Tuesday, January 5, 2010

MMP Class Notes - देव भक्ति का अन्यथारुप - धर्म बुध्धि से धर्मधारक व्यवहाराभासी मे सम्यगदर्शन का अन्यथारुप

Class Date: 12/28/09, 12/29/09, 12/30/09, 01/04/10
Chapter:7
Page#:229-230
Paragraph #: मेईन टोपीक: धर्म बुध्धि से धर्मधारक व्यवहाराभासी मे सम्यगदर्शन का अन्यथारुप, सब टोपीक: देव भक्ति का अन्यथारुप
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Summary:

सम्यग दर्शन की एक परिभाषा यह हे कि : देव, गुरु, शास्त्र का सच्चा श्रध्धान = सम्यकत्व.
यहा जीव अन्य कुदेव आदि को रंजमात्र भी नही सेवता लेकिन सुदेव आदी कि परिक्षा नही करता के सुदेव के गुण क्या हे और केदेव आदी के गुण-अवगुण क्या हे और अगर परीक्षा करता हे तो भी सिर्फ़ बाह्य लक्षण से करता हे, तत्वग्यानपूर्वक नही करता.

देव भक्ति संबंधी भूलें:

प्रथम भुल:

देव के बारे मे अनेक विशेषण, अनेक गुण आदि हम जानते हे लेकिन उन गुणो में जिवरुप गुण य पुदगलरुप गुणो को भिन्न भिन्न नही देखते हे. देव केवलग्यान धारी हे और सफ़ेद खुन धारी हे, इन दोनो गुणो को एक ही केटेगरी मे रख देना यानी कि हमने देव को यथार्थ रुप से जाना ही नही.
 जो शरीर आश्रित, अन्य पुदगल आश्रित और नगर या कुटुंब आश्रित गुण होते हे उनका निषेध नही हे या उनका अपमान भी नही करना हे, वोह पुज्य हे लेकिन उनका अतिरेक भी नही करना हे. अनंत चतुष्टय आदि आत्मिक गुण / अंतरंग के गुण हे उसकि महिमा को यथार्थ रुप से जानना हे.

यहा दुसरी बात यह हे कि उन जिव रुप गुण या पुदगल रुप गुण के बारे मे कोइ विचार नही किया और सिर्फ़ आग्या से उन्हे जान लिया. उन गुणो के कारन देव का महंतपना क्यों हे वोह भी नही सोचा, सिर्फ़ आग्या से देव को बडा मान लिया.

तिसरि बात: इन गुणो को जानने कि कोशिश करी तब भी बराबर/यथार्थ नही समजा. यह सोचा हि नकी कि जो आत्मिक गुण हे देव के वोह गुण देव में होने चाहिए कि नही, अगर ना हो तो उससे क्या बाधा आ शकती हे या जो पतित्पावन, दिनदयाल, मोक्षदाता आदि विशेषण हे उसका शाब्दिक अर्थ मान लिया, एसा होने पर देव मे वितरागता रहती नही एसा सोचा ही नहि और उन विशेषणो को उपचार से समजना था वोह नही किया, इस तरग देव क स्वरुप सही तरिके समजा ही नही.

दुसरी भुल:

अरिहंत आदि कि कथा मे उनके नाम, पुजा आदि से स्वर्ग, मोक्ष मिल जाता हे एसी बाते आती हे और मोक्ष दाता आदी विशेषणो के कारन जिव देव को कर्ता मान लेता हे. यहा तो कार्य होने में प्रभु के नाम स्मरण आदी के और जीव के परिणाम शुभरुप होने मे जो निमित्त-नैमित्तिक संबंध होता हे उसमे अरिहंत के नाम आदी निमित्त की उपचार से महत्ता दिखाते हे. यहा प्रयोजन तो सिर्फ़ एक हि हे कि तिव्र कषाय वाला जिव मंद कषाय कि तरफ़ बढे और उसे धर्म के रास्ते पर ला सके. यहा कोइ शोर्टकट की तो बात हि नही, पुरे जिवन पाप करते रहो और अंत मे प्रभु के नाम स्मरण से पा धुल जायेंगे एसि व्यवस्था हे ही नही.

भक्ति मे कर्तुत्व पने की भाषा उपयोग मे लि जाती हे. लेकिन मान्यता मे तो यथार्थ समज होनी हि चाहिए. महमान को "आप का ही घर हे" एसा कहते हे लेकिन मानते तो अलग हे. अगर भगवान को कर्ता ना माने और सब बोज कर्म पर डाल दे तो वोह भी थीक नही.

