अब ग्रंथ की प्रमाणिकता सिद्ध करते हैं:-
अ, आ, इ, ई आदि जो अक्षर है, वे अनादि से चले आ रहे है और उनका कभी अंत नहीं होगा।
अ+क्षर(नष्ट होना) अर्थात जिसका कभी नाश ना हो । वे अक्षर लिखने में तो असमान हो सकते है परंतु बोलने में तो सभी समान ही होते है। ऐसे अक्षरों का समूह पद कहलाता है.. पद भी स्वयंसिद्ध अर्थात अनादिनिधन अर्थात किसी से बनाये हुए नही है। और उन पदो का समूह श्रुत कहलाता है जो कि सत्यार्थ के प्रकाशक है। तो पंडित जी लिखते है कि मै उन पदो को जोडकर ग्रंथ लिख रहा हूं जो कि अपनी बुद्धि से कल्पना करके झूठे अर्थ के सूचक पद नही लिख रहा हूं ।जो अनादि से पद चले आ रहे है उनसे ही सत्य अर्थ के सूचक पद लिख कर ग्रंथ की रचना कर रहा हूं।इस प्रकार पंडितजी ग्रंथ की प्रमाणिकता बता रहे है।
अब इन ग्रंथों की परम्परा कैसे चली आ रही है सो कहते हैं..
तीर्थंकर केवली की दिव्य ध्वनि ---> गणधर द्वारा उन पदों का अर्थ जान कर अंप्रकीर्णकों की रचना --->उस आधार पर अन्य आचार्यों द्वारा अन्य अन्य ग्रन्थों की रचना
इस प्रकार उन पदों की परम्परा चल रही है ।
काल २ = उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी
दोनो कालो मे 6-6 काल होते है
उत्सर्पिणी काल मे सब कुछ बढता हुआ जाता है जैसे कद, आयु, सुख, सम्पत्ति, वैभव, बल आदि
और अवसर्पिणी मे सब कुछ घटता हुआ जाता है।
वर्तमान में अवसर्पिणी काल है। उसमे अंतिम तीर्थंकर महावीर भगवान हुए , उनकी दिव्य ध्वनि सुनकर गौतम गणधर देव ने अंग प्रकीर्णको की रचना की, फ़िर १२ अंगो के धारी श्रुत केवली हुए, फ़िर आचार्यों द्वारा रचित ग्रंथ हुए परन्तु बुद्धि की मंदता की वजह से उन सभी ग्रन्थो का अभ्यास नही हो पाया।
पंचम काल मे ३ केवली हुए १) गौतम गणधर २) सुधर्माचार्य ३) जम्बूस्वामी । ये अनुबद्ध केवली कहलाये।
सुनैना
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2 comments:
अनुबद्ध केवली का क्या अर्थ?
ग्रंथ नष्ट क्यो हो गये?
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