Thursday, May 14, 2009

राग द्वेष का विधान का विस्तार cont.

Class Date:5/13/09
Chapter:4th
Page#:92
Paragraph #:last 3rd
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Revision:
*इस अध्याय में संसार परिभ्रमण का कारण मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्र है एसा बताया हैऔर इसका कारण मिथ्यात्व, राग द्वेष है इसलिए इनको विशेष रूप से जानना जरुरी है|

प्र. Is चारित्र physical action?
उ. नहीं , चारित्र physical action नहीं है | चारित्र को यदि क्रिया कहेंगे तो वह तो शरीर की क्रिया हो जायेगी , जीव की कहाँ ? सो यह चारित्र जीव की परिणति है , वास्तव में आत्मा का परिणाम है | जैसे ज्ञान जीव का परिणाम है वैसे ही चारित्र ही जीव का परिणाम है एक गुण है |



SUMMARY:

*पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट बुद्धी होने पर जो राग द्वेषरुप परिणमन होता है उसका नाम मिथ्याचारित्र है; यही अग्रहित मिथ्याचारित्र है।यहाँ पर कहीं भी ऐसा नहीं कहा है कि किसी को मारना, सताना आदि मिथ्याचारित्र है और यदि हम ये सब बंद कर देंगे तो क्या सम्यक्चारित्र हो जाएगा क्या? उपवास करना न सम्यक चारित्र है और न मिथ्या चारित्र है वह तो शरीर कि एक क्रिया है, यहाँ जो भाव चलता है उसकी बात अलग है उसे सम्यक चारित्र या मिथ्या चारित्र कहा जा सकता है |जो स्वयं से ही राग द्वेष कि परिणति चलती है जो किसी से सिखा नहीं है उस अग्राहित मिथ्या चारित्र कि चर्चा यहाँ पर है |

* ऐसी बुद्धि होना कि ये पदार्थ ही भले बुरे है वह परमार्थ बुद्धि है और परमार्थ से राग द्वेष बुद्धि का होना ही मिथ्यचारित्र है |

* हास्य, रति तथा तिन वेद स्त्री वेद , नपुन्सकवेद पुरुशावेद ये सब राग रूप कषाय है तथा अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये द्वेष रूप कषाय है तथा ये सभी मिथ्याचरित्र है |

*माया तथा लोभ कषाय राग रुप हैं और क्रोध व मान कषाय द्वेष रुप है।

* मिथ्याचरित्र में स्वरुपाचरण चारित्र अर्थात स्वरुप में रमने कि प्रवृत्ति का अभाव है इसलिए यह अचारित्र भी कहलाता है | इसमें राग - द्वेष के परिणाम control नहीं होते है इसलिए यह असंयमी या अविरति भी कहलाता है | अविरति : पांच इन्द्रिय और मन के विषय में स्वच्छंद विरति होना और छाह्काय के जीवों कि हिंसा से विरत नहीं होना तथा उनके त्याग का भाव नहीं होना वह अविरति कहलाता है |

* राग द्वेष रूप परिणाम के साथ पांच पाप - हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये भी स्वाभाविक रूप से पाए जाते है उनमे प्रवृत्ति करना, उनका त्याग नहीं करना सो ये अव्रत कहलाता है, इनका मूल कारण प्रमत्त योग है , प्रमत्तयोग अर्थात प्रमाद सहित मन, वचन, काय कि प्रवृत्ति , जिससे अपने स्वरुप में असावधानी के साथ में ,अपने स्वरुप को नहीं जानकर पर पदार्थो को में प्रवृती करना जो कि कषाय भाव होने के कारण ही होता है इसलिए मिथ्याचारित्र को अव्रत भी कहते हैं |

इस प्रकार मिथ्याचारित्र का स्वरुप कहा |

*अगृहित मिथ्या- दर्शन, ज्ञान , चारित्र रूप जीव का परिणमन अनादी काल से चला आ रहा है , इसे जीव ने इस भावः में ग्रहण नहीं किया, उसे किसी जो समझाना नहीं पङता|

