Thursday, February 12, 2009

Class Date: 2/11/09
Chapter: 3
Page#: 61
Paragraph #: 2
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आयु कर्म से होने वाली अवस्था उससे होने वाला दु:ख उस दुख से छुटने के लिये किये गये उपाय वे झुठे :
१. उपाय करने पर भी आयु पुर्ण होने पर मरण निश्चित है।
२. आयु का पुर्ण होना निश्चित है।
३. वर्तमान आयु का बढ़ना संभव नहीं है ।
४. जो उपाय वर्तमान मे करता है वे संक्लेशमय परिणामो से युक्त होने से आयु घटने या उदिरणा के chances रहते है । इसलिए आयु बढ़ती तो नही परंतु घट जाती है ।

· उदिरणा जरुरी नही कि सबकी एक साथ हो जाए it may be over the time जैसे future me मे आने वाले कर्म वर्तमान मे धिरे धिरे आ सकते है यह भी उदिरणा केहलाती प्रदेश उदीरणा कहलाती है आगे आने वाले कर्म के particles present मे आकर खिर जाये,जिससे स्थिती कम नही होती परंतु निर्जरा ज्यादा हो गई है। कभी स्थिती कम होती भी है कभी ना भी हो।

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नाम कर्म के उदय से होने वाला दु:ख और उससे निवृत्ति :
नाम कर्म के उदय से शरीर की रचना होती है, गती मिलती है, जाती मिलती है, शरीर से related चिजे मिलती है जैसे इन्द्रियों का मिलना, शरीर का सुन्दर असुन्दर पना मिलना,अंग –उपांग,गोरपना-कालापना,सुस्वरपना-दुस्वरपना,कान्तीपना- नही कान्तीपना ,पर्याप्तपना- अपर्याप्तपना,इन सबका मिलना नाम कर्म के उदय पर आधारीत है।

अच्छा शरीर इत्यादिक का मिलना सो पुण्य का उदय है और उसमें सुख माना जाता है और शरीर अगर खराब मिले उसमे कुछ कमी रह जाए तो वहाँ पाप का उदय है और एसी अवस्था मे दु:ख माना जाता है ,तो यहाँ जो सुख माना जा रहा है वह भ्रम है क्योंकी जो शरीर का अच्छा पना मिला है वह आयु पुर्ण होने पर चली ही जाएगी या कभी एसा भी होता है कि एक समय पश्चात जो शरीर मे सुन्दर पना मिला है वह नश्ट हो भी सकता इसका मतलब यह है कि जरुरी नही कि जो अच्छी अवस्था आज मिली है वह आयु पुर्ण होने पर ही जायेगी वह तो आयुपुर्ण होने से पुर्व भी नष्ट हो सकती है
तथा हम जो दु:ख के कारण मिटाने का और सुख प्राप्त करने के लिए जो भी कार्य करते है वे सभी झुठे है।यहाँ सच्चा उपाय सम्यग्दर्शन आदि है।
जैसे वेदनीय कर्म से होने वाले सुख-दु:ख का निरुपण किया है वैसे ही यहाँ नाम कर्म के उदय से जानना क्योंकी जहाँ नाम कर्म का उदय वहाँ साता वेदनीय कर्म का भी उदय होता है और जहाँ नाम कर्म की अशुभ प्रकृति का उदय हो वहाँ असाता वेदनीय कर्म का भी उदय होता है। नाम कर्म मे भी जो सुख-दु:ख है वे मोह भाव पर depend करता है की जैसे शरीर से ज्यादा मोह होगा तो दु:खी भी बहुत ही होगा और मोह कम होगा तो शरीरादि से होने वाले सुख- द:ख की मात्रा उस हिसाब से होगी।

