Class Date:7/29/09
Chapter:7
Page#:195
Paragraph #:2nd
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Summary:
Revision:निश्चयाभासी मिथ्यादृष्टि : इसमें जिनागम को पढ़ने के माध्यम से भी अन्यथा अर्थ ग्रहण करने पर भी जीव के भूलें, मिथ्यात्व हो जाता है, जैसे निश्चय को सर्वोपरि कर दिया तो निश्चयाभासी हो जाता है |
लक्षण :
* आत्मा को सिद्ध समान मानता है|
* केवलज्ञान का वर्तमान पर्याय में सद्भाव मानता है |
Summary:
अब तीसरी भूल का वर्णन करते हैं :
"अपने आत्मा को भ्रम से रागादी रहित मानता है |"
यदि वो ऐसा मानता है तो दो बातें हैं:
१. वो फिर रागादी को दूर करने का प्रयास नहीं करेगा |
२. यदि आत्मा रागादी रही है तो फिर ये रागादी चेतन है या अचेतन? किस द्रव्य के अस्तित्व में है? या तो ये शारीर के होंगे या कर्म के होंगे या फिर आत्मा के होंगे क्योंकि ये तिन ही इसके संपर्क में होते है |
यदि शरिरादी के मानेंगे तो वे भी अमुर्तिक होने चाहिए किन्तु ये तो पुद्गल के गुणों से रहित है अत: प्रत्यक्ष रूप से अमुर्तिक भासित होते हैं| तथा जैसे मुर्दा है तो उसके तो रागादी होते दिखाई नहीं देते है इसलिए ये भावः आत्मा के ही है, अचेतन द्रव्यों के ये नहीं माने जा सकते अत: ये आत्मा अर्थात तेरे में ही पाए जाते है , इससे यह सिद्ध हुआ की यह राग तेरा है, चेतन का है - तो आत्मा वर्त्तमान मैं भी रागादी सहित है, अशुद्ध है |
कलश भावार्थ :
रागादी भावकर्म हैं, अर्थात कार्यभूत है तो कोई न कोई तो उनका कर्त्ता होगा ही | लोक में दो प्रकार के द्रव्य मुख्य है : जीव और पुद्गल |
तब वहां यदि कर्म और जीव दोनों मिलकर इसे करते हो तो फिर उसका फल तो कर्म और जीव दोनों को ही भीगना पड़ेगा , किन्तु कर्म तो उसका फल नहीं भोगता, यह हमें प्रत्यक्ष रूप से पता है की यह असंभव है तो यह बात बनती नहीं है |
तथा लोक में भी ऐसा ही होता है की जो कार्य करता है , फल भी वही भोगता है ; और अकेली कर्म प्रकृति का भी यह काम नहीं है की वह रागादी उत्पन्न करे ,क्योंकि कर्म तो अचेतन है |
अत: अब सिर्फ जीव ही बचा है इसलिए जीव ही रागादी का करता है क्योंकि जीव के चेतना होने के कारण भावकर्म तो वही कर सकता है |
इसा प्रकार रागादी भाव जीव के अस्तित्वमय हैं |
अब यदि कर्म को रागादी का कर्त्ता मानकर स्वयं को अकर्त्ता मानता है, तो खुद कुछ प्रयास कर उन्हें दूर नहीं करना चाहता है इसीलिए वो कर्म को दोषी मान लेते हैं | समयसर मैं भी कहा है जो रागादी की उत्पत्ति में सूक्ष्म(कर्म) और स्थूल(शरिरादी) परद्रव्य को ही निमित्त मानता है वो मिथ्यत्वी है |
तथा समयसार क सर्व विशुद्ध ज्ञान अधिकार में और अधिक समझाया है की जो आत्मा को अकर्ता मान कर कर्म को कर्त्ता मानते हैं वो जैनी संख्यामती कहलाते हैं जैसे मेरे निद्रा कर्म का उदय है इसलिए सोता जगाता हूँ |
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1 comment:
Thanks for summarizing.
1 Correction:
निश्चय को सर्वोपरि कर दिया तो निश्चयाभासी हो जाता है
Correction: निश्चय को सर्वोपरि करने से निश्चयाभासी नहीं होता है, बल्कि निश्चय को सर्वथा मानने से तथा व्यवहार नय का निषेध करने से निश्चयाभासी होता है. यह काफी महत्त्वपूर्ण बात है, क्योंकि निश्चय तो प्रकट करने योग्य कहा है. ऐसी अवस्था में वह सर्वोपरि तो होगा ही, पर वह व्यवहार नय का निषेध नहीं करता.
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