Tuesday, May 5, 2009

May 4, 2009

Class Date: 05/04/2009
Chapter: 4
Page#: 88-90
Paragraph #: last
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पुनःआवृत्ति –
प्र० मोक्ष मार्ग प्रकाशक कौन हैं ?
उ० तीर्थंकर, पंच परमेष्ठी, जिनागम, जिनालय – धर्म के सभी आयतन
प्र० अभी तक हमने क्या पढ़ा ?
उ० पहले जीवों के कर्म बंध को तथा उनके कारण जीवों की सांसारिक अवस्था को समझा, पुनः कर्मों, पर्यायों और इच्छाओं की अपेक्षा से संसार के दुःखों को तथा मोक्ष के सुखों को समझा, पुनः प्रयोजनभूत तथा अप्रयोजनभूत तत्वों के अंतर के महत्व को समझा, पुनः संसार के दुःखों के मूल कारण मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के स्वरूप को समझा.
प्र० मिथ्याज्ञान किसे कहते हैं ?
उ० प्रयोजनभूत तत्वों के अयथार्थ जानने को मिथ्याज्ञान कहते हैं.
प्र० मिथ्याचारित्र किसे कहते हैं ?
उ० मिथ्यादर्शन सहित चारित्रमोह के उदय से कषाय भावों को मिथ्याचारित्र कहते हैं. नोट- सम्यग्दृष्टि के कषाय भाव यद्यपि सम्यक् चारित्र नहीं हैं किन्तु मिथ्याचारित्र भी नहीं हैं – उन को अविरति, असंयम अथवा प्रमाद की संज्ञा दी जाती है.

Summary:
मिथ्या मान्यता सहित राग-द्वेष परिणमन मिथ्याचारित्र है. कर्मों की अपेक्षा से तो मिथ्याचारित्र मोहनीय कर्म के उदय से होता है परन्तु स्व की अपेक्षा से यह पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट भाव कर के, स्वयं को कर्त्ता-धर्ता मान कर वस्तु का सद्भाव-अभाव करने के प्रवृत्ति से होता है. (भावों की मुख्यता से देखो तो उन में कर्मों का उदय गर्भित है और कर्मों की मुख्यता से देखो तो उनके उदय में ये परिणाम गर्भित हैं.) स्वयं के करने से किन्तु सद्भाव-अभाव नहीं होता है. सभी पदार्थ निज स्वभाव से ही परिणमित होते हैं. अपने अज्ञान से हमे कर्त्ता-धर्ता होने का आभास लगता है. यदि वस्तु का परिणमन इच्छा के अनुकूल हो तो लगता है कि कार्य को हमने किया. अगर ऐसा हो तो हर कार्य हमारी इच्छा के अनुसार ही होना चाहिये लकिन ऐसा तो होता नहीं है. कषायभाव से कार्य सिद्ध नहीं होता. अतः कषायों की प्रवृत्ति को मिथ्याचारित्र कहते हैं. कषायभाव सदा ही दुःखदायी होते हैं. ज्ञानीयों का पुरूषार्थ कषाय मिटाने का ही होता है.
कषायभाव पदार्थों को इष्ट-अनिष्ट की मान्यता से होता है. सभी पदार्थ अपने स्वभाव के ही कर्त्ता होते हैं, उनमें किसी का उपकार-अनुपकार करने की क्षमता नहीं है किन्तु यह जीव उन्हें उपकारी (इष्ट) अथवा अनुपकारी (अनिष्ट) मानता है. एक ही पदार्थ किसी को इष्ट लगता है और किसी को अनिष्ट लगता है. एक ही जीव को एक ही पदार्थ किसी काल मे इष्ट लगता है और किसी काल मे अनिष्ट लगता है. एक ही पदार्थ किसी काल मे कम इष्ट/अनिष्ट लगता है और किसी काल मे अधिक इष्ट/अनिष्ट लगता है. यदि इष्ट-अनिष्टपना पदार्थ का ही गुण होता तो वह सदा काल मे सभी को समान रूप से ही इष्ट-अनिष्ट लगता. अतः पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट की मान्यता मिथ्या है.
पदार्थों में सुख (इष्टपना) या दुःख (अनिष्टपना) का आभास तो पुण्योदय या पापोदय से होता है. यहाँ ये समझना आवश्यक है कि पुण्य-पाप कर्म केवल निमित्त ही होते हैं और जीव के भावों का वास्तविक उपादान कारण तो स्वयं जीव ही है. जहाँ तीव्र कषायों का उदय हो वहाँ भावों का परिणमन कर्मों की प्रबलता के कारण कर्मधारा के अनुसार होता है (जैसे कि एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों मे). जहां मंद कषायो का उदय भी हो, लेकिन उसमे भेदज्ञान का / राग-द्वेष मिटाने का पुरुषार्थ ना करे, तो वह कर्मधारा रूप ही भाव चला करता है.

1 comment:

Alok Jain said...

Very well summarized..Jeev keval swayam ka karta hai..keval apne bhawon ka karta hai..par dravya ke tinke matra ko bhi parinamit nahi kara sakta..bahya samagri aur saiyong to purva ke poonya ur paap karm ke uday ke anusaar milte hain..
Hume sangyi panchindriya shareer mila hai..jiski burlabhta ki vyakhya nahi ki ja sakti..humara purusharth nirantar bhed gyan ki aur hona chahiye..samyagdarshan prapta karne ki aur hona chahiye…
Saatve narak ka jeev aur sangyi panchindriya tiriyanch bhi samyakdarshan prapt kar sakte hain ..fir hum kyun nahi?? Are’nt we far better than them?? Agar ab ye avsar miss kiya toh anant sansar mein rulna padega!!!