Class Date:01/12/10
Chapter:7
Page#:225
Paragraph #: 1st para
Recorded version:
Summary:
इस से पहेले हमने देखा कि हमे प्रतिकुलता मे भेद विग्य़ान करना हे, कर्ताभाव छोडना हे एसा याद आता हे लेकिन फ़िर से अनुकुलता आते हि हम भुल जाते हे कि हम रोग ग्रस्त हे, इस तरह भेद विग्यान को सही मे तो हम ग्रहण ही नही करते.
व्रत, नियम, आदि लेना तो हे लेकिन उससे पहेले य उसके साथ भेद विग्यान करना हे और इस भेद विग्यान रुप भाव को भासित करते हुए उसे चारित्र मे लाना हे, यह काम बिना कोइ पर कि सहायता से हो शकता हे.
ग्यान भी रटने रुप आया हे और भाव भासन रुप नही आया, यहा ग्यान को गौण करने कि बात नही हे. "जीव जुदा - पुदगल जुदा" यह एक वचन को जानकर सिर्फ़ उससे तुम्हे भाव भासित हो जाये तो वोह थीक हे या उसके विस्तार को जानकर तुम भाव भासित करो, दोनो मे प्रयोजन तो एक हि हे कि भाव भासित करना हे. हमारी उत्साह कि कमी को मुख्यता से दूर करनी हे.
शिवभुति मुनि शब्दो का ग्यान नही था लेकिन उन्होने शब्दो से ज्यादा ध्यान शरिर-आत्मा के भेद पर दिया तो केवली हुये. यहा पढाइ के पिछे सिर्फ़ प्रोफ़ेसर या टीचर की तरह "educational language or history related research" का नही हे. हम धार्मिक प्रयोजन से पढते हे, मोक्ष और धर्म कि रुची भी हे, फ़िर भी हित-अहित का विवेक द्रढ हो नहि पाता, स्व-पर के भेद विग्यान पर द्रष्टि नही जाती, जो करने का प्रयोजन था वोह ही नही हो पाता, यह केसी विचित्रता हे, और कितने दुख कि बात हे. यह एक गंभीर समस्या हे और इस पर विचार करने कि जरुरत हे कि क्यो एसी भुल रह जाती हे.
अब जीव-अजीव तत्व का अन्यथारुप :
हम जीव के अलग-अलग भेद जानते हे, पुदगल के भेद जानते हे. यहा हम यह ग्यान शास्त्र के माध्यम से हि जानते हे और याद भी रखते हे लेकिन यह भेद जानकर भेद विग्यान किया कि नहि? जो जिव के भेद जाने, उस भेद्रुप मे खुद जिव हु, और पुदगल रुप में नही हु एसा खुद पर घटाया ही नहि.
द्रव्यानुयोग मे जो अध्यात्म शास्त्र हे वोह निश्चय - व्यवहार शैली से आत्मा कि रुचि कराने के प्रयोजन से आत्मा कि बात मुख्यता करते हे. और आगम शास्त्र वस्तु व्यवस्था का निरुपण करने के साथ जिव कि बात मुख्यता करते हे. यहा जिव यानी समस्त जिव, समग्र जिव जाती, जिव यानी पर्याय रुप भावरुप जिव, जब कि आत्मा यानी में, खुद की बात हे, आत्मा यानी त्रिकाली ध्रुव शुध्ध आत्मा.
पहली समस्या यह हे कि अध्यात्म शास्त्र पढते हि नहि, निश्चय कि बात हे इसलिये नही पढना, या श्रावक अवश्था मे व्यवहार की मुख्यता हे तो निश्चय कि जरुरत ही नही एसा मानते हे. दुसरी समस्या यह हे कि पढ तो लिया और अच्छी तरह से द्रढ श्रध्धान भी कर दीया के त्रस - स्थावर जिव क्या होता हे लेकिन में त्रस - स्थावर रुप हु कि नही या में इन पर्याय से उपर उठ्कर भी कुछ हु एसा तो सोचा ही नहि.
राग-द्वेश रुप परिणमन भी मेरा और ग्यान रुप परिणमन भी मेरा एसी जो मिश्रित मान्यता थी उस पर यह ग्यान लगाना था और मान्यता बदल जाये एसा पुरुशार्थ करना था. एक कार्य होने मे मेरा हिस्सा कितना और दुसरे का, पुदगल का हिस्सा कितना वोह सोचना हे, पर का अंश खुद मे मिलाकर हम मे कर्ताभाव कि बुध्धी हंमेशा चलती रहती हे.
हमने चोथे प्रकरण मे देखा था कि अग्रहित मि. द्रष्टी को कोइ निर्धार बिना सिर्फ़ पर्याय बुध्धी से जानपने मे, शरीर मे, राग-द्वेश मे सब मे अहंबुध्धी होती हे. यहा ग्रहित मि. द्रष्टी भी आत्माश्रित ग्यान मे और शरिराश्रित क्रिया मे अपन्त्व ( मम्त्व , कर्तुत्व , भोक्तुत्व ) कि बुध्धी रखता हे. अग्रहित मिथ्यात्वि शुभ-अशुभ दोनो को मेरे रुप जानता था, यहा ग्रहित मिथ्यत्वि सिर्फ़ शुभ को मेरी क्रिया एसा जानता हे और अशुभ को तो बुरि जानकर छोडना चाहता हे.
मुख्य बात यह हे कि भोजन ले या ना ले, आसक्ति से भोजन करे या उपवास करे यह शरीर की क्रिया हे, भोजन का एक दाना भी आत्मा मे नही जाता. शास्त्र पढकर भी भुल रह जाती हे.