हमे अगर शरीरादि से related वस्तु अच्छी मिली हो तब तो हम अपने आप को सुखी मानते है लेकिन अगर शरीर से related वस्तुए अच्छी ना मिली हो तब हमे जो दु:ख होता है उसे दुर करने के लिए हम कितने ही प्रयास करले तब भी जो reality है वो तो रेहती ही है जो की personally हमे मालुम होती है so we remains internally दुखी ।इसलिए जो उपाय हम करते है सुखी होने के लिये वे सारे झुठे है।
हम सम्य्ग्दर्शनादि के निमित्त से पर वस्तु मे(including शरीर) से अपनत्व ममत्व दुर करे और जो अपनी वस्तु है “मै जीव हुँ “ इस बात पर श्रद्धान कर सच्चा सुख प्राप्त करे यही सुखी होने का सच्चा उपाय है ।

गोत्र कर्म के उदय से होने वाला दु:ख और उससे निवृत्ती:
गोत्र कर्म से जीव ऊँच-निच कुल मे उत्पन्न होता है।
प्र. ऊँच निच कुल से क्या मतलब?
उत्तर: जहाँ संयम धारन करने के अवसर मिल सके और जहाँ संयम धारण ना कर सके मुनी दिक्षा ना ले सके वह निच कुल कहलाता है।4 प्रकार के भेद किए गए थे ब्राह्मण,क्षत्रिय,वेश्य, क्षुद्र इन चारो मे क्षुद्र निच कुलमे आते है और बाकी ३ उच्चकुल के माने जाते है ।

प्र. देवगती भी निच कुल मे आती है क्या?
उत्तर : देव गती मे संस्कार अच्छे होने से, परिणाम अच्छे होने से उन्हे उच्च कुल का उदय माना जाता है।
भगवान आदिनाथ जब राज्य करते थे तब उन्होने लोगो को ३ कुल मे विभाजित किया था क्षत्रिय,वेश्य, और क्षुद्र फिर भरत चक्रवर्ती ने ४था भाग किया था वो ब्राहमण कुल था। जो व्रती होते है वे ब्राहमण केहलाते है ,जो लड़ाई करने जाते है अर्थात जिनकी योग्यता लडने की होती है व्रत लेने की नही इसलिए क्षत्रिय कहलाते है, जो व्यापार करते है वे वेश्य कहलाते है और इसके अलावा सभी शुद्र कहलाते है ।
लोक मे एसा माना जाता है कि जहाँ परिवार अच्छा हो धनाट्य हो तो वो ऊँचा कुल है और जहाँ ये सब ना हो वह निचा कुल है और इसी कारण जीव अपने को ऊँच कुल मिलने पर ऊँचा और निच कुल मिलने पर निचा मानता है उस मे कुछ बदलाव हो सकता एसा भासित नही होता है और जो कुल मिला है उसी मे अपनापन मानता है और मद करता है तो यह जो अपनापन मानना है वह तो मिथ्यात्व है और फिर उसमे मद करता है जो कि ८ प्रकार के मद मे से एक है कुल जाती का मद परंतु कुल की अपेक्षा स्वयं को ऊँचा निचा मानना वो भ्रम है क्योंकी निचा कुल वाला अगर कोइ अच्छा कार्य करे तो वह ऊँचा माना जाता है और कोइ ऊँचा कुल वाला बुरा कार्य करे तो वह निंदा का पात्र बनता है जैसे चांडाल जो निचे कुल का माना जाता है परंतु उसने अहिंसाव्रत का पालन किया हो तो वह प्रशंसनिय होता है और शिवभुती ब्राहमण जो कि जैन था वह चोरी व्यसन मे प्रसिद्ध हुआ। बुरा कार्य करने पर भी ऊँचे कुल वाला निचा हो सकता है और अच्छा कार्य करने पर निचाकुल वाला ऊँचा बन सकता है इसलिए कुल पर अपना ऊँचापन या निचापन मानना यह भ्रम है।

