - मुनिराज पारना हेतु मथुरा नगरी मे गए - बैल ने सिंग मारा - धरती पर गिर पड़े - उसी समय विशाखानंदी वैश्या के घर के पास थे - बल के बारे मे कटाक्ष करने लगे - विश्वनंदी मुनि की सुषुप्त कषाय जग उठी - क्रोध मे बोलने लगे - मेरे तप की प्रभाव से भविष्य मे सबके सामने छेद डालूँगा - इस प्रकार निदान कर बैठे - तप के पुण्य से महाशुक्र स्वर्ग मे देव हुए

महाशुक्र स्वर्ग मे देव - १६ सागर तक भोगलालसा से वैभव का उपभोग किया - मरकर त्रिपुष्ठ वासुदेव बने

त्रिपुष्ठ वासुदेव - पूर्व भव के चाचा (विशाखभुती) बलदेव के रूप मे और (विश्वनंदी) त्रिपुष्ठ वासुदेव के रूप मे प्रजापति राजा के वहा पुत्र के रूप मे जन्म हुआ - गाँव मे एक सिंह ने लोगो की हिंसा करके भयभीत कर रखा - राजा को खेद हुआ - सिंह को मारने के लिए सेना तैयार की - पर त्रिपुष्ठ कुमार ने सिंह को स्वयं मारने की इच्छा प्रकट की - एक हाथ से पंजे पकड़े - दुसरे हाथ से झपट्टा मारकर निचे पछाड़ दिया - विद्याधर के राजा ज्वलनजटी ने अपनी पुत्री स्वयंप्रभा का विवाह त्रिपुष्ठ के साथ किया - प्रतिस्पर्धी राजा अश्वग्रिव को अपमान लगा - त्रिपुष्ठ के साथ युद्ध करने चला - दोनों के बिच युद्ध चला - क्रोध पूर्वक त्रिपुष्ठ द्वारा छोडे हुआ चक्र ने अश्वग्रिव की ग्रीवा को छेद दिया - भारत क्षेत्र के प्रथम वासुदेव के रूप मे प्रसिद्ध - निदान बंध के कारन रौद्रध्यान सहित मृत्यु - सातवे नरक मे गए

सातवा नरक - नरक के दुखो - एक नारकी ने आकर भाले से आंखे छेद दी - शरीर मे भाले घोंप दिए - उबलते हुए लालरस मे डाला - वृक्ष की निचे शान्ति पाने के लिए गए तो वृक्ष के तीक्ष्ण पत्ते से शरीर के टुकडे हो गए - मारकर सिंह हुआ

सिंह - निर्दय सिंह मारकर पुनः नरक मे गया

नरक - नरक के दुःख को सहन करके पुनः सिंह हुआ

सिंह - बलवान सिंह हुआ - गर्जना सुनकर जंगल के पशु कांप उठते थे - अमितकिर्ती और अमितप्रभ नामके मुनिराज आकाशमार्ग से जाते हुआ सिंह को प्रतिबोध करने निचे उतरे - शांत मुनिराज को देखकर सिंह को विस्मय हुआ - एक ओर मारा हुआ हिरन दूसरी ओर शांत मुनिवर - विरुद्ध द्रश्य विरुद्ध भाव देखकर क्षणभर विचार मे खो गया - उसको क्रोध की अपेक्षा शान्ति अच्छी लगी - प्रथम बार शांत परिणामो से सिंह को आश्चर्य हुआ - मुनिराज वात्सल्य पूर्वक उसको संबोधन करने लगे - मुनिराज की वाणी - पूर्व भवों का वर्णन - जतिस्मरण हुआ - और मुनिराज ने बताया की भरत क्षेत्र के चौबिसवा तीर्थंकर बनोगे - हर्षपुर्वक नाच उठा - सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ - निर्दोष शिला को तीर्थरूप मानकर सल्लेखना रूप मरण समाधि लगाई - एक ही करवट बैठा रहा - कषाय शांत हो गई - ग्रीष्म की अति उष्ण वायु से शरीर सुख रहा था- सूर्य की किरने उसको जला रही थी - मन मे कोई क्लेश नही - शरीर त्याग करके सौधर्म स्वर्ग मे देव हुआ

सौधर्म स्वर्ग मे देव - सिंह्केतु देव हुआ - पूजा विधि सहित मुनिवारों की प्रशंसा करता था - अखंड आत्म आराधना पूर्वक असंख्य वर्ष व्यतीत किए - चयकर विदेह्क्षेत्र मे कनकप्रभ राजा के पुत्र रूप मे जन्म

विदेह्क्षेत्र मे कनकप्रभ राजा के पुत्र कनकध्वज - सुंदरवन मे यात्रा करने गए - तेजस्वी मुने ध्यान मे बैठे थे - अतीन्द्रिय शान्ति की दिव्या झलक देखकर प्रसन्न हुए - धर्मात्मा को देखकर मुनिराज भी प्रसन्न हुये और चरित्र लेने की बात बताई - विलम्ब किए बिना अति वैराग्यपूर्वक - चरित्र दशा अंगीकार - आयु पूर्ण होते हुए आठवे स्वर्ग मे देव