Chapter:7
Page#:225
Paragraph #: 1st para
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Summary:
इस से पहेले हमने देखा कि हमे प्रतिकुलता मे भेद विग्य़ान करना हे, कर्ताभाव छोडना हे एसा याद आता हे लेकिन फ़िर से अनुकुलता आते हि हम भुल जाते हे कि हम रोग ग्रस्त हे, इस तरह भेद विग्यान को सही मे तो हम ग्रहण ही नही करते.
व्रत, नियम, आदि लेना तो हे लेकिन उससे पहेले य उसके साथ भेद विग्यान करना हे और इस भेद विग्यान रुप भाव को भासित करते हुए उसे चारित्र मे लाना हे, यह काम बिना कोइ पर कि सहायता से हो शकता हे.
ग्यान भी रटने रुप आया हे और भाव भासन रुप नही आया, यहा ग्यान को गौण करने कि बात नही हे. "जीव जुदा - पुदगल जुदा" यह एक वचन को जानकर सिर्फ़ उससे तुम्हे भाव भासित हो जाये तो वोह थीक हे या उसके विस्तार को जानकर तुम भाव भासित करो, दोनो मे प्रयोजन तो एक हि हे कि भाव भासित करना हे. हमारी उत्साह कि कमी को मुख्यता से दूर करनी हे.
शिवभुति मुनि शब्दो का ग्यान नही था लेकिन उन्होने शब्दो से ज्यादा ध्यान शरिर-आत्मा के भेद पर दिया तो केवली हुये. यहा पढाइ के पिछे सिर्फ़ प्रोफ़ेसर या टीचर की तरह "educational language or history related research" का नही हे. हम धार्मिक प्रयोजन से पढते हे, मोक्ष और धर्म कि रुची भी हे, फ़िर भी हित-अहित का विवेक द्रढ हो नहि पाता, स्व-पर के भेद विग्यान पर द्रष्टि नही जाती, जो करने का प्रयोजन था वोह ही नही हो पाता, यह केसी विचित्रता हे, और कितने दुख कि बात हे. यह एक गंभीर समस्या हे और इस पर विचार करने कि जरुरत हे कि क्यो एसी भुल रह जाती हे.
अब जीव-अजीव तत्व का अन्यथारुप :
हम जीव के अलग-अलग भेद जानते हे, पुदगल के भेद जानते हे. यहा हम यह ग्यान शास्त्र के माध्यम से हि जानते हे और याद भी रखते हे लेकिन यह भेद जानकर भेद विग्यान किया कि नहि? जो जिव के भेद जाने, उस भेद्रुप मे खुद जिव हु, और पुदगल रुप में नही हु एसा खुद पर घटाया ही नहि.
द्रव्यानुयोग मे जो अध्यात्म शास्त्र हे वोह निश्चय - व्यवहार शैली से आत्मा कि रुचि कराने के प्रयोजन से आत्मा कि बात मुख्यता करते हे. और आगम शास्त्र वस्तु व्यवस्था का निरुपण करने के साथ जिव कि बात मुख्यता करते हे. यहा जिव यानी समस्त जिव, समग्र जिव जाती, जिव यानी पर्याय रुप भावरुप जिव, जब कि आत्मा यानी में, खुद की बात हे, आत्मा यानी त्रिकाली ध्रुव शुध्ध आत्मा.
पहली समस्या यह हे कि अध्यात्म शास्त्र पढते हि नहि, निश्चय कि बात हे इसलिये नही पढना, या श्रावक अवश्था मे व्यवहार की मुख्यता हे तो निश्चय कि जरुरत ही नही एसा मानते हे. दुसरी समस्या यह हे कि पढ तो लिया और अच्छी तरह से द्रढ श्रध्धान भी कर दीया के त्रस - स्थावर जिव क्या होता हे लेकिन में त्रस - स्थावर रुप हु कि नही या में इन पर्याय से उपर उठ्कर भी कुछ हु एसा तो सोचा ही नहि.
राग-द्वेश रुप परिणमन भी मेरा और ग्यान रुप परिणमन भी मेरा एसी जो मिश्रित मान्यता थी उस पर यह ग्यान लगाना था और मान्यता बदल जाये एसा पुरुशार्थ करना था. एक कार्य होने मे मेरा हिस्सा कितना और दुसरे का, पुदगल का हिस्सा कितना वोह सोचना हे, पर का अंश खुद मे मिलाकर हम मे कर्ताभाव कि बुध्धी हंमेशा चलती रहती हे.
हमने चोथे प्रकरण मे देखा था कि अग्रहित मि. द्रष्टी को कोइ निर्धार बिना सिर्फ़ पर्याय बुध्धी से जानपने मे, शरीर मे, राग-द्वेश मे सब मे अहंबुध्धी होती हे. यहा ग्रहित मि. द्रष्टी भी आत्माश्रित ग्यान मे और शरिराश्रित क्रिया मे अपन्त्व ( मम्त्व , कर्तुत्व , भोक्तुत्व ) कि बुध्धी रखता हे. अग्रहित मिथ्यात्वि शुभ-अशुभ दोनो को मेरे रुप जानता था, यहा ग्रहित मिथ्यत्वि सिर्फ़ शुभ को मेरी क्रिया एसा जानता हे और अशुभ को तो बुरि जानकर छोडना चाहता हे.
मुख्य बात यह हे कि भोजन ले या ना ले, आसक्ति से भोजन करे या उपवास करे यह शरीर की क्रिया हे, भोजन का एक दाना भी आत्मा मे नही जाता. शास्त्र पढकर भी भुल रह जाती हे.
1 comment:
भेद-विज्ञान की मुख्यता से अच्ची बात कही है. जो अपनी भूल रहा जाती है, उसे निकालने का पुरुषार्थ करे. शास्त्र पढ़ने के बाद भी भेद-विज्ञान कैसे नहीं होता यह जाने.
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