Wednesday, October 7, 2009

Notes from October 7th, 2009

Class Date: October 7th, 2009
Chapter: 7
Page#: 202
Paragraph #: 3rd para -> फिर वह कहता हे कि रागादि मिटाने के कारण
Recorded version:
Summary:
यहा प्रश्न हे कि जिस मे रागादि घटे वोह जान, उनमे उपयोग लगाओ लेकिन बहुत विषेश में कर्म के भेद, त्रिलोक रचना, मार्गणा आदि क्यो जाने?

यहा पहेले हम ने विषेश जानने से क्यां फायदे हे उसकि बात किः
त्रिलोक रचना आदि जानने से वैराग्य आता हे, चारो गति में भटक रहा हुं एसा एहसास होता हे, श्रध्धान द्रढ होता हे, कर्तूत्व के भाव कम होते हे, चैतालयो के बारे मे जानकर भक्ति के भाव बढते हे, पुरुषार्थ कि महत्ता होती हे.

कर्म के भेद आदि से जीव के परिणाम कि विषेशता मालुम होती हे, जीव को खुद के परिणाम कि कसौती के लिये उपयोगी होते हे.

पंडितजि उत्तर में कहते हे किः
इन विषेश का विचार करने के समय ये वर्तमान के रागादि बढने के कारण नहि हे, क्योकि ये इश्ट-अनिश्ट रुप नहि हे, इस तरह इन से वर्तमान में कोइ नुकशान नही हे, बल्कि ये तत्बज्ञान को निर्मल करते हे और इस तरह भविष्य के रागादि को घटाने में विषेश का चिंतन कार्यकारी हे.

कुछ दूसरे मुद्देः
सामान्यतः तत्व विचार यानई आत्मा का चिंतन एसा मानते हे लेकिन सिर्फ आत्मा का चिंतन और अन्य तत्वो के चिंतन का निषेध एसी बात नही हे. गुणस्थान, मार्गणा आदि का विचार करने से आत्मा के साथ अन्य सभी तत्वो का ग्यान होता हे नाकि सीर्फ जीव तत्व का. अन्य तत्वो का विचार आत्मा को जानने के लिये उपयोगी हे.

हा, यह जरुर हे कि आत्मा को न जान सिर्फ पुदगल और साधन के विचार से संतुष्ट नही होना हे और आत्मा का लक्श्य सब ग्यान के पिछे रेहना ही चाहिये लेकिन अन्य तत्वो का विचार और निर्णय परिणाम में से मोह मंद करता हे.

अगला प्रश्नः
स्वर्ग - नरकादि का ग्यान राग-द्वेश रुप होता हे, तो उसका क्यां?
समाधानः
स्वर्ग मे सुख बाह्य पदार्थों के निमित्त से कहा है, लेकिन वास्तव मे पदार्थों से या भोग से सुख नहीं है, इसलिये ज्ञानी को स्वर्ग मे राग और नरक मे द्वेष नहीं होता. ग्यानी कि द्रष्टि मे तो संयोग से सुख-दुःख कुछ नही हे और उसे तो पर से नही, स्व कि सुध्ध अवश्था प्रगट ना होने का अंतरंग का दुःख मुख्य हे , तो फिर राग-द्वेश केसे हो?

अग्यानी कि पुण्य का फल अच्छा और पाप का फल बुरा एसी बुध्धि होती हे, लेकिन इन राग-द्वेश से प्रेरित होकर भी अगर वोह पाप छोड पुण्य मे लगे तो भले किंचिंत हि रागादि घटे लेकिन फायदा तो होगा.

अंतिम तर्कः
शास्त्र में उपदेश हे कि प्रयोजनभूत थोडा ही जानना कार्यकारी हे तो ज्यादा जानने का राद करे क्यो? क्यो एसे विकल्प करे?
उत्तरः
अगर जीव मे शक्ति ना हो ( अल्प बुध्धि होना, बुढापा या आयु कम होना आदि ) तब उन्हे उपदेश देते हे कि विषेश ना जानो तो चलेगा लेकिन थोडा प्रयोजनभूत आत्मा को जान लो.

अगर जीव अन्य अप्रयोजनभूत बहुत जाने लेकिन प्रयोजनभूत कुछ न जाने तब उन्हे धर्म कि रुचि लगाने के लिये उपदेश देंगे कि थोडा बहुत आत्मा जेसा प्रयोजनभूत भी जान लो.

और वेसे भी जिस जीव मे शक्ति हो, बुध्धि हो, अनुकुलता हो उन्हे एसा उपदेश थोडी ना दिया हे कि ज्यादा विषेश जानने से बुरा होगा? शास्त्रो मे तो कहा हे किः

सामान्य ( ग्यान, जानने ) से विषेश ( ग्यान, जानना ) ज्यादा बलवान हे.
[यहा सामान्या शास्त्र या सामान्य द्रव्य, विषेश पर्याय एसी अपेक्शा नहीं हे, यहा तो विषय कि अपेक्शा हे.]

लोक मे भी एक केमेरा खरीदने से पहेले विषेश जानकर खरीद करते हे. विषेश से निर्णय अच्छी तरह होगा. इस तरह सच्चे लक्श्य को न भूले और प्रयोजनभूत को ज्यादा विषेश जाने तो तत्वग्यान निर्मल होने से भला ही होगा.

इस तरह यहा तक हमने देखा कि निस्च्याभासी को जानने रुप शास्त्राभ्यास मे और विचार रुप शास्त्र चिन्तन मे कैसी स्वच्छन्दता होती हे, अगली बार हम करने रुप तप आदि क्रिया मे कैसी भुल होती हे वोह समजेगे.

2 comments:

Vikas said...

Nice post. Thanks for sending.
Can you clarify this -
- बाह्य पदार्थ से सुख कहा हे, भोग से सुख नही, सिर्फ कषाय मंदता से सुखाभास हे.

Does it mean की स्वर्ग मे सुख बाह्य पदार्थों के निमित्त से कहा है, लेकिन वास्तव मे पदार्थों से या भोग से सुख नहीं है, इसलिये ज्ञानी को स्वर्ग मे राग और नरक मे द्वेष नहीं होता.

Anonymous said...

Yes, I roughly meant what you said.
But you mentioned it nicely, so I edited blog with those words.

-Sahil