Class Date:01/19/10
Chapter:7
Page#:226
Paragraph #:3rd
Recorded version:
Summary:
दुसरे जिव को बचाने का भाव, यहा में दुसरे जिव को बचा शकता हु, यह कर्ता बुद्धि तो मिथ्या द्रष्टि हे और जिव-अजिव तत्व संबंधी भुल हे. जब कि इस दुसरे जिव को बचाने का जो भाव हे उस भाव को सर्वथा उपादेय मानना वोह आश्रव तत्व संबंधी भुल हे. ज्यादातर लोग एसा मानते हे कि पाप कम करने से और पुण्य करते रहने से काम हो जायेगा. यहा शुभ भाव को उपादेय मानकर उसमें धर्म मान लेना और वहा ही संतुष्ट हो जाना वोह मुख्य समस्या हे. ये तो साधन मात्र हे, साध्य नही हे. यह पुण्य मे उपादेय बुद्धि संवर या निर्जरा रुप नही हे.
शुभ का राग इतना हे कि मेरा शुध्धोपयोग हुआ ही नही उस तरफ़ हमारी नजर जाती ही नही. निकले तो थे शुद्ध को पाने के लिये लेकिन अभी तक जो परिश्रम किया वो सफ़ल नहि हुआ वोह एक बार एह्सास मे आना जरुरी हे और सच्ची द्रष्टी के साथ उत्साह से आगे बढना हे.
यहा आगे कहते हे कि पाप को बुरा और पुण्य को भला जानते हे वहा भी पाप को जो बुरा माना हे वोह संयोग अपेक्षा से माना हे और सिर्फ़ प्रतिकुलता से बचने के लिये पाप को बुरा जानना वोह सच्ची द्रष्टी नही हे. पाप तो कर्म बंध का कारण हे और पाप करते समय जो आत्मा में संक्लेश परिणाम होते हे वोह आत्मा के लिये बुरे हे उस तरफ़ द्रष्टी ले जानी हे. संक्लेश परिणाम से जो प्रतिकुलता मिलति हे उस पर नजर जाती हे लेकिन उन परीणाम पर नजर जाती नही हे.
हिंसा और अहिंसा के परिणाम जो आत्मा मे होते हे उनको समान जानना एसी बात अन्य कहां कही जाती हे. यहा मान्यता कि बात हे, करना क्या हे वोह उसके बाद कि बात हे. हिंसा भी क्यो त्याज्य हे? इस लिये कि पर को दु:ख नहि देना चाहिये कि उस समय हमारी खुद की आत्मा संक्लेश रुप होकर दु:खीरुप होती हे. एसा भी नही सोचना हे कि यह तो उपर के गुणस्थान कि बात हे, यह मान्यता अगर नही बदलेगी तब तक उपर के गुणस्थान मे जा केसे सकेंगे?
दुसरे को बचाने मे में तो सिर्फ़ निमित्त मात्र हु यह थीक हे लेकिन जरुरत हे कि हम खुद को निमित्त जानकर निमित्त रुप कर्ता मान ना ले. यह भी गलत मान्यता हे. दुसरी एक बात कि हम को यह बाते खुद पर घटानी हे. यह बात कि अहिंसा के भाव भी त्याज्य हे वोह दुसरो के लिये नही हे, हमे इस पर चिंतन कर के इन भावो को भासित करने हे.
यहा स्वच्छंद भी नही होना हे, आलु के जिव को में नही मारता तो उनको खाने मे कोइ दोष नही हे, यह भी बराबर नही. आलु खाने से जो जिव कि हत्या हुई उससे तुम्हे दोष नही हे लेकिन इस आलु को भक्षण करने का जो तुम्हारा अत्याधिक राग हे, आसक्ति हे और रौद्रध्यान चल रहा हे कि ये खाने से मजा आता हे वोह तुम्हारे परिणाम हे और तुम्हारे आत्मा का परिणमन हे, वोह तुम्हारा दोष हे.
बंध निज परिणाम से हे, पर से नही. राग-द्वेश रुप परिणाम पर का आश्रय लेके होते हे, इस लिये पर के त्याग ना बोध दिया जाता हे. पर के त्यागरुप क्रिया से परिणाम सुधर शकते हे, गेरेंटी नही हे. परिणाम सुधरे तो गेरेंटी से क्रिया सुधरती हे.
किसी को होस्पिटल ले जाने का काम सम्यग द्रष्टी श्रावक करे और मुनिराज ना करे, इस प्रकार प्रव्रुत्ति मे भेद होता हे लेकिन दोनो की मान्यता मे रंजमात्र का भी फ़रक नही हे कि यह उपादेय रुप कार्य नही हे.
