Monday, March 16, 2009

मिथ्यादर्शन की प्रवृत्ति

Class Date:3/16/09
chapter: 4
Page#: 80
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आस्रव के ५ प्रकार मिथ्यात्व, अविरती, कषाय, प्रमाद, और योग
१. मिथ्यात्व: सात तत्व संबंधि विपरीत श्रद्धान वस्तु जिससे ५ पाप रुप प्रवर्तन करता है,वह है मिथ्यात्व।
अनुयोगो के according मिथ्यात्व की अलग अलग परिभाषा है
द्रव्यनुयोग – सात तत्वो मे अयथार्थ श्रद्धान वह मिथ्यात्व है।
चरणानुयोग – कुरु कुदेव कुशास्त्रमे श्रद्धान वह मिथ्यात्व है।
करणानुयोग – मिथ्यात्व प्रकृति से जो परिणाम वह मिथ्यात्व।
२. अविरती: अहिंसादि पाँच अणूव्रतो का पालन न करना वह अविरती है ।
३. प्रमाद : प्रमाद २ प्रकार से कहे जाते है एक तो आलस्य और दुसरा अस्त्रव के भेद के अनुसार
संज्वलन कषाय के तीव्र उदय से जो मुनी अवस्था मे २८ मुलगुणो और उत्तर गुणो मे दोष लगता है उसे प्रमाद कहते है ।
४. कषाय : संज्वलन और नो कषाय का मंद उदय वह कषाय है ।
५. योग : मन वचन काय से जो आत्मा के प्रदेशो मे जो हलन चलन है वह योग है ।

निर्जरा: जहा कर्मो का एकदेश झरते है वह निर्जरा है।

निमित्त और उपादान क्या है?
संयोग रुप कारण वह निमित्त कारण है और वस्तु की सहज शक्ति वह उपादान कारण है।
उदा: आत्मा को मोक्ष होना: यहा कार्य तो मोक्ष प्राप्ति है उस कार्य मे उपादान कारण आत्मा स्वयं है और निमित्त कारण वह बाह्य मे मिले संयोग जैसे सच्चे देव शास्त्र गुरु आदि.

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मिथ्यादर्शन की प्रवृत्ति :-
सात तत्वो मे अयथार्थ श्रद्धान सो मिथ्या दर्शन है। जीव , अजीव , आस्रव , बंध , संवर , निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व है। श्रद्धान यह मुख्य बात है पर सात तत्वो को जानने से हमे श्रद्धान होगा और उसके पश्चात ही हमारा ज्ञान समिचीन कहलाता है। इसलिए हमे सात तत्वो का ज्ञान जरुरी है।तो यहाँ जानने की अपेक्षासे इन सात तत्वोमे अयथार्थ श्रद्धान की बात करते है।


