Friday, January 15, 2010

जैन मिथ्याद्रष्टियों का विवेचन - केवल निश्चयाभास के अवलंबी जिव की प्रवृति

Class Date: 11/9/2009
Chapter: 7
Page#: 206-207
Paragraph #: 4
Recorded version:
Summary:


Que: ४ अधिकार और ७ में अधिकार के मिथ्याद्रष्टि में अंतर क्या है?
Ans: अधिकार ४ - अगृहीत मिथ्यात्व के बारे में है , अनादी काल से जो चला आ रहा है,
अधिकार ७ - जो शाश्त्र सुनकर, पढ़कर, बाते सुन कर, जो मिथ्यात्व ग्रहण किया है. इसके बारे में इस अधिकार में पढ़ा है

पांच प्रकार के मिथ्यात्व है : विपरीत, एकांत, शंशय, अज्ञान, विनय

व्यवहाराभास / निश्च्याभास - एकांत मिथ्यात्व है (एक नय का अवलंबन लेता है )




  • अगर कोई सिर्फ शुद्धात्माको जानने से ज्ञानी हो जाता है - अन्य कुछ भी नहीं करना चाहिए (करना जरुरी नहीं समजता ). ऐसा जानकर एकांत में बैठकर ध्यानमुद्रा धारण कर के सोचता है की - मै सर्व कर्मोपाधिरहित सिद्ध सामान आत्मा हु,इत्यादि विचार से संतुष्ट होता है. परन्तु यह विशेषण किस प्रकार संभव है - ऐसा विचार नहीं करता यह ज्ञानी नहीं है.



  • आत्मा कैसे सिद्ध सामान है, कोन सी अपेक्षा से यह बात है वो नहीं समजता. इस में वो गलत जगह पर यह बात लगते है.


  • मेरे में चैतन्य है और सिद्ध भगवन में भी चैतन्य है, सिद्ध भगवान का द्रव्य नित्य है - मेरा द्रव्य भी नित्य है इसलिए समानता है, यह सोचकर चैतन्य स्वाभाव संन्मुख होना है ..पर यह सोचना की में अभी सिद्ध हु यह गलत बात है.


  • द्रव्य की शुद्धता को देखकर पर्याय में शुद्धता प्रगट करनी है. पर्याय की अशुद्धता को स्वीकार करना है और उसको शुद्ध करने का लक्ष्य रखना है. हमें खुद वर्त्तमान पर्याय अशुद्ध दिखती है.


  • अगर कोई अचल, अनुपम, अखंड आदि विशेषणों से विचार करता है, (i.e में वर्त्तमान में अचल हु, में अनुपम हु, अखंड हु,)पर यह हमारे पे कैसे लगते है यह जानना जरुरी है. पर यह विशेषणों तो अन्य द्रव्यों में भी संभवित है. खुद की चीज क्या है और अन्य कारन से वो चीज मिली है यह जानना भी जरुरी है, किस ओएक्षा से संभव है यह बात जानना जरुरी है. (i.e. अरहंत भगवन के अनेक विशेषण है पर सब गुण की विशेषता अगल - अलग है. जैसे कुछ देवकृत अतिशय होते है, अनंत चतुष्टय - कर्मो के क्षय से,परमोदारिक शरीर यह सब उनके गुण है पर यह सब में अन्तर है. यह सब को एक समान जानना गलत है.)


  • अलग अलग अवस्था (सोते, बैठके, आदि )में ऐसे विचार करके अपने को ज्ञानी मानना गलत है.


  • ज्ञानी को आश्रव - बंध नहीं है. ऐसा आगम में कहा है. (ज्ञानी के अनंतानुबन्धी कषाय नहीं है, इसलिए मिथ्यात्व का उदय नहीं है, मिथ्यात्व सम्बन्धी प्रवृती का बंध नहीं है. इसलिए ज्यादा बंध नहीं होते. बाकि की कषाय से अनंतानुबन्धी जितना बंध नहीं होता इस अपेक्षा से कहा है की ज्ञानी को बंध नहीं है, दूसरी अपेक्षा आत्मा को बंध नहीं है,द्रव्य द्रष्टि से आत्मा को बंध नहीं है, चैतन्य तत्त्व को न तो बंध है न तो मुक्ति है, क्यूंकि वो एक जैसा ही रहेता है.) पर यह मानता है की में ज्ञानी हु और मुझे बंध नहीं है, इसलिए विषय - कषायरूप होकर भी बंध होने का भय नहीं है,इसलिए स्वछंद (शाश्त्र के अनुसार नहीं मानना, हित - अहित का विचार नहीं करना, अपनेको जो कार्य करना है वो करते है और धर्मं का आश्रय लेते उसको पोष लेना, यह कहेता है की धर्मं में ऐसा कहा है) हो कर रागादिक रुप प्रवर्तता है.


  • स्व - पर को जानने का चिन्ह वैराग्य भाव है. वैराग्य भाव पैदा हुआ हो तो स्व - पर को बराबर जानता है. पर को पर जानकर छोड़ देता है तो वैराग्य भाव पैदा हुआ है ऐसा मानना. सम्यक तरीके से जानता है तो राग द्वेष नहीं होते, राग - द्वेष नहीं होते तो उदासीनता होती है, उदासीनता है तो वैराग्यभाव होता है.


  • समयसार में कहा है की - सम्यग्द्रष्टि को निश्चय (निश्चित रूप ) से ज्ञान - वैराग्य शक्ति होती है, अज्ञानी को नहीं होती.


  • जब कोई खुद को सम्यगद्रष्टि मान ले, खुद को बंध नहीं होता ऐसा भी मान ले, ऐसे रागी - वैराग्यशक्ति रहित आचरण करते है, पांच समिति की सावधानी का अवलंबन लेते है (अगर मुनि भी बन जाये ), पर यह सब ज्ञान शक्ति के बिना सब पापी है. यह दोनों (निश्च्याभासी, व्यवहाराभासी) आत्मा - अनात्मा के ज्ञानरहित पने से सम्यक्त्व रहित है.


  • अगर पर को पर जान लिया है तो उसमे राग नहीं होता है, (i.e.पडोशी के बच्चे पर राग नहीं होता क्यूंकि वो अपने से पर है ) इसलिए अगर हमने पर द्रव्य को पर जान लिया है तो उसमे राग नहीं होना चाहिए...

2 comments:

Avani Mehta said...

समयसार जी के गाथा १३७ में व्यवहाराभासी निश्च्याभासी कैसे बताये है यह मुझे clear नहीं हुआ,आप फिर से बताएँगे?

Thank you!

Vikas said...

Thanks for sending the summary.

This is how 137 kalah मे व्यवहारभासी और निश्चयाभासी को ग्रहण किया है:
१. मैं स्वयं सम्यक्दृष्टि हु, ऐसा मान कर जो रागी-जन राग पूर्वक विवेक रहित आचरण में प्रवर्तते है, वे वैराग्य शक्ति से रहित है (इस प्रकार निश्चयाभासी के लिए कहा).
२. जो पांच समिति आदि में प्रवर्तन करते है, परन्तु आत्मा-ज्ञान से रहित है, वे ज्ञान शक्ति से रहित है (इस प्रकार व्यव्हाराभासी को लिया)
ध्यान दे की निश्चयाभासी के लिए वैराग्य शक्ति से रहित कहा और व्यव्हाराभासी के लिए ज्ञान शक्ति से रहित कहा.