प्र. यदि मैंने पूर्व जन्म में बहुत गृहीत मिथ्यात्व किया, तो इस जन्म में वह गृहीत बनाकर उदय में आएगा या फिर गृहीत बनकर उदय में आएगा?
उ. उस गृहीत मिथ्यात्व के उदय से गृहीत मिथ्यात्व के ग्रहण रूप अवस्था बनती है तथा ऐसा भी हो सकता है कि जीव ने बहुत गृहीत मिथ्यात्व किया , तथा उसके बाद उसके उदय नहीं हो पाया तो वो परमाणु अग्रहित मिथ्यात्व में संक्रमित हो जाए |

*तथा मिथ्यादर्शन-ज्ञान चारित्र तो एकेंद्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक सभी जीवों को पाया जाता है और पंचेन्द्रिय संज्ञी में सम्यक्दृष्टि को छोड़कर सभी के पाया जाता है |
गृहीत मिथ्या दर्शन -ज्ञान चारित्र मात्र संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को पाया जाता है | अग्रहित मिथ्यादर्शन-ज्ञान चारित्र संज्ञी पंचेन्द्रिय को छोड़कर बाकी सभी के पाया जाता है |भले ही कोई मिथ्यत्वी व्रत तप आदि करे तो भी उसे मिथ्याचारित्र तो पाया ही जाएगा |

* एकेंद्रियादिक के भी ये पाया तो जाएगा ही भले ही उनकी ज्ञान , कषाय कि मंदता हो तो भी उनकी मिथ्यादर्शन -ज्ञान , चारित्र रूप तथा कषाय और दुःख रूप परिणति तो होती ही है, भले ही वो हमारे ज्ञान का विषय न बन सके |
*एकेंद्रियादिक जीव शब्द , इन्द्रिय नाम, शरीर आदि ये नहीं जानते परन्तु उसका भाव तो ग्रहण करते है , जैसे ये शरीर है ये मेरा है ये हमें पता चलता है उसी प्रकार एकेंद्रियादिक को जो पर्याय मिली है वह उसमें अहं बुद्धि करे बगैर रहेगा नहीं , उसमें उसका अपना पन तो रहेगा ही , उसे भी सुख -दुःख, पदार्थो में इष्ट अनिष्टपना तो पाया ही जाएगा |उसी प्रकार कुछ मनुष्य है जो कि ये शरिरादिक है ऐसा नाम नहीं जानते किन्तु उनका भी ऐसा भाव रूप परिणमन तो पाया ही जाता है | इसी प्रकार सभी गतियों के जीव के यथार्थ रूप से ग्रहण कर लेना |

मोह की महिमा :

