प्र० केवलज्ञान के जानने की अपेक्षा तो असत्यवचनयोग १२वें गुणस्थान तक कहा है, तो क्या ऐसा है कि १२वें गुणस्थान वर्ती मुनिराज असत्य बोलते हैं?
उ० वचनयोग ४ प्रकार का कहा है:- सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग और अनुभयवचनयोग। असत्य बोलने के २ कारण हो सकते हैं (१) अज्ञान से, (२) कषाय से (राग, द्वेष आदि)। १२वें गुणस्थान तक अज्ञान रूप अवस्था कही है। उस अपेक्षा से उपचार से ऐसा कहा है कि असत्य वचनयोग १२वें गुणस्थान तक है।
प्र० अचौर्य महाव्रत में बिना दी हुई चीज को ग्रहण करने में भी चोरी का दोष है, अदत्तकर्मपरमाणु आदि परद्रव्य का ग्रहण १३वें गुणस्थान तक कहा है?
उ० केवली भगवान १३वें गुणस्थान तक कर्म परमाणु और नोकर्म परमाणु ग्रहण करते हैं, उस अपेक्षा से यह भी उपचार से कहा है।
प्र० अन्तरंग परिग्रह १०वें गुणस्थान पर्यन्त कैसे कहा?
उ० अन्तरंग परिग्रह १४ प्रकार का (मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद) इनमें से सूक्ष्म लोभ १०वें गुणस्थान(सूक्ष्मसाम्पराय) तक रहता है।
प्र० बाह्य परिग्रह समवसरणादि केवली के भी होता है?
उ० समवसरण आदि होता केवली के ही है परन्तु केवली द्वारा बनाया नही होता और ना ही भगवान उसमें अपनापन रखते हैं। वो सब तो देवोकृत अतिशय होते हैं। परन्तु उपचार से केवली के ही कहने में आता है क्योंकि उनके चारों ओर होता है।
--> प्रमाद अर्थात कुशलकार्यों में असावधानी (स्वरूप में असावधानी)। मुनिराज अपने महाव्रतों को पालने में असावधानी(प्रमाद) नहीं करते। उनका अंतरंग अभिप्राय तो केवल अपने स्वरूप में लीन होने का ही है। परन्तु करणानुयोग में सुक्ष्मता से कथन किया जाता है जो कि केवलज्ञान गम्य है इसलिये उक्त सर्व ही बातें उसी तरह से उपचार से कहीं हैं।
--> मुनि के पंचेन्द्रिय विषयों का त्याग कहा है तो मुनि के पन्चेन्द्रिय विषयों की इच्छा का स्थूलरूप से तो अभाव हुआ है परन्तु इन्द्रिया तो अपना काम करती ही हैं, और अगर उनको विषयों में सम्पूर्ण राग द्वेष दूर हो जाये तो यथाख्यात चारित्र मानें जो तो हुआ नहीं है।
--> श्रावक के भी त्याग व आचरण चरणानुयोग की पद्धति अनुसार व लोक प्रवृत्ति अनुसार ही होता है जैसे अगर त्रस हिंसा का त्याग किया है तो चरणानुयोग के अनुसार या लोक प्रवृत्ति के अनुसार ही करेगा करणानुयोग के अनुसार नहीं क्यों कि वह तो केवली गम्य है हम उन त्रस जीवों को देख भी नहीं सकते।
--> अविरति अर्थात त्याग का अभाव, अविरति १२ प्रकार की है:- ५ इंद्रियां + मन + त्रस हिंसा + ५ स्थावर हिंसा। चरणानुयोग की अपेक्षा छठे गुणस्थान में इन १२ प्रकार की अविरतियों का अभाव होता है अर्थात त्याग के अभाव(अविरति) का अभाव होता है। उसमें मन अविरति का भी अभाव कहा,
मुनि को मन के विकल्प होते हैं परन्तु मन की पापरूप प्रवृत्ति का अभाव होता है इसलिये अभाव कहा। करणानुयोग की अपेक्षा छठे गुणस्थान में ३ कषाय चौकडी(अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरणी, प्रत्याख्यानावरणी) का अभाव होता है।
दान के पात्र:-
दान देना चरणानुयोग में कहा है इसलिये चरणानुयोग की अपेक्षा ही पात्र व अपात्र का निर्णय करना चाहिये। जो जिनदेवादि का श्रद्धानी पाया जाय वही सम्यक्त्वी अर्थात पात्र और जो श्रद्धानी नहीं हो वही मिथ्यात्वी अर्थात अपात्र।
करणानुयोग की अपेक्षा सम्यक्त्वी ४ से ऊपर के गुणस्थानवर्ती और प्रथम गुणस्थानवर्ती मिथ्यात्वी है । तो अगर कोई मुनिराज ११वें गुणस्थान से १ अंतर्मुहूर्त में ही प्रथम गुणस्थान में आ जाये तो पता ही चल नहीं सकता ये तो केवलज्ञानी को ही ज्ञात हो सकता है कि अभी कौन से गुणस्थान में है। तो पात्र अपात्र का सही निर्णय नही हो पायेगा।
द्र्व्यानुयोग की अपेक्षा सम्यक्त्व मिथ्यात्व ग्रहण करने में भी ठीक निर्णय नहीं हो सकता क्यों कि संघ में तो भावलिंगी भी हैं और द्रव्यलिंगीं भी। पहले तो उनको कैसे पहचानेंगे कि कौन से सम्यक्त्वी हैं और कौन से मिथ्यात्वी और अगर किसी सम्यक्त्वी ने पहचान भी लिया तो और द्रव्यलिंगी को नमस्कार न करे या दान ना दे तो संघ में सबको पता चल जायेगा कि वे मिथ्यादृष्टि हैं इससे उन मुनि को कैसा लगे और संघ में विरोध हो जाये।
इसलिये चरणानुयोग की अपेक्षा ही दान के पात्र का सही निर्णय करना चाहिये।
प्र० सम्यक्त्वी को द्रव्यलिंगी मुनि की भक्ति करनी चाहिये ना नहीं?
उ० हां, क्योंकि द्रव्यलिंगी व्यवहार धर्म से सम्यक्त्वी से बडा/प्रधान है और भक्ति करना भी व्यवहार ही है। जैसे दो भाई हैं छोटा भाई अधिक धनवान है और बडा गरीब है तो छोटा भाई बडे का सम्मान करेगा ही क्योंकि पद में वो अभी भी बडा है उसी प्रकार सम्यक्त्वी को भी द्रव्यलिंगी की भक्ति करनी चाहिये।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
प्रश्नोत्तर शैली में सारे points cover कीये है. बहुत बदिया!
One minor point:
"अविरति १२ प्रकार की है:- ५ इंद्रियां + मन + त्रस हिंसा + ५ स्थावर हिंसा। "
यहाँ इनके त्याग का अभाव कहना अपेक्षित है.
Post a Comment