Tuesday, November 24, 2009

MMP Class Notes - November 23rd, 2009

Class Date: ११/२३/२००९
Chapter: ७
Page#: २१०
Paragraph #: last para
Recorded version:
Summary:
** बात यह चल रहि हे कि जानना तो जिव का स्वभाव हे, उससे बन्ध केसे हो शकता हे.
बन्ध का कारण तो जानना राग-द्वेश सहित हे उस पे निर्भर करता हे.
पर या स्व को जानने से कोइ मतलब नही हे, वितरागता से निस्बत हे.

** जानना तो जिव का लक्शण हे अगर जानने से बन्ध होता तो एसा कहना पडता कि जानने का अभाव होगा तब बन्ध नहि होगा और इस लिये तब मोक्श होगा.
इस तरह चैतन्य के लक्शण का अभाव हो जायेगा, जिवपने का अभाव हो जायेगा, फिर विश्व कि व्यवश्था केसे बनि रहे?

** दुसरि बात यह हे कि ग्यान चैतन्य का लक्शण हे यह जानकर एक प्रकार कि निर्भयता आनी चाहीये कि ग्यान तुमसे कोइ छिन नहि शकता,
धन छुट जायेगा, शरीर छुट जायेगा लेकिन जानना कभी नही जायेगा. यह ग्यान कि महिमा हे.

** अब revise करते हे कि पर को जानने से अगर बन्ध हो तो क्या problem हो शकते हे?
१> केवली भगवान तो स्व-पर समस्त लोक को जान रहे हे अगर जानने से आश्रव हो तो भग्वान को कितना आश्रव होगा?
२> आगम मे कहा हे कि शुक्ल ध्यान में भि पर द्रव्य का ग्यान होता हे. तो पर को जानने का निषेध उस अवश्था मे भि नहि.
३> चोथे गुणस्थानक वाला शुध्ध उपयोगरुप आत्मा ध्यान करनेवाला श्रावक छठे गुणस्थानक वाले मुनिराज कि जो अशुभोपयोग रुप आहार कि क्रिया करते हे उनसे श्रावक को कम निर्जरा होती हे.
यहा तर्क यह हे कि मुनिराज कि तीन कषाय चोकडी ना होने से उनके अभिप्राय मे राग-द्वेश कि लेवेल श्रावक के राग-द्वेश से काफी कम हे.
इस तरह अभिप्राय मे राग-द्वेश कि परिणति बन्ध का मुख्य कारण हे.
४> अवधि ग्यान और मनःपर्याय ग्यान में जिव सिर्फ पर को जानता हे फिर भि उन्कि विशुध्दि बढि हुइ हे और निर्जरा भि ज्यादा हे.
५> एक हि विषय को अलग अलग जिव जाने या अलग-अलग समय पर एक जिव जाने तो उससे अलग अलग बन्ध होता हे.

प्रश्नः कोइ पुछे कि पर को जानने का प्रयोजन क्या हे?
तो बतलाते हे कि पर को जानना इस लिये जरुरी हे कि उससे स्व को यथार्थ जाना जा शके.
पर को भि जानने का प्रयोजन स्व को पकडने के लिये हि हे.
अगर पर को बराबर न जाने तो स्व क्या हे वोह पक्का निर्णय नहि जो शकता.
कभि पर को भि स्व मान लेने कि भुल हो शकति हे अतिक्रमन आदि कि संभावना रहती हे.
निंबु और सतंरे मे भेद ना पता हो तो कभि बडे निंबु को संतरे मानने कि भुल हो शकति हे.

दुसरि बातः जिस तरह पर को जानने का प्रयोजन भी स्व को जानना हि हे यह याद रखना जरुरी हे, उसि तरह यह भि याद रखना जरुरी हे कि सिर्फ पर को जानने मे सन्तुष्ट नही होना हे और स्व को जानने का लक्श भी नही भुलना हे.

** समयसार में सुंदर कलष हे जिस का अर्थ हेः
"भेद ज्ञान कि भव्य भावना बिना विराम के ( प्रमाद के बिना ) लगातार और सच्चे मन से ( प्रामाणिकता से ) तब तक भावते रहना जब तक पर से विरक्त होकर ग्यान स्व मे स्थित न हो.
इससे अधिक तो जिनेश्वर क्या कहे?

** यहा निश्चयाभासी कलष के माध्यम से तर्क करता हे और प्रश्न करता हे किः भेद् ग्यान हो जाने के बाद पर का जानना नही रहता और सिर्फ आप को आपरुप जानता हे. तो फिर पर को जानने कि क्या जरुरत हे?
-> जब पहेले स्व-पर को एक जानता था यानि कि पर को पररुप नहि जानता था तब भेद्ग्यान से पर को पर जाना.
अब उसके बाद, पर को पर रुप जानने लगा. अब पर को स्व रुप जो जानना था वोह मिट गया.
यानि कि पर को जानना नहि मिटा सिर्फ उसको स्व रुप जानना मिटा हे. पर को पर रुप जानना तो हमेशा रहेगा.

** अन्य बातः भेद ग्यान हो जाने के बाद सम्यक्त्व मे एक प्रकार कि सहजता आ जाती हे. यह कितनि अदभुत अनुभुति होगि.
स्व-पर कि यथार्थ समज सहजता के साथ. इस से सहज सुख प्रगट होता हे जो कि सच्चा सुख हे.
यह मंद कषाय का सुख नही , यह कषाय के अभाव का सुख हे.

** अब प्रश्न होता हे कि अगर पर द्रव्य का जानना या स्व के विशेश को जानना विकल्प नहि हे तो किस को विकल्प कहेंगे?
यहा २ मुख्य बात हे विकल्पता में ..
१> राग-द्वेश के साथ ज्ञेय को जानना , उदाहरणः खट्टा या मीठा स्वाद जानना तो सिर्फ जानना हुआ लेकिन यह मिठा स्वाद अच्छा हे यह राग हुआ. अगर खट्टे - मिठे कि पहचान हि ना कर शके तो यह तो ग्यान कि अयथार्थता हो जायेगि.
२> उपयोग का एक ज्ञेय में लगना , फिर छुटना और वहां से दूसरे ज्ञेय में भ्रमित होते रहना

अगर यह दोनो बात होगी तब विकल्प होंगे.
इसके बारे मे ज्यादा चर्चा अगली क्लास में करेंगे.

1 comment:

Vikas said...

भेजने के लिए धन्यवाद.

बन्ध का कारण तो जानना राग-द्वेश सहित हे उस पे निर्भर करता हे
Comment: बंध का कारण राग-द्वेष ही है, यहाँ भी जानने के कारण बंध नहीं है.

वितरागता से निस्बत हे.
Spelling correction: वीतरागता से निर्बंध है.

Good point: पर को भि जानने का प्रयोजन स्व को पकडने के लिये हि हे.

समयसार का कलश हिंदी में इस प्रकार है:
अरे भव्य जन भव्य भावना भेद ज्ञान की
सच्चे मन से बिन विराम के तब तक भाना
जब तक पर से हो विरक्त यह ज्ञान ज्ञान में
ही थिर न हो जाए अधिक क्या कहे जिनेश्वर!