Tuesday, September 15, 2009

निश्चयाभासी मिथ्याद्रष्टि

Class Date: 15 September, 2009
Chapter: 7
Page#: 199
Paragraph #: 1
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Summary:

निश्चयाभासी भूल जैन शास्त्र पढ़कर भी होती है, मुख्यत्वे व्यवहाराभासी भूल सबकी दिखाई देती है, कभी कभी उभयाभासी भूल भी देखने में आती है. यह सब भूल ख़राब है, मिथ्या है. इसलिये उसको जानना जरुरी है. कोई ने कोई भूल तो हमेसा चलती रहेती है. कभी निश्च्याभासी भूल चल रही होती है या तो काची व्यवहाराभासी भूल चलती रहेती है. यह आभास हमेसा पाया जाता है जबतक सम्यक्त्व नहीं होता.


दो प्रकार के जिव होते है. कोई दुसरे का जीवन देखता है कोई अन्तरंग देखता है.

कोई ज्ञानी के जीवन को देखता है,व्रत- पूजा करना चाहिए, रत्रिभोजन नहीं करना चाहिए, आदि कार्यो मोक्ष रूप है ,वो कार्यो करके उसको लगता है की उसको लगता है की में मोक्ष का मार्ग साध रहा हु.

दूसरा जिव ज्ञानी के अंतरंग को जानकर उसके जैसा भाव करता है, (e.g.में सिद्ध सामान हु ऐसा सोचता है) और मनाता है की मेरा ऐसा सोचने से मेंरा मोक्ष मार्ग सध रहा है. मुझे यही करना है.

परन्तु दोनों ही सम्यक रूप से उसे नहीं जानते. जब अंतरंग वाला सोचता है तब वो बहिरंग साधन को धर्मं नहीं मानते. वो मन लेता है की धर्मं तो स्वरुप में लीन होना, स्वरुप का चिंतन करना है. यह भूल आचरण सम्बन्धी नहीं है, यह अभिप्राय की भूल है. किसी के क्रिया से भूल नहीं कहते है पर उसके मनमे क्या अभिप्राय है उसके ऊपर से उसकी व्यवहाराभासी या निश्चयाभासी भूल है यह पता चलता है. यह भूल शाश्त्र पढने से भी नहीं होती, पर लोगो की मान्यता है की समयसार पढने वाला निश्च्याभासी या व्यव्हार के शास्त्र पढने वाला व्यव्हाराभासी है.

कोई भी वस्तु भेदाभेदात्मक है, उसके पर्याय से अनेक भेद होते है और एक पिंड रूप एक वस्तु भी होती है. आत्मा भी एक पिंड रूप अभेद है, और आत्मा में भी गुण - पर्याय का भेद है. उसके अनेक अलग - अलग गुण है और गुणों से मिलकर अखंड आत्मा बनता है.

Que: अभव्य जिव में शुद्ध / अशुद्ध पर्याय कैसे होती है ?
Ans: हर गुण अशुद्ध नहीं है, काफी सारे गुण शुद्ध ही होते है. अगुरुलघुत्व गुण के निमित्त से षट-गुणी हानि वृद्धि होती है, जो की शुद्ध परिणमन है.( अविभाग प्रतिछेदो का कम - ज्यादा होना शुद्ध पर्याय है ) शुद्ध पर्याय होने की शक्ति अपेक्षा - उनमे भी केवलज्ञानावरण का उदय है, यह बात अलग है की उनको केवलज्ञान होता नहीं है.

कोई जिव अपने आत्मा के शुद्ध अनुभवन के चिंतवन को ही मोक्षमार्ग जानकर संतुष्ट होता है - ऐसे मानाने वाले को पंडित जी प्रश्न करते है की यदि द्रव्य द्रष्टि से चिंतवन करते है तो द्रव्य तो शुद्ध - अशुद्ध पर्यायो का समुदाय है,( द्रव्य - गुणों की समस्त पर्यायो का समूह. ) तो शुद्ध ही अनुभव कैसे करते हो? वर्त्तमान पर्याय तो अशुद्ध ही दिखती है तो शुद्ध अनुभव कैसे करते हो ? और आगे सवाल करते है की शक्ति अपेक्षा मानते हो तो यह कहो की में सिद्ध होने योग्य हु, पर ऐसा मत कहो की में सिद्ध हु. इसलिए अपने को सिद्धारूप मानना भ्रम है.