Chapter:7
Page#:226
Paragraph #:3rd
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Summary:
दुसरे जिव को बचाने का भाव, यहा में दुसरे जिव को बचा शकता हु, यह कर्ता बुद्धि तो मिथ्या द्रष्टि हे और जिव-अजिव तत्व संबंधी भुल हे. जब कि इस दुसरे जिव को बचाने का जो भाव हे उस भाव को सर्वथा उपादेय मानना वोह आश्रव तत्व संबंधी भुल हे. ज्यादातर लोग एसा मानते हे कि पाप कम करने से और पुण्य करते रहने से काम हो जायेगा. यहा शुभ भाव को उपादेय मानकर उसमें धर्म मान लेना और वहा ही संतुष्ट हो जाना वोह मुख्य समस्या हे. ये तो साधन मात्र हे, साध्य नही हे. यह पुण्य मे उपादेय बुद्धि संवर या निर्जरा रुप नही हे.
शुभ का राग इतना हे कि मेरा शुध्धोपयोग हुआ ही नही उस तरफ़ हमारी नजर जाती ही नही. निकले तो थे शुद्ध को पाने के लिये लेकिन अभी तक जो परिश्रम किया वो सफ़ल नहि हुआ वोह एक बार एह्सास मे आना जरुरी हे और सच्ची द्रष्टी के साथ उत्साह से आगे बढना हे.
यहा आगे कहते हे कि पाप को बुरा और पुण्य को भला जानते हे वहा भी पाप को जो बुरा माना हे वोह संयोग अपेक्षा से माना हे और सिर्फ़ प्रतिकुलता से बचने के लिये पाप को बुरा जानना वोह सच्ची द्रष्टी नही हे. पाप तो कर्म बंध का कारण हे और पाप करते समय जो आत्मा में संक्लेश परिणाम होते हे वोह आत्मा के लिये बुरे हे उस तरफ़ द्रष्टी ले जानी हे. संक्लेश परिणाम से जो प्रतिकुलता मिलति हे उस पर नजर जाती हे लेकिन उन परीणाम पर नजर जाती नही हे.
हिंसा और अहिंसा के परिणाम जो आत्मा मे होते हे उनको समान जानना एसी बात अन्य कहां कही जाती हे. यहा मान्यता कि बात हे, करना क्या हे वोह उसके बाद कि बात हे. हिंसा भी क्यो त्याज्य हे? इस लिये कि पर को दु:ख नहि देना चाहिये कि उस समय हमारी खुद की आत्मा संक्लेश रुप होकर दु:खीरुप होती हे. एसा भी नही सोचना हे कि यह तो उपर के गुणस्थान कि बात हे, यह मान्यता अगर नही बदलेगी तब तक उपर के गुणस्थान मे जा केसे सकेंगे?
दुसरे को बचाने मे में तो सिर्फ़ निमित्त मात्र हु यह थीक हे लेकिन जरुरत हे कि हम खुद को निमित्त जानकर निमित्त रुप कर्ता मान ना ले. यह भी गलत मान्यता हे. दुसरी एक बात कि हम को यह बाते खुद पर घटानी हे. यह बात कि अहिंसा के भाव भी त्याज्य हे वोह दुसरो के लिये नही हे, हमे इस पर चिंतन कर के इन भावो को भासित करने हे.
यहा स्वच्छंद भी नही होना हे, आलु के जिव को में नही मारता तो उनको खाने मे कोइ दोष नही हे, यह भी बराबर नही. आलु खाने से जो जिव कि हत्या हुई उससे तुम्हे दोष नही हे लेकिन इस आलु को भक्षण करने का जो तुम्हारा अत्याधिक राग हे, आसक्ति हे और रौद्रध्यान चल रहा हे कि ये खाने से मजा आता हे वोह तुम्हारे परिणाम हे और तुम्हारे आत्मा का परिणमन हे, वोह तुम्हारा दोष हे.
बंध निज परिणाम से हे, पर से नही. राग-द्वेश रुप परिणाम पर का आश्रय लेके होते हे, इस लिये पर के त्याग ना बोध दिया जाता हे. पर के त्यागरुप क्रिया से परिणाम सुधर शकते हे, गेरेंटी नही हे. परिणाम सुधरे तो गेरेंटी से क्रिया सुधरती हे.
किसी को होस्पिटल ले जाने का काम सम्यग द्रष्टी श्रावक करे और मुनिराज ना करे, इस प्रकार प्रव्रुत्ति मे भेद होता हे लेकिन दोनो की मान्यता मे रंजमात्र का भी फ़रक नही हे कि यह उपादेय रुप कार्य नही हे.
"Even This Moment Will Change."
"I am not the body. The body is not mine."
"Shivmastu Sarva Jagatah" - May the entire Universe attain Bliss.
"I am not the body. The body is not mine."
"Shivmastu Sarva Jagatah" - May the entire Universe attain Bliss.
1 comment:
Excellent post. पूरा blog पढ़ने और सोचने लायक है. पुनः पढ़े .
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