Tuesday, February 10, 2009

वेदनीय कर्म से दुख व उससे निवृत्ति

Class Date: 02/09/09
Chapter: 3
Page#: 60
Paragraph #: 2
Recorded version: 02-09-09_Chap3_KarmSeDukh#27.mp3
Summary:

-->बात सुख की ही हो रही है। पहले दुख बत्ता कर फ़िर उसका सुख बतायेंगे, कि दुख में कुछ कमी होने पर तू जो सुख मान रहा है वो वास्तविक सुख नहीं है। निराशाजनक बातें नहीं बता रहे हैं कि संसार में दुख ही है, इतना दुख है, ऐसे दुख है, बता रहे हैं कि ये विपरीत कार्य करे हैं, उनसे तेरा दुख बढा ही है कम नहीं हुआ है। सच्चा सुख भी बता रहे हैं। सच्चा सुख पता चल जाये तो जो विपरीत कार्य थे वे रुक जाये और जो भ्रमरूप अवस्था थी वो बंद हो जाये।

प्र० हमारी बात अभी दुख की चल रही है या सुख की?
उ० बात तो सुख की ही चल रही है, उस सुख को बताने के लिये, उस सुख की महिमा के लिये पहले दुख का अहसास करा रहे हैं कि जो तू सुख मान रहा है वो वास्तविक सुख नहीं है।

revision:

प्र० अंतराय कर्म के जो उपाय जीव कर्म कर रहे हैं वो झूठे हैं, क्यों?
उ० १) जीव उन विघ्नों को दूर करने का जो उपाय करता है, फ़िर भी विघ्न होते देखे जाते हैं।
२) अंतराय का क्षयोपशम होने पर बिना उपाय भी विघ्न नहीं होता।
३) बाह्य चेतन/ अचेतन द्रव्यों द्वारा व्यर्थ ही द्वेष करता है, क्यों कि बाह्य वस्तुयें भवितव्य के आधीन हैं, अपनी इच्छा के अनुसार नहीं घटित होतीं, अपने कर्मोदय के अनुसार बाह्य वस्तुयें घटित होतीं हैं।

प्र० जीव साता को बनाये रखने का और असाता को मिटाने का जो उपाय करता है वो झूठे हैं, क्यों?
उ० १) उपाय जीव के आधीन नहीं हैं, भवितव्यता के आधीन हैं।
२) उपाय होने पर भी कार्य की सिद्धि होना वो भी भवितव्यता के आधीन है।
३) कार्य की सिद्धि भी हो जाय अर्थात वो वस्तु की प्राप्ति भी हो जाय तो भी कई तरह से आकुलता बनी ही रहती है:- (i) वस्तु को भोगने संबन्धी आकुलता, (ii) अन्य वस्तु भॊगने की आकुलता, (iii) वस्तु को अन्य प्रकार से भोगने की आकुलता, (iv) कुछ और करने की आकुलता आदि।
४) साता मात्र असाता का प्रतिकार अर्थात जो साता हुई है वो थोडी देर के लिये ही असाता को शांत करती है।
५) असाता का उदय अधिक समय तक रहता है। क्यों कि हम पुण्य कम और पाप ज्यादा करते हैं, और अशुभ प्रवृत्ति में रहते हुए अशुभ ही बंध होगा तो वो अधिक उदय में आयेगी और असाता अशुभ प्रवृत्ति है। और कर्म काटने का सम्यकदर्शनादि उपाय नहीं करता इस्लिये साता का उदय कम समय रहता है।
६) बाह्य सामग्री से परमार्थ से सुख दुख नहीं है। मोह के कारण जो इच्छा उत्पन्न हो रही है वो सुख दुख के कारण हैं।

page 60:

