Thursday, August 7, 2008

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तथा कितने ही पुरुषों ने....
* प्रथमानुयोग में लौकिक कार्यों कि सिद्धि के लिये पूजनादिक करना बताया जाता है, तथा उन कार्यों की प्रशंसा करते है, परन्तु वास्तव में ऐसा करने से-
१ - निःकांक्षित गुण( अर्थात धर्म के बदले में लौकिक इच्छा का अभाव) का अभाव होता है।
२- निदानबन्ध नामक आर्त्तध्यान होता है।
निदानबन्ध आर्त्तध्यान - भोगों, अच्छी वस्तुओं की सामान्य इच्छा निदानबन्ध आर्त्तध्यान है, यह ५ वें गुणस्थान वालें को भी हो सकती है ।
निदान शल्य- धर्म कार्य के बदले में अच्छी वस्तुओं कि प्राप्ति कि वांछा होना । यह मिथ्यात्व है।
जहां निदान शल्य है वहां निदानबन्ध आर्त्तध्यान तो होगा हि होगा।
३- पूजनादि करने के पीछे उद्देश्य तो पाप पूर्ति का ही है अतः पाप का बन्ध होता है।

सो जीव कुदेवादिक के पूजन में नहीं लगा उसके बदले में सुगुरु सुदेवादिक के सेवन में लगा, उससे पुत्रादिक कि प्राप्ति बताइ है तो उसका गुण ग्रहण करना, किन्तु उसे भली प्रकार जानना, तथा उससे जीव के राग कि भी मन्दता होती है।

* प्रथमानुयोग से सिद्धांत नहीं निकाले जाते, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग व चरणानुयोग से सिद्धांत निकाले जाते हैं\

करणानुयोग के व्याख्यान का विधान:

- करणानुयोग में जैसा केवलज्ञान में जाना वैसा ही वर्णन है।
- केवलज्ञान में तो सूक्ष्म से सूक्ष्म ज्ञान भी जानने में आता है किन्तु करणानुयोग में जीव के प्रयोजनभूत बातों जैसे कर्म, त्रिलोकादि का ही वर्णन होता है।
- उसमें भी हम छद्मस्थ ( अपूर्ण ज्ञान रुप अवस्था , स्थ = स्थित रहने वाला) के ज्ञान में सारी बातें विस्तार से नहीं आ सकती तो उनको संकुचित करके बताते हैं।

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