  • जीव अजीव तत्व संबंधी अयथार्थ श्रद्धान :
    पर्याय - अवस्थाएँ – यह जीव तीनो वेद मे से कोइ एक, एकेन्द्रियसे पंचेन्द्रिय तक की अवस्था, चारो गती मे मिली अवस्था इस प्रकार से अनेक पर्याये धारण करता है ।एक आत्मा और अनंत पुद्गलपरमाणुमय शरीर इन का एक पिण्ड बंधान रुप होता है। और जीव को जो पर्याय मिलती है वह उसी मे अहं बुद्धि करता क्योंकी उसे एसा लगता है कि जो भी वह जान रहा है वह ५ इन्द्रिय और मन के द्वारा ही जानता है जो की शरीर से संबंध रखते है और यह जीव एसा नही जान पाता की वह इस शरीर से भिन्न है और इसीकारण जो पर्याय मिली उसी मे अहं बुद्धि करता है । मैं स्वयं जीव हुँ और मेरा स्वभाव ज्ञान,दर्शन,चारित्र और वीर्य है। स्वभाव वह होता है जो कि किसी निमित्त अपेक्षा नही होता स्वमेव होता है। और क्रोधादि यह जीव के विभाव भाव है । विभाव भाव वह होता है जो कि किसी निमित्त से होता है। और पुद्गलपरमाणुओ का स्वभाव है रस, गंध,वर्ण, स्पर्श इन सबको जीव अपना स्वरुप मानता है।जीव और शरीरमे अंतर नही कर पाता आत्माके स्वभाव और विभाव दोनो को ही अपना मानता है जैसे ज्ञान को भी अपना मानता है और क्रोधादि जो विभाव भाव है उनको भी अपना मानता है और शरीर को भी अपना मानता है ।इस प्रकार की बुद्धि रखता है । इन बातो मे घट बढ जो होती है उन अवस्थाओ मे ममत्व बुद्धि रखता है ।
    In our life ज्ञान is always there as it is our swabhava so remain always with us and krodhaadi are our vibhaava bhaava so they are temporary with us.
    आत्मा मे अहं बुद्धि की कसौटी यह है कि जो आत्मा मे अहं बुद्धि रखता है वह आत्मा के गुणो(सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, १० धर्म, धैर्यता , संतोष ) इनका विकास करने का सदेव प्रयत्न करता है और शरीर मे अहं बुद्धि रखने वाले शरीर के गुणो(स्पर्श रस गंध वर्ण आदि से related वस्तु) का विकास करने का प्रयत्न करते है ।इससे जीव के अंतरत्मापने(सम्यग्दृष्टि) का ,बहिरात्मापने(मिथ्यादृष्टि) का और परमात्मापने(अर्हंत,सिद्ध) का ज्ञान होता है ।
    अंतरात्मा याने सम्यग्दृष्टि जीव अपने को आत्मा से ,निज गुणो से identify करता है ,बहिरात्मा याने मिथ्यादृष्टि जीव अपने को शरीर से identify करता है ,और परमात्मा याने अरहंत, सिद्ध जो शरीर से प्रथक है ।इस तरह जीव के ३ भेद है ।
    अहं बुद्धि (मैं)और ममत्व बुद्धि (मेरा) : द्रव्य की पिन्ड रुप अवस्था को अपना मानना वह है अहं बुद्धि और उस पिन्ड रुप से जो अलग अलग पार्याय है उन्हे अपना मानना वह है ममत्व बुद्धि ।

  • अहं बुद्धि के दो प्रकार है १. स्वभाविक : जिसमे कोइ विभाव भाव नही है जो कि सिद्ध भगवान के होती है। वे अपने आत्मा मे अहं बुद्धि रखते है ।
    २. विभाविक : एसी अहं बुद्धि संसारी के ही पाइ जाती है । यह दो प्रकार के जीवो मे पाइ जाती है सम्यग्दृष्टि और मिथ्यदृष्टि । सम्यग्दृष्टि निश्चय से आत्मा मे ही अहं बुद्धि करता है और शरीर मे अहं बुद्धि व्यव्हार से रखता है ।मिथ्यादृष्टि निश्चय से ही शरीर मे अहं बुद्धि रखता है

  • ममत्व बुद्धि भी २ प्रकार की होती है १ स्वभावीक और २. विभावीक
    १. स्वभावीक ममत्व बुद्धि सिद्ध भगवान के ही होती है वो अपने अनंत गुणो मे ममत्व बुद्धि रखते है।
    २. विभावीक ममत्व बुद्धि संसारी के पाइ जाती है ,यह भी २ प्रकार के जीवो मे पाइ जाती है सम्यग्दृष्टी और मिथ्यादृष्टी ।सम्यग्दृष्टी निश्चय से अपने ज्ञानादि गुणो के हीनपने मे ममत्व बुद्धि रखता है और शरीर मे ममत्व बुद्धि व्यवहार से रखता है और मिथ्यादृष्टी जीव शरीर की प्रत्येक पर्याय को निश्चय से अपना मानकर उनमे ममत्व बुद्धि रखता है।

  • कार्य निमित्त और उपादान :
    o कार्य : वस्तु में परिणमन (in any द्रव्य) वह कार्य है ।
    o निमित्त : वस्तु के अलावा जो भी बाह्य कारण है वे निमित्त कारण है ।निमित्त २ प्रकार के है उदासीन निमित्त और प्रेरक निमित्त।
    o उपादान : जिस वस्तु मे कार्य हो रहा है उस वस्तु के जो efforts है वह उपादान कारण है। उपादान २ प्रकार के है त्रिकाली उपादान और अनन्तरपुर्वक्षण्वर्ती उपादान।

