द्रव्यानुयोगमें दोष-कल्पना का निराकरण (पेज २९२-२९४)
- सामान्य रुप (परम्परा मार्ग) से व्यव्हार सम्यक्त्व पहले होता है ।
- परिपाठी से पहले निश्चय सम्यक्त्व होगा पश्चात चरणानुयोग के अनुसार व्रतादिक धारण करके व्रती हो ।
- द्रव्यानुयोग का उपदेश पात्र जीव को दिया जाता है ।
- निचली दशा मे ही द्रव्यानुयोग का उपदेश आवश्यक है ।
प्रश्न. ऊँचे उपदेश का स्वरुप निचलि दशा वालों को कैसे समझ आयेगा ?
उत्तर: लौकीक कार्य में तो अने़क प्रकार की चतुराई जाने और यहां मुर्खता प्रगट करे, वह योग्य नहीं है ।
प्रश्न. काल निकृष्ट है इसलिये उतकृष्ट अध्यात्म उपदेश की जरुरत नहीं है?
उत्तर: यह काल मोक्ष न होने की अपेक्षा निकृष्ट है । किन्तु आत्मानुभवनादिक के द्वारा सम्यकत्वादिक होना इस काल में मना नहीं है, इसलिये आत्मानुभवादिकके अर्थ द्रव्यानुयोग का अवश्य अभ्यास करें ।
प्रश्न: द्रव्यानुयोगमें अध्यात्म शास्त्र है; वहां स्व-पर भेदविज्ञानादिकका उपदेश दिया वह तो कार्यकारी भी बहुत है और समझ में भी शीघ्र आता है; परंतु गुण पर्यायादिकका व अन्यमतके कहे तत्वादिकके निराकरणका कथन किया, सो उनके अभ्याससे विकल्प विशेष होते है और वे बहुत प्रयास करने पर जाननेमें आते हैं; ईसलिये उनका अभ्यास नहीं करना ।
उत्तर: सामान्य से वीशेष जानना बलवान है । ज्यों-ज्यों विशेष जानता है त्यों-त्यों वस्तुस्वभाव निर्मल भासित होता है, श्रद्धान दृढ होता है, रागादि घटते है; ईसलिये उस अभ्यासमें प्रवर्तना योग्य है ।
Tuesday, September 30, 2008
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