तिसरी भुल:

अरिहंत कि भक्ति, पुजा आदि धार्मिक क्रिया करने से अनिष्ट का नाश / इष्ट क मिलना होता हे. पहले तो धर्म आत्मा के लिये करना हे , सांसरिक प्रयोजन के लिये नही. सांसरिक प्रयोजनार्थ धर्म करने वाला धर्म से लौकिक वस्तु मांगता हे और यहा तुम धर्म से पुण्य मांगते हो और फ़िर उस से काम हो जायेगा एसा मानते हो. पहेलेवाले को हित-अहित कि बुध्धि हि नहि हे और तुम्हे हित-अहित कि भावना हे लेकिन वोह सम्पुर्ण तरह से यथार्थ नहि हुइ हे अभी.

धार्मिक क्रिया के समय जिव के जो परिणाम शुभ और शुध्ध कि तरफ़ बढते हे उसके कारण संक्रमण आदी होते हे और उसमे क्रिया सिर्फ़ निमित्त रुप मात्र हे यह समजना हे. फ़ल तो परिणाम कि शुध्धता से हे, अगर लौकिक प्रयोजन रुप परिणाम हे तो फ़िर तो संक्रमण भी नही होगा.

चौथी भुल:
भक्ति हि मोक्ष का कारण हे. भक्ति मे राग हे और राग तो बन्ध का कारण हे तो फ़िर भक्ति मोक्ष का मुख्य कारण केसे हो शकती हे? भक्ति मे शुभ भाव हे और मोक्ष तो शुध्ध भाव से हे , शुभ से नही. यह समज पक्की होनी चाहिये.

इसका यह मत्लब नही के भक्ति ना करे. भक्ति करने से अशुभ का राग कम होता हे और कषाय मंद होती हे, इस तरह भक्ति परोक्ष कारण हे इस लिये सर्वथा निषेध नही हे लेकिन उसि से ही संतुष्ट नही हो जाना हे. अन्य बाह्य साधन कि तरह उसका आश्रय लेना हे और अशुभ से शुभ मे आना हे और फ़िर जब शुभ से शुद्ध के तरफ़ जाने लगे तब उसे छोडना भी हे. लक्ष्य तो शुध्धोपयोग का ही हे.

ग्यानी या अग्यानी किसि का भी अनुराग बाह्य मे ज्यादा या कम दिख शकता हे लेकिन ग्यानी का श्रध्धान ठिक हे और वोह भक्ति को भी शुभ बंध का कारण जानता हे. उसका अनुराग तीव्र नही हे लेकिन यथार्थ समज के साथ हे.

अन्य बात: देव पुजा:
किसकि करेंगे: ग्यान और वैराग्य पुज्य हे...
कौन करेगा: जिस को ग्यान-वैराग्य मे सच्चा श्रध्धान हे एसा श्रध्धावान
कैसे करेंगे: गुण अनुराग ही पुजा हे
फ़ल क्यां मिलेगा: सच्चा निर्मल सुख

अन्य बात: भाव दिपिका से:
हमने पहले देखा था कि दिर्फ़ एक देव को महत्व देन,  और अन्य तिर्थंकर आदी के प्रति उत्साह न होना यह भी भुल हे और देव का सच्चा स्वरुप नही समजा. उसी तरह अरिहंत और सामान्य केवली मे बाह्य भेद होने पर भी अंतरंग सुख मे कोइ भेद नही , यह समजने की बात हे.

अन्य बात:
अगर अरिहंत में आत्म शरीर आदि अलग-अलग जाने तो खुद को भी आत्मा रुप जान शकेंगे. स्व-पर भेद विग्यान से अरिहंत को जान, खुद पर घटाने से, देव का सच्चा सवरुप प्रतिति मे आने से हमारि मिथ्या द्रष्टि दुर होगी. इस तरह देव भक्ति का सच्चा स्वरुप सम्यग द्रष्टि का कार्ण हे.

1 comment:

Vikas said...

आदि को रंजमात्र भी
आदि को रंचमात्र भी

केदेव आदी के गुण-अवगुण क्या हे
Comment: कुदेव के कुछ गुण तो है नहीं. लेकिन परीक्षा करने के लिए ऐसा देखते है की क्या कोई गुण कुदेव में है? ऐसा करने पर मालूम पड़ता है कि कुदेव में तो मात्र अवगुण ही है, एक भी गुण नहीं. तो सहज ही वह से राग -बुद्धि टूट जाती है.

Question: सांसरिक प्रयोजनार्थ धर्म करने वाला और यहाँ पुण्य की वांछा से धर्म करने वाले में क्या अंतर है, इसमे और क्या अंतर है?

अरिहंत और सामान्य केवली मे बाह्य भेद हो
तीर्थंकर और सामान्य केवली मे बाह्य भेद हो