कुल का काल : पर्याय के रेहने तक ही यह कुल होता है जब पर्याय बदल जाती है कुल भी बदल जाता है । तथा इस मिथ्यात्व और मद के कारण ऊँचे कुल वाले जीव को निचा ना हो जाउ इसका भय रहता है और निचे कुल वाला जीव निचा होने से दु;खी ही है।
इस कुल के कारण हो रहे दु:ख को दुर करने का उपाय कुछ लगता ही नही सो कोइ उपाय करता भी नही। परंतु आचार्य यहा कुल के दु:ख से छुटने का सच्चा उपाय सम्यग्दर्शनादि बताते है जिसके सहायता से ऊँचे कुल वाला जीव ज्यादा हर्ष ना करे और निचे कुल से जीव विषाद ना करे । क्योंकी सम्यग्दर्शनादि से इस बात का ज्ञान होता है की यह देह और देहसे related कुल आदि वस्तुए वह अनित्य है अशरण है और एक स्वांग है और इस बात का ज्ञान होनेपर जीव हर्ष विशाद का त्याग कर सकता है और इसी के द्वारा जिसमे कभी कोइ बदली ना हो ,बिना किसी ऊँच गौत्र के उदय से जिनका सदा ऊँचा ही पद रहता है लोक मे माने जाते है एसे सिद्ध पद को प्राप्त कर सकता है। सिद्ध पद के अलावा इस लोक मे कोइ भी पद शाश्वत नही है।
Summary of कर्मो की अपेक्षा संसार के दु;ख और उसका मुलकारण
इस प्रकार कर्मोकी अपेक्षा से इस संसार मे दु:ख ही दु:ख है सुख कही नही है दु:ख की कमी होने पर स्वयं को सुखी मानता है जो की सुखाभास होता है सच्चा सुख नही है ।हर समय दुख की ही अवस्था होती है सुख की अवस्था एक क्षण के लिए भी नही होता है।दु:ख मे कम ज्यादा होने से स्वयं को सुखी दु:खी मानता।
मिथ्यादर्शन के निमित्त से इच्छा होती है जिससे दु:ख उत्पन्न होता है।
मिथ्यादर्शन से इच्छा की परंपरा कायम रहती है और जो इच्छा मिथ्यात्व के बगेर होती है उसकी (इच्छाकी ) संतती या परंपरा का end हो जाता है।
प्र. आयु का बन्ध life मे कौनसे period मे होता है?
उत्तर: आयु का बंध परिणाम पर आधारित है जो की आयु के ८ अपकर्श काल मे होता है इनमे ही आयु का बंध होता है।
As आयु के 2/3rd भाग जब बित जाता है तो 1/3rd के शुरुवात के अन्तर्मुहरत मे बंध होता है और अगर उस समय ना हुआ हो तो शेष बची आयु मे से जब 2/3rd भाग बीत जाता है तब जो remaining 1/3rd भाग के start मे अन्तर्मुहरत मे बन्धता है इसी प्रकार ८ periods होते है जिसमे से किसी एक काल मे तो आयु का बन्ध हो ही जाएगा सबसे अन्त मे मरण के एक अन्तर्मुहरत पर तो finally बन्ध हो ही जाता है।
प्रश्न: आयु कर्म जब कहा जात है तब वह आयु कितनी होगी और कोनसी गती मिलेगी दोनो included है क्या?
उत्तर: आयु स्वयं एक प्रकृति है उसकी उत्तर प्रकृति के according स्थिती बंध जो कि आयु कितनी होगी decide करता है और प्रकृती बंध से कोन्सी गती मिलेगी ये decide होता है ।
मोह के कारण ही जीव सुखी दुखी होता है जो बाह्य पदार्थ होते है वो दु:ख का कारण नही है और इनमे सुख दुख मानना भी मिथ्यात्व है यह मिथ्यात्व और मोह का नाश करके ही हम सच्चा सुख प्राप्त कर सकते है तो हमे यही पुरुषार्थ करना चाहिये जिससे यह मोह का नाश हो जो इच्छाए पैदा करता है और मिथ्यात्व का नाश करना है जो हमारे साथ किस किस प्रकार से जुडा हुआ है उसे ध्यान मे लाकर उन बातो का त्याग करे जिससे हमरी एकान्त मन्यता नश्ट हो जाये और हम सच्चा सुख प्राप्त करने की ओर बढे।

