चरणानुय़ोगमें दोष कल्पना का निराकरण (प्रश्ट २९१)
प्रश्न: बाह्य व्रतादि से कुछ सिद्धी नही होती, अपने परिणाम निर्मल होना चाहिये, बाह्य में चाहे जैसे प्रवर्तो?
उत्तर: क्रिया एवं परिणाम (आत्म परिणाम एवं बाह्य परिणामों) में निमित्त नैमित्तीक संबंध है । अंतरंग परिणाम निमित्त है ।अपने परिणाम निर्मल होने पर व्रत लेता है तथा व्रत लेने पर परिणाम निर्मल होते है। अत: दोनो साथ साथ चलते है । संयम से हि गुणस्थान बढता है (शुद्ध परिणाम के साथ)। व्यव्हार रुप अवस्था पहले होगी बाद मे निश्चय होगा ।द्रव्य लिंगी पहले होंगे बाद में भाव लिंगी होंगे(करणानुयोग के हिसाब से) । बाह्य संयम साधन बिना परिणाम निर्मल नहीं हो सकते।
प्रश्न: इसमे चौथे गुण्स्थान की बात है,सम्यकदृष्टि श्रावक कि बात है इसलिए सामान्य जीव के लिए कार्यकारी नहीं है?
उत्तर:जानने के लिए पढ्ना है ।हमारी भविष्य मे एसी अवस्था हो इसलिए पढना है।संयम लेने की इच्छा नही है मतलब अभी असंयम का भाव है। एसी भावना को दुर करने के लिए पढ्ना है।
द्रव्यानुयोग में दोष कल्पना का निराकरण:
- द्रव्यानुयोगमें आगम पद्धति एवं आध्यात्म पद्धति है। स्व पर भेदविज्ञान को मुख्य करके बात कही है।
प्रश्न: द्रव्यानुयोग मे व्यव्हार धर्म का हीन प्रगट किया है,तथा इसको पढकर पुण्य छोडकर पाप मे प्रवर्तन करने लगते है इसलिये इनका पढना सुनना उचित नही है?
उत्तर: जैसे गधा मिश्री खाकर मर जाए तो मनुष्य तो मिश्री खाना नही छोडेंगे उसीप्रकार अध्यात्म ग्रंथ सुनकर कोइ जीव स्वछंदी हो जाए तो विवेकीजीव तो आध्यात्म शास्त्र पढना नही छोडेंगे। जब कोइ जीव स्वच्छंदी हो रहा है एसा जाने तो केवल इतना ही कर सकते है की उसे एसा उपदेश दे कि वह स्वच्छंदी न हो । आध्यात्म शास्त्र का निषेध करे तो मोक्षमार्ग का तो मूल उपदेश वहाँ है,उसका निषेध करने से मोक्षमार्ग का निषेध हो जयेगा।
प्रश्न: अध्यात्म उपदेश उत्कृष्ट है सो उच्च्दशा को प्राप्त हो उसको कार्यकारी है,निचली दशा वालो को व्रत संयम आदि का ही उपदेश देना चाहिए?
उत्तर: जिनमत मे परिपाठी है कि पहले सम्यक्त्व होता है (निश्चय सम्यक्त्व) फिर व्रत होते है। यह सम्यक्त्व स्व पर का श्रद्धान होने पर होता है और वह श्रद्धान द्रव्यानुयोग के श्रद्धान करने पर होता है।इसलिए पहले द्रव्यानुयोग के अनुसार श्रद्धान करके सम्यग्दृष्टि हो पश्चात चरणानुयोग के अनुसार व्रतादिक धारण करके व्रती हो। इसप्रकार द्रव्यानुयोग निचली दशा मे ही कार्यकारी है। गौणरुप से जिसे मोक्षमार्ग की प्राप्ती होती न जाने उसे पहले व्रतादिक का उपदेश देते है; इसलिए ऊँची दशा वालो को अध्यात्म अभ्यास योग्य है एसा जानकर निचली दशा वालो को वहा से परान्मुख होना योग्य नही है।
Thursday, September 25, 2008
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