Wednesday, September 16, 2009

Nishyabhasi mithayadrasti - Paryay ki apeksha ko dravya me lagana

Class Date: 09/16/2009
Chapter: 7
Page#:199
Paragraph #: nishcyabhasi
Recorded version:
Summary:http://cid-52d749a4f28f4c05.skydrive.live.com/self.aspx/Public/MMP%20class/Chapter%207/09-16-2009%5E_Chap7%5E_Nishchayabhasi11.WMA

Some discussion out of the book
द्रव्य = सर्व(त्रिकाल) पर्यायो के समूह को द्रव्य कहते है.
- इसमें ये जानना ज़रूरी है की सभी पर्याय जो बदल रही है वो द्रव्य की अपनी है में उसका कर्ता नहीं हु ये तो उसका स्वभाव है, जिससे जीव का कर्तापना दूर होता है.

समयसारजी के अनुसार "स्वातंत्रय करे उसे कर्ता कहते है", सहजरूप से जो हो सिर्फ उसीके हम कर्ता है, इसलिए इच्छा से जो कार्य करे उसके भी हम कर्ता नहीं है, क्योकि इच्छा के भी हम आधीन हो गये.
"हम सिर्फ प्रतिसमय होनेवाले ज्ञान के कर्ता है", बिना इच्छा के देखने जानने के कर्ता हो, कर्ता-कर्म सम्बन्ध परमार्थ: दो द्रव्य में नही लगता, वह व्यव्हार से बताया है. जो ज्ञाता स्वाभाव है उसी का सिर्फ कर्ता है
Jiv /Gyata




Krodh /maan Person X

इसमें जिव सिर्फ ज्ञाता है, की person X ने क्रोध किया/ मान किया/ उसका प्रतिक्रमण किया, वह सिर्फ ज्ञात भावः से देखनेवाला है. वह कर्ता नहीं है.
इसलिए जिव मात्र ज्ञाता है, और अज्ञान अवस्था में विकल्प(शुभ-अशुभ भावः) मात्र का कर्ता है.
example: कुम्हार घडा बनाता है तो उस पूरी process में कुम्हार मात्र घडा बनाने के विकल्प मात्र का कर्ता है, तो इसलिए वह कर्ता है, पर जो मिटटी में से घडा बना तो उसका कर्ता कुम्हार नहीं है.

This is a step by step process, at the
First stage: jiv shub-ashubh bav(rag-dvesh) bhav ka karta hai.
Secont stage: jiv suddh bhav kakarta hai

इसलिए जिव सिर्फ सुभ-अशुभ-सुद्ध विकल्प मात्र का कर्ता है इसको छोड़ कर किसीका नहीं.
Now in continuation to book..

Example: एक दोस्त को बीमारी में से बचने के लिए आप कितने व्याकुल होते हो, वो बच जाये उस बीमारी मेसे, वैसे ही अगर जिव सभी चीजों का कर्ता बना तो कितना व्याकुल हो जायेगा? और संपूर्ण दुखी ही रहेगा. इसलिए कहा है जिव परद्रव्य का कर्ता नहीं है.
- एक ज्ञानी स्वाभाव से खुद को शुद्ध आत्मा मानता है पर पर्याय अपेक्षा से नहीं, वहा निश्च्याभासी खुद को पर्यायरूप से भी शुद्ध मानता लेता है, एक अपेक्षा की बात दूसरी अपेक्षा में लगता है.
- यहाँ ज्ञानी कहे की में शुद्ध आत्मा हु वह अनुभवसिद्ध स्वाभाव से कही हुई बात है, वहा अज्ञानी कहे की में शुद्ध हु वह ये पर्याय में लगाकर मानता है की में शुद्ध आत्मा हु और कोई प्रयत्न नहीं कर्ता और मिथ्याद्रशती बनता है.
Example: एक डॉक्टर की पढाई कर्ता है तो उसे भी डॉक्टर कहते है, और दूसरा चार साल से प्रक्टिस कर रहा है उसे भी डॉक्टर कहते है, पर दोनों डॉक्टर में फरक है, अब जो पढाई कर रहा है वह आपने आप को डॉक्टर समज कर practice शुरू केर दे, तो वह ठीक नहीं है, इसी तरह अज्ञानी अपने आप को शुद्ध मानने लगे तो मिथ्यद्रष्टि कहा जायेगा.

Que: द्रव्य द्रष्टि से सुद्ध्पना किसे कहते है?
Ans: द्रव्य अपेक्षा से जिव अपने भावो से अभिन्न है और पर भावो से भिन्न है.
- पर भावो से भिन्नता तीन अपेक्षा से है.
१) बाह्य पदार्ध जो दीखते है वह भिन्न है.
२) शरीर भी मेरे से भिन्न है.
३) रागादी भावः जो विभावरूप है और ज्ञान, दर्शन, चरित्र, वीर्य, मतिज्ञान, श्रुत्ज्ञान, वगेरा एक एक गुण की द्रष्टि से भी में भिन्न हु, और
एक इस सभी गुणों का पिंड स्वरुप में हु(शुद्धता की द्रष्टि से कहा है - वहा individual गुण को शिर्फ़ गौण किया है) गुणों का निषेध नहीं किया है.

Que: पर्याय अपक्षा से सुद्धपना किसे कहते है?
Ans: औपदिक भावो का आभाव होना ये पर्याय अपेक्षा से सुद्धपना है, जैसे जैसे अशुद्धता दूर होती जायेगी शुद्धता प्रगत होती जायेगी.

Conclusion: इसलिए करने योग्य चिंतवन यही है, की परभाव से भिन्न रहकर सिर्फ ज्ञाता-द्रष्टा बनकर जानने का कार्य करना है. जैसे खाना खाते समय उसमे आशक्ति न करके उस भावः को परभाव मान कर सिर्फ ज्ञाता बन कर अगर खाना खाए तो राग नहीं होगा, और किसी के प्रति अरुचि हो तो उस भावः को भी परभाव माने तो उसके प्रति द्वेष नहीं होगा, ज्ञानी सिर्फ परभाव और स्वाभाव को जन कर उसमे भेद करने का पुरुषार्थ करता है, और परभावो से भिन्न रहने का कार्य करता है.

1 comment:

Vikas said...

Very good summary to read. Giving conclusion at the end is good practice.

Couple corrections:
सभी पर्याय जो बदल रही है वो द्रव्य की अपनी है में उसका कर्ता नहीं हु ये तो उसका स्वभाव है, जिससे जीव का कर्तापना दूर होता है.
Correction: जो अन्य द्रव्यों की पर्याय है, उसका कोई ओर अन्य द्रव्य कर्ता नहीं है, क्योंकि वो पर्याय (अवस्थाए) उस द्रव्य की अपनी है. लेकिन जो द्रव्य की स्वयं की पर्याय है, उसका कर्ता तो वह द्रव्य स्वयं ही है.
द्रव्य उस परिणति का कर्ता है - इसका अर्थ उस द्रव्य की इच्छा से वह होती है, ऐसा भी नहीं समझना.

कर्ता-कर्म सम्बन्ध परमार्थ: दो द्रव्य में नही लगता, वह व्यव्हार से बताया है
Correction: कर्ता कर्म संबंध दो द्रव्यों मे कहना व्यवहार है, और एक ही द्रव्य मे कहना निश्चय है.