* महिमा शब्द तो किसी के गुणगान के लिए कहा जाता है किन्तु यहाँ पर कटाक्ष के रूप में लिया गया है , की मोह के कारण जीव कैसे कैसे कार्य करता है |
* ये जो मिथ्यात्वादी भाव है जीव को किसी को सिखाने की जरुरत नहीं पड़ती है , बिना सिखाये ही सीख जाता है , नए ग्रहण किये नहीं होते है | जैसे बालक है उसे शुरू से ही सहज रूप से कषाय , राग द्वेष आदि पाए जाते है | उसे सिखाना नहीं पड़ता की ये मेरी माता है, ये तुम्हारी माता है , ये शरीर ही मैं हूँ | ये जीव जो पर्याय धारण करता है सहज ही वैसा ही परिणमन करने लगता है , उसे कुछ सिखाना नहीं पड़ता है | यहाँ मोह के उदय से बिना सिखाये ही स्वयमेव ऐसा परिणामित होता है |
* तथा मनुष्यादी बनाने पर जब इस जीव को सत्य बात पता चलने के कारण मिलाने पर भी सम्यक्त्व परिणमन नहीं करता है | वह विचार नहीं करता की आत्मा क्या है ? परमात्मा क्या है? वह कैसे परमात्मा बन सकता है ? वह सब क्षणिकता , क्षणभंगुरता जान कर भी विचार नहीं करता है |श्रीगुरु द्वारा बार बार सत्य बात का उपदेश मिलाने पर भी चिंतन नहीं करता है, उसे सामने , प्रत्यक्ष रूप से सत्य भाससित होने पर भी यह जीव सत्य को न मानकर मिथ्यत्क रूप ही प्रवर्तता है |सो यह किस प्रकार प्रवर्तता है , कहते हैं :
-मरण निश्चित है तथा मरण होने पर शरीर से आत्मा भिन्न हो जाता है शरीर यहइन रह जाता है ये प्रत्यक्ष दिखाई देता है यह जानता है | व्यन्तारादिक देवो, तर्क, अनुमान द्वारा यह पता चलता है की पूर्व भव आदि होते है, फिर भी मोह का ऐसा तीव्र उदय है की मानना नहीं चाहता है की शरीर और आत्मा भिन्न भिन्न होते है , भिन्न बुद्धि धारण नहीं करता है | शमशान में मनुष्य के शव को जलाते हुए देखकर, इतना करुण दृश्य देखकर भी जीव को यह भिन्न बुद्धि नहीं आती कि ऐसा भी स्वरुप मेरा है, मेरे में भी जीव और शरीर अलग अलग है |
- स्त्री पुत्रादि ये सभी अपने स्वार्थ के सगे प्रत्यक्ष देखे जाते है | यहाँ स्वार्थी अर्थात आपने अपने प्रयोजन के लिए ही कार्य करना , यदि तुमने हमारे लिए कुछ काम किया तो उसमे भी तुम्हारा कुछ प्रयोजन है | उदहारण के लिए जैसे बच्चा है , उसे खिलाने मैं भी माता का प्रयोजन होता है कि बच्चा स्वस्थ रहे, भोखा न रहे नहीं तो बाद में मुझे परेशान करेगा आदि |
सो स्त्री पुत्रादि अपने स्वार्थ के सगे प्रत्यक्ष देखे जाते है , वे वास्तव में जब तुम्हारे अनुकूल परिणमित होते दिखाई देते हैं तो वे तब भी अपने अपने अनुसार ही परिणमित होते है, यदि तुम ऐसा मानते हो कि तुम्हारे लिए वो परिणमित हुए है तो वह मिथ्यात्व है |
-यदि हमारे द्वारा उनका कुछ प्रयोजन सिद्ध न हो तो वे विपरीत रुप से परिणमित होते देखे जाते हैं, फिर भी यह जीव उसमे ममत्व करता है | उनके लिए पाप कार्य करता है , उनके लिए अनेक परिग्रह संचय करता है पाप सामग्री जुटाता है |


महत्वपूर्ण तथ्य :

*मिथ्याचरित्र में स्वरू में रमने की प्रवृत्ति का अर्थात स्वरुपचार्ण चरित्र का अभाव है इसलिए अचारित्र भी कहलाता है |
* मिथ्याचरित्र को अचारित्र, असंयम, अव्रत भी कहते हैं |

* जो जीव अव्रति है तो जरुरी नहीं है कि उसको मिथ्याचारित्र है ही, किन्तु जिसके मिथ्याचारित्र है वह तो नियम से ही अव्रति है भले ही उसाने कितने ही व्रत धारण कर रखे हों | ऐसा हो सकता है कि कोई जीव जिसने सम्यक्त्व धारण किया है किन्तु उसने व्रतो को धारण नहीं किया है अत: वो अव्रति है |

* अग्राहित मिथ्यादर्शन ज्ञान चरित्र जो है वो अनादी से है|

1 comment:

Vikas said...

Thanks for posting detailed summary.

Couple corrections:
पांच इन्द्रिय और मन के विषय में स्वच्छंद विरति होना
Correction: पांच इन्द्रिय और मन के विषय में स्वच्छंद होना, विरत नहीं होना - अविरति है

अग्रहित मिथ्यादर्शन-ज्ञान चारित्र संज्ञी पंचेन्द्रिय को छोड़कर बाकी सभी के पाया जाता है
Correction: अग्रहित मिथ्यादर्शन-ज्ञान चारित्र भी सभी जीवो को (except सम्यक्दृष्टी) पाया जाता है