प्र० अब प्रश्न है कि बाह्य सामग्री से तो ठीक है परन्तु शरीर में पीडा होने पर तो सुख दुख है??
उ० १) आत्मा का ज्ञान इंद्रियाधीन है, मति ज्ञान व श्रुतज्ञान। इंद्रियां शरीर का अंग है, लेकिन शरीर का अंग न जानकर खुद को वैसा ही मानता है तो इसमें जो इष्टता अनिष्टता होती है उससे सुखी दुखी होता है। जीव ज्ञान को व शरीर को एकमेक करके मोह भाव के साथ में अनुभव करता हुआ दुख को विशेष रूप से जानता है। शरीर और आत्मा का एकक्षेत्रावगाह (जो एक ही क्षेत्र में एक साथ रहते हो) संबंध है, तो यहां जो सुख दुख की अवस्था का जानपना बनता है वो विशेष होता है।
२) रागी जीव को यदि क्षुधा वेदनीय का उदय आये अर्थात भूख लगी हो तो दुखी हो और उसी समय उसके पुत्र को भी भूख लगी हो और भोजन कम हो तो पहले पुत्र को खिलायेगा, और सुखी होगा उस समय वो स्वयं के शरीर में हो रहे दुख को भूल गया। वहां रति कषाय की पुष्टि हो गई तो कषाय का level कम हो गया और स्वयं के दुख को भूला। अतः शरीर मे सुख दुख होने पर हमेशा सुखी दुखी हो ऐसा नहीं है।
३) मुनि को शरीर में अनेक पीडा उत्पन्न होने पर भी दुख को नहीं मानते। असाता रूप सामग्री का संयोग स्वयं कराते है तथापि दुख नहीं मानते, सुख का अनुभव करते हैं, अतः सुख दुख तो मोह ही के आधीन है।

-->> साता वेदनीय के उदय होने पर यदि कोई वस्तु मिल जाय तो जीव रति कषाय का उदय होने पर सुख अनुभव करता है, व अरति का उदय होने पर दुख। तो मोहनीय व वेदनीय में निमित्त नैमेत्तिक संबंध है जिससे उन सामग्रियों में सुख दुख का उपचार मात्र किया जाता है। वो सामग्री अपने आप में सुख दुख की कारण नहीं बनती।
-->> बाह्य पदार्थों से सुख दुख उत्पन्न नहीं होता, मोह के कारण से जीव उन पदार्थों में इष्ट अनिष्टपना करता है। कोई पदार्थ स्वयं इष्ट या अनिष्ट नहीं है।
-->> करणानुयोग के अनुसार केवली भगवान के असाता का उदय कथंचित पाया जा सकता है, किंतु वो इतना न्यून जाति का है कि उसका कार्य देखा नहीं जाता। और वो असाता के उदय साता रूप से convert हो हो कर उदय में आते हैं, उनका अनुभाग इतना हीन हो जाता है कि वो साता जैसा ही हो जाता है। साता का उदय तो समवशरण आदि विभूति है वो हैं ही, परन्तु केवली भगवान को जो सुख हो रहा है वो उस बाह्य सामग्री या साता के उदय से नहीं है।
-->> केवली अवस्था में साता असाता दोनो प्रकृत्ति एक साथ उदय में आ सकती हैं, यहां साता का इतना तीव्र अनुभाग है कि वो असाता को अपने साथ लेकर चली जायेगी। ये जगत में और कभी भी किसी के साथ नहीं होता।
-->> अतः हमें ऐसा श्रद्धान करना चाहिये कि ये जो सुख दुख हो रहा है वो मोह से ही उत्पन्न हो रहा है, बाह्य सामग्रियों से नहीं।

प्र० सच्चा उपाय क्या है?
उ० सम्यकदर्शनादि से भ्रम दूर हो -->
तो ये जो सुख दुख है वो बाह्य सामग्री से नहीं है, अपने परिणाम से होता है ऐसा यथार्थ विचार हो --> यथार्थ विचार/तत्व विचार द्वारा अपने परिणामों को सुधारकर ऐसे साधन करे जिससे सामग्री के निमित्त से सुखी दुखी न हो, (साधन जैसे भेद-विज्ञान करें, उदासीन रहें, निर्मोही, तटस्थ रहें, अशुभ को छोडकर शुभ प्रवृत्ति में मन को लगाये, नोकर्म का त्याग करें, सत्संगति व सदाचरण रूप कार्य करें) --> सम्यकदर्शनादि प्राप्त करने की भावना करे -->
दर्शन व चारित्र मोह मंद होता है -->
अनेक कारण मिलने पर भी सुख दुख नहीं होता -->
इस प्रकार की शांत निराकुल दशा होकर सच्चे सुख का अनुभव करे।
सच्चा सुखी होने का यही सच्चा उपाय है।

1 comment:

Vikas said...

बहुत ही बढ़िया. पूरा blog बहुत ही विचारणीय है. वेदनीय के उदय से कैसे सुखी-दुखी न हो, इसका सम्यकउपाय सही बताया है.

1 correction:
..और असाता अशुभ प्रवृत्ति है।
असाता को अशुभ प्रवृत्ति नहीं कहा जा सकता है। जीव अशुभ प्रवृत्ति करता है, तो असाता का बंध होता है.