Chapter: Bhav Dipika
Page#: 42
Paragraph #: 2nd
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Summary: अनध्यवसाय मिथ्यात्व भाव
अनध्यवसाय : प्रयोजनभुत तत्वों को और अप्रयोजनभुत तत्वों को एक सामान मानना. प्रयोजनभुत तत्वों कोअप्रयोजनभुत तत्वों सामान मानना. यहाँ पंडित जी ने कुछ बाते बताई है जो अनध्यवसाय
मिथ्यात्व भाव है.
- काफी समय से जिन धर्मं सुनते है फिर भी हेय, उपादेय, योग्य - अयोग्य, यथार्थ -अयथार्थ ज्ञान नहीं हुआ. (योग्य - सम्यक, अयोग्य - मिथ्या , यथार्थ - सत्य, अयथार्थ - असत्य.)
- जो देव - कुदेव, गुरु - कुगुरू, धर्मं - कुधर्म, शास्त्र -कुशाश्त्र, वक्ता - कुवक्ता, तत्त्व - कुतत्व सामान मानते है. इन सब को सामान जानते है.( जिन शास्त्र पढो या बौद्ध शास्त्र, जिन धर्मं या अन्य धर्मं जिन के सामान है )
- जिनमत - अन्यमत, जिनमन्दिर - अन्य मंदिर (यह सब अधर्म के आयतन है जो मिथ्यात्व का पोषण करता है ), जिन प्रतिमा - अन्य प्रतिमा, पूजा - कुपुजा. इन सब को सामान जानते है.
- दान - कुदान, पात्र - कुपात्र - अपात्र , क्रिया - अक्रिया - कुक्रिया सब को सामान मानते है.
- दान - उचित पात्र को दान देना, खुद की वस्तु का त्याग करना, अन्य का उपकार के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना.
- दान, देनार, लेनार (पात्र), दान का भाव - यह चीज को ध्यान में रखकर दान करना चाहिए. पात्र की विशेषता से दान कुदान भी हो सकता है. दान का भेद - औषधि, आहार, अभय, ज्ञान
- पात्र -सम्यक्वीमुनि, श्रावक ,
- कुपात्र - जिनलिंगी दीखते है परन्तु पाप की बहुलता है , मिथ्यत्वी है.
- अपात्र- दान लायक नहीं है.
- तीर्थ - कुतिर्थ, व्रत - कुव्रत, तप - कुतप, विनय - अविनय , मिथ्याचार - हिनाचार, अधिकाचार - शिथिलाचार , सदाचार - असदाचार सर्व को सामान मानना
- तीर्थ - जिनसे तिराहा जाए, जो कल्याण करे. कल्याण भूमि - तीर्थंकर की कल्याणक भूमि. तीर्थ यात्रा में मंगल रूप कार्य होने चाहिए .
- तीर्थ में भाव तीर्थयात्रा करना चाहिए. विषय भोग के साधन को तीर्थ यात्रा में सामिल करमा नहीं चाहिए.
- तीर्थ यात्रां में मंगल रूप कार्य होने् चाहिए. तीर्थ यात्रा में दूसरी चीज करने से मंगल कार्य में अमंगल कार्य होता है.
- 4 मंगल
- द्रव्य- अरिहंत,
- क्षेत्र - तीर्थ स्थान,
- काल - पर्व, कल्याणक दिन,
- भाव - शुद्ध भाव, रत्नत्रय भाव
- व्रत - पॉँच पाप का त्याग, अव्रत - व्रत नहीं अंगीकार करना , व्रत से विपरीत कार्य करना . दुसरे के प्रति अपना भाव कैसा है, वो जानना जरुरी है. जो व्रत धारण करते है/ नहीं करते है उनके प्रति अपना भाव.
- तप - इच्छा से निरोध होना, इच्छा का नहीं होना. अगर इच्छा होने के बाद उसको दबाना पड़े, उससे संक्लेश परिणाम होते है. ऐसे तप करने का भी कुछ लाभ है, पर वास्तविक तप तो इच्छा का उत्पन्न ही नहीं होना है. उसे तो जानता नहीं है और सभी तप - कुतप में जो समान भाव रखते है.
- श्वेताम्बर आम्नाय और दिगंबर आम्नाय जिनके समान है.
एसे विवेक रहित धर्मं में प्रवर्तने वाले जिव अनाध्य्वसाय मिथ्यात्व भाव सहित जानना.
इसी प्रकार गृहीत मिथ्यात्व भावः के पॉँच भेद संक्षेप में बताये है पर मूल कारन तो दर्शन मोह है. इसलिए भाव असंख्यात है. यह मिथ्यात्व नाम कर्म है. उसके उदय स्थान असंख्यात लोक प्रमाण है. उसी के अनुसार मिथ्यात्व भाव भी असंख्यात लोक प्रमाण है और दर्शन मोह के अनंत स्पर्धक है.
- स्पर्धक - रस देने की शक्ति के अविभाग प्रतिच्छेद.
- वर्ग - परमाणु को वर्ग कहेते है. परमाणु में रस देने ( कर्म रूप) की शक्ति होती है, अविभाग प्रतिच्छेद अंश होते है. एक परमाणु में अनंत शक्ति के अंश होते है. ऐसे परमाणु को धरे हुए को वर्ग कहते है.
- वर्गणा - अनन्तानन्त वर्ग के समूह को वर्गणा कहते है. (इसमें समान शक्ति वाले अंश के समूह की वर्गणा बनती है)
- सबसे कम अविभाग प्रतिच्छेद के धारक वर्ग, उसे जघन्य वर्ग कहते है. जघन्य वर्गों के समूह को जघन्य वर्गणा कहते है.
- जघन्य वर्ग में जो अविभाग प्रतिच्छेद पाए जाते है उनमे एक अविभाग प्रतिच्छेद की वृद्धि को धारण करने वाला वर्ग, उनके समूह का नाम द्वितीय वर्गणा है. एसे एक एक अविभाग प्रतिच्छेद बढ़ते बढ़ते जिन वर्ग में पाए जाते है उनके समूह का नाम अन्य अन्य वर्गणा है. ऐसी अनातानंत वर्गणा है, इन अनातानंत वर्गणा के समूह का नाम स्पर्धक है.
जघन्य वर्गणा में जितने अविभाग प्रतिच्छेद वाले वर्ग है, उनके एक एक प्रतिच्छेद बढ़ते द्वितियादिक वर्गानाओ में वर्ग है. एसे जहा तक दुगने अविभाग प्रतिच्छेद के धारक जिस वर्गणा में हो उस वर्गणा से दूसरा स्पर्धक प्रारंभ होता है. (e.g. १ वर्ग में १० शक्ति के अंश (अविभाग प्रतिच्छेद ) वाली वर्गणा हो , तो १९ तक वाली वर्गाना तक पहेला स्पर्धक, २० से लेके २९ तक दूसरा स्पर्धक )
2 comments:
Thanks for posting. All points covered.
One correction:
तप - इच्छा से निरोध होना, इच्छा का नहीं होना. अगर इच्छा होने के बाद उसको दबा देने से संक्लेश परिणाम होते है. तप - कुतप में जो समान भाव रखते है.
Correction: तप - इच्छा से निरोध होना, इच्छा का नहीं होना. अगर इच्छा होने के बाद उसको दबाना पड़े, उससे संक्लेश परिणाम होते है. ऐसे तप करने का भी कुछ लाभ है, पर वास्तविक तप तो इच्छा का उत्पन्न ही नहीं होना है. उसे तो जानता नहीं है और सभी तप - कुतप में जो समान भाव रखते है.
Thanks for correcting..I have updated the correction.
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