Class Date: 08/04/2009
Chapter: 7
Page#: 115-117
Paragraph #:
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Summary:
अधिकार: ७
निशचयाभासी मिथ्याद्रष्टि
         · आत्मा रागादिकका अकर्ता
         · इससे वह निरुधयमी होकर प्रमादी रहेता है
         · कर्म ही का दोष ठहराता है
पन्डितजी इसे
         · दुखःदायक भ्रम कहते है
         · उपादान को गॊण करके निमित को मुख्य करना कहते है
         · जो जीव रागादिक की उत्पति में परद्रव्य को निमित मानते है, वे मोह नदी के पार नहि उतरतें (समयसार कें कलश में कहा है)
ऐसे श्रद्धान से
         · रागादिकको अपना नहि माना
         · अपने को अकर्ता माना
         · रागादिक का भय नहि रहा
         · रागादिक मिटाने का उपाय नहि रहा
         · स्वछंदी होकर अनंत संसार का भ्रमण करता है
निशचयाभासी प्रश्न उठाता है:
         · प्रश्न: समयसार में कहा है – रागादिकभाव आत्मा से भिन्न है और पुदगलमय है. अन्य शास्त्रओ में भी ऐसा कहा है. सो वह किस प्रकार?
         · उतर:
             o रागादिकभाव औदेयिक भाव है, उसे जीव स्वभाव मनता है.
             o स्वभाव को बुरा कैसे माने और उसके नाश का उधम किसलिये करे?
             o यह विपरित श्रद्धान है. इसे छुडाने के लिये रागादिक भिन्न कहै है. निमित कि अपेक्षा पुदगलमय कहा है.
             o जैसे, वेध शीतकी अधिकता देखे तो उष्ण औषधि बतलातें है, और आतापकी अधिकता देखें तो शीतल औषधि बतलातें है.
            o इसी प्रकार, श्रीगुरु रागादिक छुडाना चाहतें है –
                  § रागादिक को परका मानकर निरुधमी को उपादान आत्मा का बतातें है
                  § तथा जो रागादिकको अपना स्वभाव मानकर उनके नाशका उधम नहि करतें, उनहें निमितकारण मुख्य बताकर रागादिक परभाव है, ऐसा श्रद्धान करातें है.
           o  सत्य श्रद्धान होनेपर – जीव ऐसा मानेंगाकी:
                 § ये रागादिकभाव आत्माका स्वभाव नहिं है
                 § कर्मके निमितसें आत्माकें अस्तितवमें विभाव पर्यायरुपसें उत्पन होते है
                 § निमित मिटनें पर इनका नाश होने से स्वभाव भाव रह जाता है, इसलिये इनका नाश का उधम करना.
           o  इसलिये रागादिकका नाश करना चाहिये, निमित कर्मोका नहिं.
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1 comment:
बहुत बढ़िया.
यह लक्ष्य में रखना चाहिए:
..इसलिये रागादिकका नाश करना चाहिये
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