Wednesday, August 5, 2009

Chapter 7 निशचयाभासी मिथ्याद्रष्टि

Class Date: 08/04/2009
Chapter: 7
Page#: 115-117
Paragraph #:
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Summary:

अधिकार: ७
निशचयाभासी मिथ्याद्रष्टि
· आत्मा रागादिकका अकर्ता
· इससे वह निरुधयमी होकर प्रमादी रहेता है
· कर्म ही का दोष ठहराता है
पन्डितजी इसे
· दुखःदायक भ्रम कहते है
· उपादान को गॊण करके निमित को मुख्य करना कहते है
· जो जीव रागादिक की उत्पति में परद्रव्य को निमित मानते है, वे मोह नदी के पार नहि उतरतें (समयसार कें कलश में कहा है)
ऐसे श्रद्धान से
· रागादिकको अपना नहि माना
· अपने को अकर्ता माना
· रागादिक का भय नहि रहा
· रागादिक मिटाने का उपाय नहि रहा
· स्वछंदी होकर अनंत संसार का भ्रमण करता है
निशचयाभासी प्रश्न उठाता है:
· प्रश्न: समयसार में कहा है – रागादिकभाव आत्मा से भिन्न है और पुदगलमय है. अन्य शास्त्रओ में भी ऐसा कहा है. सो वह किस प्रकार?
· उतर:
o रागादिकभाव औदेयिक भाव है, उसे जीव स्वभाव मनता है.
o स्वभाव को बुरा कैसे माने और उसके नाश का उधम किसलिये करे?
o यह विपरित श्रद्धान है. इसे छुडाने के लिये रागादिक भिन्न कहै है. निमित कि अपेक्षा पुदगलमय कहा है.
o जैसे, वेध शीतकी अधिकता देखे तो उष्ण औषधि बतलातें है, और आतापकी अधिकता देखें तो शीतल औषधि बतलातें है.
o इसी प्रकार, श्रीगुरु रागादिक छुडाना चाहतें है –
§ रागादिक को परका मानकर निरुधमी को उपादान आत्मा का बतातें है
§ तथा जो रागादिकको अपना स्वभाव मानकर उनके नाशका उधम नहि करतें, उनहें निमितकारण मुख्य बताकर रागादिक परभाव है, ऐसा श्रद्धान करातें है.
o सत्य श्रद्धान होनेपर – जीव ऐसा मानेंगाकी:
§ ये रागादिकभाव आत्माका स्वभाव नहिं है
§ कर्मके निमितसें आत्माकें अस्तितवमें विभाव पर्यायरुपसें उत्पन होते है
§ निमित मिटनें पर इनका नाश होने से स्वभाव भाव रह जाता है, इसलिये इनका नाश का उधम करना.
o इसलिये रागादिकका नाश करना चाहिये, निमित कर्मोका नहिं.

1 comment:

Vikas said...

बहुत बढ़िया.
यह लक्ष्य में रखना चाहिए:
..इसलिये रागादिकका नाश करना चाहिये