Wednesday, October 21, 2009

Nishyabhasi ki manyta sambandhi 4th bhool

Class Date: 10/20/2009
Chapter: 7
Page#: 203
Paragraph #: 3rd
Recorded version:
Summary:http://cid-52d749a4f28f4c05.skydrive.live.com/self.aspx/Public/MMP%20class/Chapter%207/10-20-2009%5E_Chap7-Nishchaybhasi%5E318.WAV

revision of previous lectures upto three manyata
chapter 7 गलत मान्यता/श्रधान को सुधार ने के लिए है, क्रिया को सुधार ने के लिए नहीं.

निश्कायाभासी मिथ्यद्रष्टि को ३ level में dedvide किया hai.
१) आत्मा के सम्बन्ध में श्रधान - खुद को केवलज्ञानी मानना, सिद्ध सामान मानना विगेर
२) स्वछंद धर्मं सम्बन्धी मान्यता - पुजनादी सुभ आश्रव हेय है, व्रत-तप काया क्लेश है विगेर
३) मान्यता के आधार पर होनेवाली क्रिया सम्बन्धी बात

Above stated second point क्रिया से पहेले आनेवाली स्वछंद मान्यता सम्बन्धी भूल में:
१) शास्त्र अभ्यास निशेध करना –
यहाँ निश्च्याभासी मानता है उसने आत्मा को जान लिया आब शास्त्रअभ्यास की क्या ज़रूरत?
2) द्रव्य, गुण, पर्याय आदि के चिंतवन को विकल्परूप मानना,
यहाँ ये समजता है की एक आत्मा द्रव्य ही जानने योग्य है, बाकि पर्याय-गुण में विकल्प करन निरर्थक है, निर्विकल्प अवस्था ही सही है तो शास्त्राभ्यास करके विकल्प क्यों करे?
"जिव जुदा पुद्गल जुदा, यही शास्त्र का सार, और जो कुछ बात है सब यही का विस्तार"
3) तप सम्बन्धी भूल
वहा तप करे न करे वह जानना ज़रूरी नहीं है पर उसके लिए अन्तरंग में ये मान्यता है की वह काया को क्लेश देने जैसा है, यह गलत है.
४) व्रत सम्बन्धी भूल –
व्रत = पांच पापो का एकदेश त्याग/विरक्ति, जो सदाकाल का है, उसे बंधनरूप है
- जैसे ज्ञान प्राप्त करे/दर्शन सुद्ध करे तो अंतरग परिणति तो बदलती है साथ-साथ बाह्य क्रिया (पांच इन्द्रिय के विषय सेवनरूप क्रिया/हिंसादिक क्रिया/चोरी/जूठ/कुशील पापरूप) को भी रोकता है, क्योकि उसमे कारन-कार्य सम्बन्ध है, जैसे अंतरग परिणति बदलती है तो बाह्य क्रिया अपनेआप रुक जाती है, इससे विपरीत नहीं होता की अंतरग परिणाम तो शुद्ध हो पर बहार क्रिया न बदले.
- यहाँ "दुसरे को देखना हो तो उसके आचरण से देखा जाता है, और अपने को देखना हो तो परिणामो से देखा जाता है"

Que: अंतरग परिणाम तो मेरे शुद्ध ही है बाह्य क्रिया करे या न करे उससे क्या?
Ans: यहाँ पंडितजी समजाते है की जब जब अशुभ क्रिया होती है उसके पीछे अशुभ परिणाम ही जवाबदार है, ऐसा नहीं होता की परिणाम तो शुद्ध जो पर क्रिया अशुभ हो.
Example: business/cooking अशुभ क्रिया है जिसमे ८ घंटे में १ घंटे की शुभ क्रिया हो पर वहा ज्यादा % अशुभ होने से अशुभ कहते है. पर शुभ में ऐसा नहीं होता, उसमे बाह्य क्रिया शुभ हो तो अन्तरंग परिणाम शुभ-अशुभ दोनों हो सकते है. Example: मंदिर में एक घंटे आने पर पूरा एक घंटा शुभ परिणाम नहीं होते, अशुभ भी साथ-साथ होते है.

इसलिए जैसा परिणाम होता है वैसी क्रिया होती ही है, पर जैसी क्रिया होती है वैसा परिणाम होता ही है ऐसा नहीं है. ये नियम अशुभ क्रिया में पूरी तरह से applicable होता है. but this is only not applicable to some extreme cases like किसी मुनिराज के पैरो के निचे कुछ आकर मर जाये तो, उनके परिणाम ऐसे नहीं थे पर फिरभी वह अशुभ क्रिया हो जाये. "however THIS IS 100% APPLICABLE TO PERSONS LIKE US"
निश्यभासी आपने परिणाम को तो शुद्ध ही कहता है. वहा अशुद्ध में तो शुभ-अशुभ दोनों आ जाते है. इसलिए यहाँ शुभ और अशुभ दोनों क्रियाओ को लिया है वहा क्रियाओ का त्याग नहीं करता पर परिणाम की शुद्धता को ही देखता है, तब ये समजना उचित है की बगैर परिणाम क्रिया संभव नहीं हो सकती, और अगर यह ही मान्यता रही तो उसके परिणाम अशुद्ध ही रहेंगे. यहाँ पंडितजी यही समजाते है की व्रत को गौण करके सिर्फ परिणाम के शुद्धता की बात को मानता है यह गलत है, और यह संभव भी नहीं है.

1 comment:

Vikas said...

Very nice poit at the end: - यहाँ पंडितजी यही समजाते है की व्रत को गौण करके सिर्फ परिणाम के शुद्धता की बात को मानता है यह गलत है, और यह संभव भी नहीं है.

Couple explanations:
chapter 7 गलत मान्यता/श्रधान को सुधार ने के लिए है, क्रिया को सुधार ने के लिए नहीं.
Correction: ऐसा नहीं है कि क्रिया को सुधारना नहीं है, या क्रिया सुधारने के लिए chapter 7 नहीं है. श्रद्धान सुधरेगा तो क्रिया तो सुधरेगी ही.

वहा तप करे न करे वह जानना ज़रूरी नहीं है
Correction: यहा तप करता है वह सही और नहीं करता है वह गलत है = ऐसा नहीं बता रहे है, बल्कि तप करना अच्छा है की बुरा है इस मान्यता / belief संबंधी भूल बता रहे है.