Wednesday, April 9, 2008

Class Notes 4/8/8

Here is link to the audio recording: http://cid-52d749a4f28f4c05.skydrive.live.com/self.aspx/Public/MMP%20class/04-08-08_%e0%a4%85%e0%a4%b0%e0%a4%b9%e0%a4%82%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%a6%e0%a4%bf%20%e0%a4%b8%e0%a5%87%20%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%9c%e0%a4%a8%20%e0%a4%b8%e0%a4%bf%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%a7%e0%a4%bf.WAV



अपना प्रयोजन सुख की प्राप्ति का है जो सुख प्रदान करे वही अपने लिए इष्ठ है, सो उनका हम सम्मान करते हैं । अपना प्रयोजन मान की प्राप्ति या ज्ञान प्राप्ति नही है, अपितु जिस के द्वारा हमे सुख की प्राप्ति हो वह प्रयोजन भूत है यानि जिस कार्य के करने से हमे सुख की प्राप्ति हो और दुःख दूर हो वह हमारे लिए प्रयोजनभूत है । जिसके द्वारा कार्य की सिद्धि हो वह हमारे लिए इष्ठ है, जो हमे चाहिए वह वस्तु जो हमे दिला दे वही हमारे लिए इष्ठ कहलाएगा इस संदर्भ में हमारा प्रयोजन वीतराग विशेष ज्ञान है । इससे हमें सुख की प्राप्ति होती है - निराकुलता मिलती है और आकुलता दूर होती है । सुख से अपने आप दुःख दूर हो जाता है । अपने को अपना प्रयोजन निश्चित करना है की ज्ञान चाहिए अथवा सुख की प्राप्ति चाहिये ।
अरिहंतादिक से प्रयोजन सिद्धि
अब प्रयोजन सिद्धि कैसे होती है उसका विचार करते हैं । आत्मा के तीन प्रकार के परिणाम है - संक्लेश, विशुद्ध और शुभ । जिनके द्वारा असाता आदि अशुभ कर्मों का बंध होता है वह संक्लेश परिणाम है । विशुद्ध परिणामो से पुण्य कर्मो का बंध एवं मंद कषाय रूप कर्मो का बंध होता है । शुभ परिणामो से कोई भी कर्मो का बंध नहीं होता है, अपितु कर्मो की निर्जरा ही होती है । इन शुद्ध परिणामो से संक्लेश परिणाम भी तीन तरह के हैं - मिथ्यात्व, राग, और द्वेष रूप । मिथ्यात्व परिणाम तो स्पष्ट ही संक्लेश रूप है, अब राग को लेते हैं जो वस्तु अच्छी लगाती है वह राग जिस वस्तु से मान हो वह द्वेष रूप जिस से प्रशस्त लोभ हो वह परिणाम विशुद्ध रूप माने जाते हैं ।
हम संक्लेश परिमाण से घातिया कर्म का बंध कर रहे हैं, यह कर्म सब मेरे शत्रु रूप हैं अपने को सोचना चाहिऐ की कर्म मेरे शत्रु हैं जो की अपने स्वाभाव का घात कर रहे हैं । अपन कर्म का बंध निरंतर कर रहे हैं और कुछ चिंता ही नहीं कर रहें हैं । हम निज स्वाभाव मैं आ जावें सब कर्मों का क्षय करके । भारत में जब अंगरेज आए तो हमारे राजा उस समय बहुत खुश हुए । उन्हें ज्ञात ही नही हुआ कि अंगरेज उन्हें लूट रहे हैं । वो तो भेंट ले कर खुश हो रहे थे । जब तक उन्हें पता लगा तब तक बहुत देर हो चुकी थी और वो पूरी तरह से लुट चुके थे । उसी प्रकार हमको भी अपना भला बुरा समझना चाहिए और कर्मो को अपना शत्रु है यह अच्छी तरह समझना और उनसे दूर रहने का उपाय करना चाहिए । कर्मो के अच्छे फल को नही देखना और येः जानना कि हम लूटते जा रहे हैं । कर्मो को अपना शत्रु जान कर उनसे दूर