(ख) पर्याय की अपेक्षा दु:ख:

पर्याय -१.एकेन्द्रिय ------- a. साधारण ----- i) इतर ii) नित्य
२.विक्लेन्द्रिय
३. पंचेन्द्रिय
a. नारकी
b. तिर्यंच
c. देव
d. मानव
जीव सबसे ज्यादा काल एकेन्द्रिय मे रहता है ।
नित्य निगोद : जहा से जीव कभी नही निकल पाया है।
इतर निगोद : निगोद से निकल कर एकेन्द्रियादिपर्याय धारण कर फ़िर से निगोद मे आता है वह इतर निगोद कहलाता है।
निगोद से निकलना एसा है जैसे भाडमे भुजते हुए चने का उचट जाना …..
वहा अक्षय अनंत जीव मे से एक जीव वहा से निकलता है

एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट काल –असंख्यात कल्पकाल
इतर निगोद – ढ़ाई पुद्गल परावर्तन
दोनो मिलाके – उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरावर्तन
पुद्गलपरावर्तन – जिसके अनंतवे भाग मे भी अनंत सागर होते है ।
Q. दोनो मिलाके असंख्यात पुद्गलपरावर्तन कैसे होता है ?
A. समझो पहली बार इतर निगोद मे ढ़ाई पुद्गल परावर्तन व्यतीत करता है फिर एकेन्द्रिय मे असंख्यात कल्पकाल रहता है फिर इतर निगोद मे ढ़ाई पुद्गल परावर्तन इस cycle के according दोनो मिलाके असंख्यात पुद्गलपरावर्तन हो जाता है ।
यहाँ जब पर्यायो के दुख की बात कर रहे है तो किसी और जीव की ना सोच कर उस स्थिती मे हम जा चुके है एसे दुख भोग चुके है इतने समय तक इन दु:ख को भोगा है तो इस बात का ज्ञान होना चहिये । आज जब हमे इस बात को जानने का समय आया है तो इस भव मे हमे धर्म करना चहिए और स्वयं का उद्धार करने का विचार करना चाहिए।





1 comment:

Vikas said...

बहुत बढ़िया. आयु कर्म के सम्बन्ध में ये पर्याय स्वांग ही है, ऐसा और 12 भावना का विचार करते रहना चाहिए. सम्यक दर्शन में जीव का कैसा भाव रहता है और कैसे दुखी नहीं होता है, यह बहुत सही बताया है.


Few corrections:
जहाँ संयम धारन करने के अवसर मिल सके और जहाँ संयम धारण ना कर सके मुनी दिक्षा ना ले सके वह निच कुल कहलाता है।
Correction: जहाँ संयम धारण ना कर सके मुनी दिक्षा ना ले सके वह निच कुल कहलाता है।

जो लड़ाई करने जाते है अर्थात जिनकी योग्यता लडने की होती है व्रत लेने की नही इसलिए क्षत्रिय कहलाते है
Correction: क्षत्रिय लोग भी व्रत ले सकते है. मात्र क्षुद्र को मुनि व्रत का अधिकार नहीं है.

इसी प्रकार ८ periods होते है जिसमे से किसी एक काल मे तो आयु का बन्ध हो ही जाएगा सबसे अन्त मे मरण के एक अन्तर्मुहरत पर तो finally बन्ध हो ही जाता है।
Correction: ये जरुरी नहीं की ८ periods में ही हो. इन ८ periods में बंध नहीं हुआ हो, तो फिर मरण के अंतर्मुहूर्त पहले हो ही जायेगा.

पर्याय -१.एकेन्द्रिय ------- a. साधारण ----- i) इतर ii) नित्य
Correction: एकेन्द्रिय में पृथ्विकाया वायुकाय आदि भी है, साधारण और प्रतिष्ठित तो मात्र वनस्पति के भेद है.