क्यूंकि अगर तुम अपने को सिद्ध सामान मानते हो तो यह संसार अवस्था किसकी है ? अगर तुम्हे केवलज्ञान है तो यह मतिज्ञान किसके है? परमानन्दमय हो तो अब कर्त्तव्य क्या बाकि रहा? इसलिए अन्य अवस्था में अन्य अवस्था मानना (संसार अवस्था में सिद्ध अवस्था मानना ) भ्रम है.

Que: शास्त्र में शुद्ध चिंतवन का उपदेश कैसे दिया है?
Ans: द्रव्य अपेक्षा शुद्ध पना - परद्रव्य से भिन्न पना और अपने भावो से अभिन्न पना का नाम शुद्धता है. मेरे भावो के सिवाय जो भी भाव है वो मुझसे पर है.


  • बाह्य पदार्थ - घर, स्त्री, पुत्र आदि मेरे से भिन्न है

  • शरीर - शरीर पुदगल का है वो मेरे से भिन्न है

  • रागादिक परिणाम मेरे से भिन्न है क्यूंकि यह स्वाभाव भाव नहीं है, यह दूर करने योग्य है.

  • में दर्शनमय हु, में चरित्रमय हु, में चैतन्यमय हु, यह सब भावो को भी छोड़कर, पर्याय को गौण करके मै चैतन्य - चैतन्य ऐसे परिणामिक भावरूप मेरा स्वरुप है, इस में लीनता करना वो स्वाभाव से अभिन्न पना है. ( पर्याय के भेद को भी गौण करना है.)

पर्याय अपेक्षा शुद्ध पना - औपधिकभावो का आभाव होना शुद्ध पना है .कर्म के उदय से जो भाव होते है वो औपाधिक भाव होते है, जैसे वो भाव कम होते है उतनी शुद्धता बढाती जाती है.(इसमे यहा पर दर्शन - चारित्र मोह के उदय से होने वाली भाव ग्रहण करना. उनके अभाव होने पर पर्याय मे शुद्धता प्रकट होती है.)

द्रव्य शुद्ध है उसमे खराबी मिली हुई है, वो खराबी को अलग करके पर्याय शुद्ध करने के बाद द्रव्य की शुद्धता और मूल द्रव्य एक ही है. पर्याय की शुद्धि, द्रव्य को देखकर होती है. पर्याय द्रव्य का सहारा ले के शुद्ध होती है, द्रव्य त्रिकाल शुद्ध ही होता है. पर्याय में अशुद्धि होती है पर पर्याय की शुद्धि द्रव्य को देखकर होती है.

2 comments:

Vikas said...

This topic is one of the difficult topics in the Nishchayabhasi Prakaran. I think it's nicely summarized.

अगुरु - लघु शतगुण हानी सदाकल शुद्ध है
Correction: अगुरुलघुत्व गुण के निमित्त से षट-गुणी हानि वृद्धि होती है, जो की शुद्ध परिणमन है.

बाह्य कर्म के उदय से जो भाव होते है वो औपाधिक भाव होते है
Correction: कर्मो के बाह्य-अंतरंग भेद नहीं है. औपाधिक भाव अर्थात कर्मो के उदय के निमित्त से होने वाले भाव. इसमे यहा पर दर्शन - चारित्र मोह के उदय से होने वाली भाव ग्रहण करना. उनके अभाव होने पर पर्याय मे शुद्धता प्रकट होती है.


विचारने योग्य बात:
पर्याय द्रव्य का सहारा ले के शुद्ध होती है, द्रव्य त्रिकाल शुद्ध ही होता है. पर्याय में अशुद्धि होती है पर पर्याय की शुद्धि द्रव्य को देखकर होती है.

तथा ये भी देखे की द्रव्य और पर्याय अपेक्षा शुद्धता किसे कहते है.
एक बात और भी है कि द्रव्य शुद्धता के विवेचन मे जो भेद किया है - वो क्रमश: है. अर्थात पहले बाह्य पदार्थों से भिन्नता स्पष्ट होनी चाहिए, फिर शरीर से भिन्नता की बात है, फिर आगे आगे की भिन्नता की बात है. कोई सीधे ही द्रव्य-गुण पर्याय के भेद को गौण करना चाहे तो ठीक परिणाम नहीं होंगे.

Avani Mehta said...

Thanks for correcting...I have updated the corrections.