आठवे स्वर्ग मे देव - देवानंद नाम - असंख्य वर्ष तक देवों का आनंद प्राप्त कटके अपनी आत्म आराधना बढ़ने पुनः मनुष्य लोक मे आये

व्रजधर राजा के पुत्र के रूप मे जन्म - नाम हरिषेण - श्रावक के १२ व्रत धारण किए - जिन दीक्षा लेकर तपोवन मे जाकर प्रशान्तरस मे मग्न हो गए - समाधि पूर्वक शरीर त्याग कर महाशुक्र स्वर्ग मे देव

महाशुक्र स्वर्ग मे देव - १६ सागर आयु के धारी देव हुए - आयु पूर्ण होते विदेह्क्षेत्र मे जन्म

विदेह्क्षेत्र मे धनंजय राजा के पुत्र के रूप मे - नाम प्रियमित्र - राजा ने राज्य पुत्र को सौंप दिया - राज्य के साथ साथ अणुव्रतों का भी पालन करते थे - एकबार शस्त्र भंडार मे सुदर्शन चक्र प्रगट हुआ - परन्तु आश्चर्य चकित नही हुए - चक्ररत्न प्राप्त होते ही विदेह्क्षेत्र के खंडो की दिग्विजय की - तेरासी लाख पूर्व तक चक्रवर्ती पद पर रहे - दर्पण मे मुख देखते समय कान के पास श्वेत केश देखकर चित्त संसार से विरक्त हुआ - जिन दीक्षा लेकर चरित्र अंगीकार किया - पुण्य फल के कारन बारवें सूर्यप्रभ स्वर्ग मे देव हुए

सूर्यप्रभ स्वर्ग मे देव - असंख्य वर्ष तक रहे - मनुष्य लोक मे अवतरित हुए

भरतक्षेत्र के पूर्व भाग मे श्वेतनगरी मे राजा नन्दिवर्धन के पुत्र के रूप मे जन्म हुआ - नाम नंदन - वन मे श्रुत सागर नाम के मुनिराज को मिले - मुनिराज के उपदेश सुनकर नंदनराजा अपना जीवन प्रसन्नता पूर्वक बिताते थे - धर्मं के चिंतन के बिना एक क्षण भी रहते नही थे - महाराजा नन्दिवर्धन आकाश मे मेघों की क्षण भंगुरता देखकर उदासीन हो गये - विरक्त हुए- जिन दीक्षा अंगीकार की - कर्मो को नष्ट करके मोक्ष पद प्राप्त किया - पिता के वियोग से नंदन शोकाकुल थे - नन्द राजा ने राज्य का भार संभाल लिया - धर्मं और राज्य सहयोग पूर्वक चल रहे थे - बसंत रितु का प्रारम्भ हो गया था - प्रौष्ठल नाम के श्रुत केवली मुनिराज श्वेतपुरी मे आए थे - भक्ति पूर्वक वंदन करके नंदन राजा ने मुनिराज से वीतरागता का उपदेश और अपने पूर्व भवों की बात सुनी - जातिस्मरण हुआ- पूर्व भव का चित्रपट और भविष्य की सुंदर कहानी सुनकर प्रसन्न हो गए - मुनिराज ने दीक्षा लेने की प्रेरणा दी - जिन्दिक्षा अंगीकार की - विशुद्ध चरित्र बल से लब्धियो सहित ११ अंग रूप श्रुत ज्ञान का विकास हो गया - प्रौष्ठल श्रुत केवली की धर्मं सभा मे बैठे थे - अनेक मुनिवर, आचार्यों, उपाध्याय,साधू भी, स्वानुभव रस युक्त जिनवाणी सब साथ मे देखकर नन्द मुनिराज उल्लसित हो गए और तीर्थंकर नामकर्म बंधना प्रारम्भ हो गया - नन्द मुनिराज आश्चर्य करी अदभुत घटना देखकर सोलह प्रकार की मंगल भावना जागृत हुई - तीर्थंकर प्रकृति के पिंड रूप पुदगल स्वयमेव परिणमित होने लगे - अत्यन्त विशुद्ध परिणामो से क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ - उसी समय वासुपुज्य स्वामी का शासन चल रहा था - समाधि मरण करके १६ वें प्राणत स्वर्ग के पुश्पोत्तर विमान मे इंद्र रूप उत्पन्न हुए

१६ वें प्राणत स्वर्ग मे जन्म - चयकर मनुष्य लोक मे जन्म

मनुष्य लोक - महावीर स्वामी

By Avani Shah.

The recorded class is at: http://cid-52d749a4f28f4c05.skydrive.live.com/self.aspx/Public/MMP%20class/04-26-08_Revision_%e0%a4%ae%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%b5%e0%a5%80%e0%a4%b0%20%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a5%80%20%e0%a4%aa%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%9a%e0%a4%af.WAV

1 comment:

guru said...

bahut sundar jankari
ise prkar ki jankari pahly hamyn kanhi sy prapt nahi thi