प्र. सभी कार्य मे दोनो प्रकार के कारण होंगे क्या?
उत्तर: उपादान कारण हर कार्य मे होता ही है और निमित्त कारण मे उदासिन निमित्त जैसे काल द्रव्य होता ही है लेकिन प्रेरक निमित्त जरुरी नही है कि हो ही ।
निमित्त २ प्रकार के होते है उदासीन निमित्त जो कार्य मे कारण नही है लेकिन उसके बिना कार्य भी नहि हो सकता(इच्छा शक्ति से रहित और निष्क्रिय द्रव्य जैसे धर्म अधर्म आकाश और काल द्रव्य) जैसे तेरने के कार्य मे पानी कारण नही है लेकिन पानी के बिना हम तैर भी नही सकते ।
प्रेरक निमित्त वो होता है जो कार्य मे कारण हो याने जिस कारण से कोइ कार्य होता है ।prq


कारण कार्य क्या है ?
निमित्त- नैमेत्तिक और उपादान –उपादेय को मिलाकर जो संबंध होता है वह होता है कारण– कार्य।

निमित्त – नैमेत्तिक –इसमे निमित्त तो है बाह्य साधन और नैमेत्तिक वह वस्तु जिसमे कार्य हो रहा है ।
उपदान उपादेय – इसमे उपादान जो है वह है वस्तु की सहज शक्ति और उपादेय है वह होत है वस्तु जिसमे कार्य हो रहा है ।


मै शरीर से भिन्न हु फिर कैसे ये सभी कार्य हो रहे है ये दोनो शरीर और आत्मा किस तरह काम करते है ????
जीव और शरीर मे निमित्त नेमित्तिक सम्बंध है ।
१.ज्ञान का कार्य जीव मे होता है :
मतिज्ञानी ,श्रुतज्ञानी को शरीर के बिना ज्ञान नही होता है यहा शरीर वह है निमित्त कारण और जीव की सहज शक्ति वह है उपादान कारण .
उदा: किसी भी प्रकार का ज्ञान आत्मा को होता है लेकिन उस ज्ञान मे शरीर के पाँचो इन्द्रिया और मन यह निमित्त कारण है ।जैसे किसी वस्तु के स्पर्श से उसका ज्ञान आत्मा को हुआ लेकिन उस ज्ञान के लिये शरीर ने उस वस्तु को स्पर्श किया है आत्मा ने नही इस प्रकार ज्ञान के लिए शरीर और आत्मा का निमित्त नेमेत्तिक सम्बंध है ।







1 comment:

Vikas said...

Nice blog. Thanks for posting.

Few corrections:
२. अविरती: अहिंसादि पाँच अणूव्रतो का पालन न करना वह अविरती है ।मात्र अणुव्रतो का नहीं पालन अविरति नहीं है, बल्कि ५ इन्द्रिय और मन के विषय में प्रवृत्ति तथा ६ काय के जीवो की हिंसा से विरत नहीं होना अविरति है. अणूव्रतो के पालन के बाद भी अविरति बनी रहती है. अणुव्रतो से आंशिक अविरति जाती है, पूरी नहीं.

निमित्त २ प्रकार के होते है उदासीन निमित्त जो कार्य मे कारण नही है .. Correction:उदासीन निमित्त यदि कारण नहीं है, तो फिर उसे निमित्त ही नहीं कहेंगे. इसलिए ऐसा नहीं है की उदासीन निमित्त कारण नहीं है. वो प्रेरक निमित्त जैसा नहीं है, इतनी बात है.

प्रेरक निमित्त वो होता है जो कार्य मे कारण हो याने जिस कारण से कोइ कार्य होता हैCorrection: इसी प्रकार प्रेरक निमित्त भी वोह नहीं है जिससे कार्य होता है. इच्छा शक्ति युक्त या क्रिया सहित कारण प्रेरक निमित्त कहा जाता है.
इन दोनों ही निमित्तो में निमित्त कार्य में सहयोगी है, मूल कारण नहीं, कार्य का कर्ता नहीं.

यहाँ एक प्रश्न: समकिती की अहं-मम बुद्धि विभाविकी क्यों है??