रहना चाहिए । कोई भी कार्य करने से पहले सोचना कि उससे कितना अपने स्वाभाव का घात हो रहा है या लाभ होता है । जितना हो सके अपना कर्म का बंध कम करना है यह अपना उद्येश्य होना चाहिए । अपना कर्म का निरंतर बंध हो रहा है । कर्मों की स्थिति और अनुभाग होती है । जो की निरंतर अपन जाने अनजाने में बाँध रहे हैं । संक्लेश परिणामो से तीव्र बंध होता है विशुद्ध परिणामो से मंद बंध होता है । विशुद्ध परिणामो से पूर्व में बंधे कर्मो का भी अपकर्शान होता है, और पहले से बंधे कर्म अक्सर मंद पड जाते हैं । शुभ परिणामो मे स्थिति मंद बन्देगी और अनुभाग तीव्र होता है, क्योंकि शुभ प्रकृति संन्सार का कारन नही होती है अतः स्थिति कम होती है और क्योंकि अनुभाग ज्यादा होता है फल अच्छा होता है, इसमे अशुभ प्रकति का बंध बहुत मंद होता है और अनुभाग भी कम होता है । उदाहरण के लिए -पूजा कराने से शुभ परिणाम होने से शुभ प्रकृति का तीव्र बंध होगा परन्तु अनुभाग कम होगा, जब क्रोध करेंगे तो अनुभाग और स्थिति दोनों ही तीव्र बंध होगी । विशुद्ध परिणामो से पूर्व काल के तीव्र अशुभा कर्मो को भी मंद कर देता है - अपकर्शान । संक्लेश परिणाम पूर्व के शुभ कर्मो को भी अशुभ में परिवर्तन होते हैं - उत्कार्शन । कर्मो के प्रकति के बदलने को संक्रमण कहते हैं । ऐसा भी हो सकता है । आयु कर्म का संक्रमण नही होता है ऐसा सब अपने विशुद्ध परिनामो से होता है । शुद्ध परिणामो से कर्मो का बंध नही होता अपितु निर्जरा ही होती है । अरिहंतों के स्तवन आदि से विशुद्ध परिणाम ही होते है ऐसा जब होता है तो कषाय कि मंदता से ही होते हैं । सिर्फ़ प्रशस्त लोभ ही प्रधान होता है । यदि अपन भय अथवा लालच से भक्ति करते हैं, तो वह कषाय की मंदता नही कहलाती । अपना प्रयोजनभूत सिर्फ़ ठीक चाहिए । हम मन्दिर क्यों जाते हैं ? विचार करो की सही प्रयोजन से जाते हैं या बस योंही ? मन्दिर जाने का प्रयोजन शुभ परिणामो की वृद्धि के लिए होना चाहिए । अशुभ उपयोग घटाने के कार्य कराने चाहिए - जैसे स्तवन , पूजा आदि । बचपन में तो परम्परा से आना होता है पर अब जब अपने को प्रयोजन ध्यान में है, तो फिर मन्दिर में कभी ग़लत कामा कभी नहीं कर सकते हैं जैसे - विकथा , चर्चा , बुराई आदि कशायाओं की मंदता होने से कषाय मिटाने का साधन है । इससे अशुभ कारन मिटा सकते हैं शुद्ध उपयोग के लिए यह असमर्थ कारण है । अशुभ प्रकार की कषाय (13 प्रकार का ) दूर होते हैं और सिर्फ़ एक प्रशस्त लोभ कषाय रह जाता है जो की शुभ रूप है, थोड़े बहुत अशुभ कर्म बंधते हैं, परन्तु सिर्फ़ एक कषाय ही मुख्य रह जाता है । भक्ति करते हुए, स्तवन करते हुआ, हमें सिर्फ़ प्रशस्त लोभ ही होता है, शेष सब कषाय दूर हो जाते हैं ।
अरिहंतादिक के स्तवन करने से घाती कर्म की हीनता होती है, जिससे वीतराग विशेष विज्ञान प्रगट होता है, जो कि अपना प्रयोजन है इस प्रकार अपने प्रयोजन कि सिद्धि होती है ।

1 comment:

Anonymous said...

Thanks for covering each small point from the class in the notes.