Class Date: 05/19/2009
Chapter: 4
Page#: 94
Paragraph #: 1st
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Summary:
मोहकी महिमा इन continuation ओफ previous 3 points..
- शरीरकी अलग अलग अवस्था ( example : बीमारी, रोग का दूर होना, वृधावस्ता आदि) और बाह्य सामग्री ( धन, पत्नी, पुत्र, relatives etc.) अपने आप उत्पान होते है और नस्त होते है, लेकिन जिव उसमे मोह के वश होकर कर्ता बनता है की मैंने medicines ली और में ठीक हो गया. लेकिन कोई चीज़ उसके आधीन नहीं है वह अपने से ही परिनमित होती है, ऐसा नहीं समजता. - जो जिव उत्पान हुवा है उसका मरण निश्चित है, यह जानने पर भी पर्याय सम्बन्धी पुरुषार्थ करता है, और इस जन्म के दुःख दूर करने के ही प्रयत्न करता है, और भविष्य के दुःख पर द्रष्टि नहीं करता. मोह के वश मरण का निश्चय होने पैर भी मानता है की मेरे नाम के कारन, पुत्र-वंश के कारन मै जीवित ही रहूँगा. -परलोक का प्रत्यक्ष निश्चय होने पर भी, मोह के वश धन-पुत्र-लौकिक सामग्री के पालन पोषण में ही समय व्यतीत करता है. मोह के वश होने पर, यह श्रधान नहीं कर पाता की सिवाय तेजस और कर्मान शरीर के कुछ साथ नहीं आएगा.
- कषाय के परिणाम से हिंसा आदि कार्य करता है, दुसरो का शत्रु बनता है, स्वयं दुखी होता है, लोक में निंदा के पात्र बनता है फिरभी मोह के वष, प्रत्यक्ष वस्तु दिखने पर भी विपरीत श्रधान करता है और विपरीत आचरण करता है.
मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान-मिथ्यचरित्ररूप भावः ही मूल में दुःख के और कर्मबांध के कारन है. क्रिया से ज्यादा भावकी मह्ता है, और गलत क्रिया के लिए तो प्रायश्रित करते है पर अनेक जन्मो से चल रहे विपरीत भावः के लिये कोई प्रायश्चित नही करते, मूल में तो भावः ही दुःख या सुख कारन है, क्रिया नहीं. इसलिए जो बदलने की ज़रूरत है वह जिव की विचारधारा या भावः को
आचार्य श्री jaysenji के अनुसार " यह परम सुख स्वभावी आत्मा ही उपादय है वही समयक्त्व की रूचि है" यही भावः सुखरूप है, और इससे विपरीत भावः दुखरूप है, क्रिया को ठीक करने से ज्यादा भावः का सही परिणमन आवश्यक है. इसलिए आचार्यश्री बताते है की इस विभावभाव के आभाव होने पर जिव का परम कल्याण होगा. Mithyadarsha के अभाव के साथ मोक्षमार्ग का उपाय प्रगत होगा.
Wednesday, May 20, 2009
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2 comments:
Important point to note:
गलत क्रिया के लिए तो प्रायश्रित करते है पर अनेक जन्मो से चल रहे विपरीत भावः के लिये कोई प्रायश्चित नही करते1 correction:
यह परम सुख स्वभावी आत्मा ही उपादय है वही समयक्त्व की रूचि हैCorrection: यह परम सुख स्वभावी आत्मा ही उपादेय है - ऐसी रूचि सम्यक्त्व है
Important point to note:
गलत क्रिया के लिए तो प्रायश्रित करते है पर अनेक जन्मो से चल रहे विपरीत भावः के लिये कोई प्रायश्चित नही करते1 correction:
यह परम सुख स्वभावी आत्मा ही उपादय है वही समयक्त्व की रूचि हैCorrection: यह परम सुख स्वभावी आत्मा ही उपादेय है - ऐसी रूचि सम्यक्त्व है
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